श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 167 जितनी भूख अन रस साद है तितनी भूख फिरि लागै ॥ जिसु हरि आपि क्रिपा करे सो वेचे सिरु गुर आगै ॥ जन नानक हरि रसि त्रिपतिआ फिरि भूख न लागै ॥४॥४॥१०॥४८॥ पद्अर्थ: भूख अन रस साद = और रसों के स्वादों की भूख। रसि = रस से।4। अर्थ: और-और रसों की और-और स्वादों की जितनी भी तृष्णा (मनुष्य को लगती) है, (ज्यों ज्यों रसों के स्वाद लेते जाते हैं) उतनी ही तृष्णा बारंबार लगती जाती है। (माया के रसों से मनुष्य कभी भी तृप्त नहीं होता)। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है, वह मनुष्य गुरु के आगे (अपना) सिर बेच देता है (वह अपना आप गुरु के हवाले करता है)। हे दास नानक! वह मनुष्य परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाता है, उसे माया की तृष्णा नहीं व्यापती।4।4।10।48। गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ हमरै मनि चिति हरि आस नित किउ देखा हरि दरसु तुमारा ॥ जिनि प्रीति लाई सो जाणता हमरै मनि चिति हरि बहुतु पिआरा ॥ हउ कुरबानी गुर आपणे जिनि विछुड़िआ मेलिआ मेरा सिरजनहारा ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। चिति = चित्त में। हरि = हे हरि! देखा = मैं देखूँ।1। अर्थ: हे हरि! मेरे मन में चित्त में सदा ये उम्मीद रहती है कि मैं किसी तरह तेरा दर्शन कर सकूँ। (हे भाई!) जिस हरि ने मेरे अंदर अपना प्यार पैदा किया है वही जानता है। मुझे अपने मन में अपने चित्त में हरि बहुत अच्छा लग रहा है। मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने मुझे मेरा विछुड़ा हुआ विधाता हरि मिला दिया है।1। मेरे राम हम पापी सरणि परे हरि दुआरि ॥ मतु निरगुण हम मेलै कबहूं अपुनी किरपा धारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दुआरि = दर पर। मतु = शायद।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! मैं पापी तेरी शरण आया हूँ, तेरे दर पर आ गिरा हूँ कि शायद (इस तरह) तू अपनी मेहर करके मुझ गुणहीन को अपने चरणों में जोड़ ले।1। रहाउ। हमरे अवगुण बहुतु बहुतु है बहु बार बार हरि गणत न आवै ॥ तूं गुणवंता हरि हरि दइआलु हरि आपे बखसि लैहि हरि भावै ॥ हम अपराधी राखे गुर संगती उपदेसु दीओ हरि नामु छडावै ॥२॥ पद्अर्थ: गणत न आवै = गिनती की नहीं जा सकती।2। अर्थ: हे हरि! मेरे अंदर बेअंत अवगुण हैं, गिने नहीं जा सकते। मैं मुड़ मुड़ के अवगुण करता हूँ। तू गुणों का मालिक है, दया का घर है। जब तेरी रजा होती है तू खुद बख्श लेता है। (हे भाई!) हम जैसे पापियों को हरि गुरु की संगति में रखता है, उपदेश देता है, और उसका नाम विकारों से खलासी कर देता है।2। तुमरे गुण किआ कहा मेरे सतिगुरा जब गुरु बोलह तब बिसमु होइ जाइ ॥ हम जैसे अपराधी अवरु कोई राखै जैसे हम सतिगुरि राखि लीए छडाइ ॥ तूं गुरु पिता तूंहै गुरु माता तूं गुरु बंधपु मेरा सखा सखाइ ॥३॥ पद्अर्थ: कहा = कहूँ। गुरु बोलह = हम ‘गुरु गुरु’ बोलते हैं। बिसमु = आश्चर्यजनक आत्मिक हालत। सतिगुरि = सत्गुरू ने। बंधपु = रिश्तेदार। सखा = मित्र।3। अर्थ: हे मेरे सत्गुरू! मैं तेरे कौन कौन से गुण बयान करूँ? जब मैं ‘गुरु गुरु’ जपता हूँ, मेरी हालत आश्चर्यजनक अवस्था वाली बन जाती है। हम जैसे पापियों को जैसे सत्गुरू ने रख लिया है (बचा लिया है) (विकारों के पँजे से) छुड़ा लिया है। और कौन (इस तरह) बचा सकता है? हे हरि! तू ही मेरा गुरु है, मेरा पिता है, मेरा रिश्तेदार है, मेरा मित्र है।3। जो हमरी बिधि होती मेरे सतिगुरा सा बिधि तुम हरि जाणहु आपे ॥ हम रुलते फिरते कोई बात न पूछता गुर सतिगुर संगि कीरे हम थापे ॥ धंनु धंनु गुरू नानक जन केरा जितु मिलिऐ चूके सभि सोग संतापे ॥४॥५॥११॥४९॥ पद्अर्थ: बिधि = हालत। सा बिधि = वह हालत। कीरे = कीड़े। थापे = स्थापित किया, मनोनीत किया, आदर दिया। केरा = का। सभि = सारे।4। अर्थ: हे मेरे सत्गुरू! हे मेरे हरि! जो मेरी हालत होती थी, उस हालत को तू खुद ही जानता है। मै यहाँ-वहाँ भटकता फिरता था, मेरी कोई बात नहीं था पूछता, तूने मुझ कीड़े को गुरु सत्गुरू के चरणों में ला के आदर बख्शा। (हे भाई!) दास नानक का गुरु धन्य है। धन्य है जिस (गुरु) को मिल के मेरे सारे शोक समाप्त हो गए मेरे सारे कष्ट दूर हो गए।4।5।11।49। गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ कंचन नारी महि जीउ लुभतु है मोहु मीठा माइआ ॥ घर मंदर घोड़े खुसी मनु अन रसि लाइआ ॥ हरि प्रभु चिति न आवई किउ छूटा मेरे हरि राइआ ॥१॥ पद्अर्थ: कंचन = सोना। जीउ = जिंद, मन। अन रसि = और-और (पदार्थों के) रस में। चिति = चित्त में। छूटा = छूटू, मैं (इस मोह में से) निकलूँ।1। अर्थ: मेरी जीवात्मा सोने (के मोह) में, स्त्री (के मोह) में फसी हुई है। माया का मोह मुझे मीठा लग रहा है। घर, पक्के महल घोड़े (देख-देख के) मुझे चाव चढ़ता है, मेरा मन और-और पदार्थों के रस में लगा हुआ है। हे मेरे हरि! हे मेरे राजन! (तू) परमात्मा कभी मेरे चित्त में नहीं आता। मैं (इस मोह में से) कैसे निकलूँ?।1। मेरे राम इह नीच करम हरि मेरे ॥ गुणवंता हरि हरि दइआलु करि किरपा बखसि अवगण सभि मेरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करम = काम। सभि = सारे।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! मेरे हरि! मेरे ये नीच कर्म हैं। पर तू गुणों का मालिक है। तू दया का घर है। मेहर कर और मेरे सारे अवगुण बख्श।1। रहाउ। किछु रूपु नही किछु जाति नाही किछु ढंगु न मेरा ॥ किआ मुहु लै बोलह गुण बिहून नामु जपिआ न तेरा ॥ हम पापी संगि गुर उबरे पुंनु सतिगुर केरा ॥२॥ पद्अर्थ: ढंगु = तरीका, सलीका। बोलह = हम बोलें। बिहून = बगैर। संगि = संगति में। पुंनु = नेकी। केरा = का।2। अर्थ: ना मेरा (सुंदर) रूप है, ना मेरी ऊँची जाति है, ना मेरे में कोई निपुणता है। हे प्रभु! मैं गुणों से विहीन हूँ। मैंने तेरा नाम नहीं जपा। मैं कौन सा मुंह ले कर (तेरे सामने) बात करने के लायक हूँ? ये सत्गुरू की मेहर हुई है कि मैं पापी, गुरु की संगति में रह के (पापों से) बच गया हूँ।2। सभु जीउ पिंडु मुखु नकु दीआ वरतण कउ पाणी ॥ अंनु खाणा कपड़ु पैनणु दीआ रस अनि भोगाणी ॥ जिनि दीए सु चिति न आवई पसू हउ करि जाणी ॥३॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। कउ = वास्ते। अनि = अनेक। जिनि = जिस ने। हउ = मैं।3। अर्थ: ये जीवात्मा, ये शरीर, ये मुंह ये नाक आदि अंग ये सब कुछ परमात्मा ने मुझे दिया है। पानी (हवा, अग्नि आदि) मुझे उसने बरतने के लिए दिए हैं। उसने मुझे अन्न खाने को दिया है, कपड़ा पहनने को दिया है, और अनेक स्वादिष्ट पदार्थ भोगने को दिए हैं। पर, जिस परमात्मा ने ये सारे पदार्थ दिए हैं, वह मुझे कभी याद भी नहीं आता। मैं (मूर्ख) पशु अपने आप को बड़ा समझता हूँ।3। सभु कीता तेरा वरतदा तूं अंतरजामी ॥ हम जंत विचारे किआ करह सभु खेलु तुम सुआमी ॥ जन नानकु हाटि विहाझिआ हरि गुलम गुलामी ॥४॥६॥१२॥५०॥ पद्अर्थ: करह = करें। तुम = तुम्हारा, तेरा। हाटि = दुकान में से, मण्डी में। गुलम गुलामी = गुलामों का गुलाम।4। अर्थ: (हे प्रभु! हम जीवों के वश में भी क्या है? जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा ही किया हो रहा है, तू हरेक दिल की जानता है। हम तुच्छ जीव (तुझसे बागी हो के) क्या कर सकते हैं? हे स्वामी! ये सारा तेरा ही खेल हो रहा है। (जैसे कोई गुलाम मण्डी से खरीदा जाता है तैसे ही) ये तेरा दास नानक (तेरी साधु-संगत की दुकान में) (तेरे सुंदर नाम से) बिका हुआ है। तेरे गुलामों का गुलाम है।4।6।12।50। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |