श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 169 हरि हरि निकटि वसै सभ जग कै अपर्मपर पुरखु अतोली ॥ हरि हरि प्रगटु कीओ गुरि पूरै सिरु वेचिओ गुर पहि मोली ॥३॥ पद्अर्थ: अपरंपर = परे से परे। गुरि = गुरु ने। मोली = मुल्य से।3। अर्थ: वह परमात्मा जो परे से परे है जो सर्व व्यापक है। जिसके गुणों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, सारे जगत के नजदीक बस रहा है। उस परमात्मा को पूरे गुरु ने मेरे अंदर प्रगट किया है, (इस वास्ते) मैंने अपना सिर गुरु के पास मोल में बेच दिया है (भाव, अपना कोई हक दावा नहीं रखा जैसे मूल्य लेकर बेची किसी चीज पर कोई हक नहीं रह जाता)।3। हरि जी अंतरि बाहरि तुम सरणागति तुम वड पुरख वडोली ॥ जनु नानकु अनदिनु हरि गुण गावै मिलि सतिगुर गुर वेचोली ॥४॥१॥१५॥५३॥ पद्अर्थ: तुम सरणागति = तेरी शरण आया हूँ। वडोली = बड़ा। अनदिनु = हर रोज। वैचोली = वकील, बिचोला।4। अर्थ: हे हरि! (सारे जगत में सब जीवों के) अंदर-बाहर तू बस रहा है। मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरे वास्ते तू ही सबसे बड़ा मालिक है। दास नानक, गुरु विचोले को मिल के हर रोज हरि के गुण गाता है।4।1।15।531 गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ जगजीवन अपर्मपर सुआमी जगदीसुर पुरख बिधाते ॥ जितु मारगि तुम प्रेरहु सुआमी तितु मारगि हम जाते ॥१॥ पद्अर्थ: जगजीवन = हे जगत के जीवन। अपरंपर = परे से परे। जगदीसुर = (जगत्+ईश्वर) हे जगत के ईश्वर। बिधाते = हे सृजणहार! जितु = जिस में। मारगि = रास्ते में। जितु मारगि = जिस राह पर।1। अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! हे बेअंत प्रभु! हे सवामी! हे जगत के ईश्वर! हे सर्व-व्यापक! हे सुजनहार! हम जीवों को तू जिस रास्ते पर (चलने के लिए) प्रेरित करता है, हम उसी रास्ते पर ही चलते हैं।1। राम मेरा मनु हरि सेती राते ॥ सतसंगति मिलि राम रसु पाइआ हरि रामै नामि समाते ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सेती = साथ। राते = रंगे हुए। मिलि = मिल के। नामि = नाम में।1। रहाउ। अर्थ: हे राम (मेहर कर) मेरा मन तेरे (नाम) में रंगा रहे। (हे भाई! जिस लोगों ने ईश्वर की कृपा से) साधु-संगत में मिल के राम-रस प्राप्त कर लिया, वे परमात्मा के नाम में ही मस्त रहते हैं।1। रहाउ। हरि हरि नामु हरि हरि जगि अवखधु हरि हरि नामु हरि साते ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जो गुरमति राम रसु खाते ॥२॥ पद्अर्थ: जगि = जगत में। अवखधु = दवाई। साति = शांति (देने वाला)। दोख = ऐब, अवगुण।2। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जगत में (सब रोगों की) दवाई है। परमात्मा का नाम (आत्मिक) शांति देने वाला है जो मनुष्य गुरु की मति ले के परमातमा का नाम-रस चखते हैं, उनके सारे पाप, सारे ऐब नाश हो जाते हैं।2। जिन कउ लिखतु लिखे धुरि मसतकि ते गुर संतोख सरि नाते ॥ दुरमति मैलु गई सभ तिन की जो राम नाम रंगि राते ॥३॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। सरि = सर में। संतोख सरि = संतोष के सरोवर में।3। अर्थ: जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से (भक्ति का) लेख लिखा जाता है, वह मनुष्य गुरु रूप संतोखसर में स्नान करते हैं (भाव, वे मनुष्य गुरु में अपना आप लीन कर देते हैं और वे संतोष वाला जीवन जीते हैं)। जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनकी बुरी मति वाली सारी मैल दूर हो जाती है।3। राम तुम आपे आपि आपि प्रभु ठाकुर तुम जेवड अवरु न दाते ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै हरि जपीऐ हरि किरपा ते ॥४॥२॥१६॥५४॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! जीवे = आत्मिक जीव प्राप्त करता है। ते = से, साथ।4। अर्थ: हे राम! हे ठाकुर! तू स्वयं ही तू खुद ही तू आप ही (सब जीवों का) मालिक है। तेरे जितना बड़ा और कोई दाता नहीं है। दास नानक जब परमात्मा का नाम जपता है, तो आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। (पर) परमात्मा का नाम परमातमा की मेहर से ही जपा जा सकता है।4।2।16।54। गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ करहु क्रिपा जगजीवन दाते मेरा मनु हरि सेती राचे ॥ सतिगुरि बचनु दीओ अति निरमलु जपि हरि हरि हरि मनु माचे ॥१॥ पद्अर्थ: राचे = रचा रहे, मस्त रहे। सतिगुरि = गुरु ने। बचनु = उपदेश। माचे = मचलता है, खुश होता है।1। अर्थ: हे जगत के जीवन! हे दातार! कृपा कर, मेरा मन तेरी याद में मस्त रहे। (तेरी कृपा से) सत्गुरू ने मुझे बहुत पवित्र उपदेश दिया है, अब मेरा मन हरि नाम जप जप के खुश हो रहा है।1। राम मेरा मनु तनु बेधि लीओ हरि साचे ॥ जिह काल कै मुखि जगतु सभु ग्रसिआ गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम बाचे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बेधि लीओ = बेध लिया। साचे = सदा कायम रहने वाले ने। काल = आत्मिक मौत। मुखि = मुंह में। ग्रसिया = निगला हुआ। बाचे = बच गए हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे राम! हे सदा कायम रहने वाले हरि! तूने (मेहर कर के) मेरे मन को मेरे तन को (अपने चरणों में) बेध लिया है। जिस आत्मिक मौत के मुंह में सारा संसार निगला हुआ है, (उस आत्मिक मौत से) मैं सतिगरू के उपदेश (की इनायत से) बच गया हूँ।1। रहाउ। जिन कउ प्रीति नाही हरि सेती ते साकत मूड़ नर काचे ॥ तिन कउ जनमु मरणु अति भारी विचि विसटा मरि मरि पाचे ॥२॥ पद्अर्थ: सेती = साथ। साकत = रब से टूटे हुए, माया के आँगन में। काचे = कमजोर जीवन वाले। विसटा = विकारों का गंद। मरि = आत्मिक मौत ले के। पाचै = पचते हैं, दुखी होते हैं2। अर्थ: जिस मनुष्यों को परमातमा (के चरणों) के साथ प्रीति प्राप्त नहीं हुई, वे माया के आँगन में मूर्ख मनुष्य कमजोर जीवन वाले रहते हैं। उनके वास्ते जनम मरण का दुखदायक चक्र बना रहता है। वे (विकारों की) गंदगी में आत्मिक मौत ले ले कर दुखी होते रहते हैं।2। तुम दइआल सरणि प्रतिपालक मो कउ दीजै दानु हरि हम जाचे ॥ हरि के दास दास हम कीजै मनु निरति करे करि नाचे ॥३॥ पद्अर्थ: सरणि प्रतिपालक = शरण आए की रक्षा करने वाला। कउ = को। मो कउ = मुझे। जाचे = याचना करता है, मांगता है। निरति = नृत्य, नाच।3। अर्थ: हे दयाल प्रभु! हे शरण आए की रक्षा करने वाले प्रभु! मैं तेरे दर से तेरा नाम मांगता हूँ, मुझे ये दाति बख्श। मुझे अपने दासों का दास बनाए रख। ता कि मेरा मन (तेरे नाम में जुड़ के) सदा नृत्य करता रहे (सदैव आत्मिक आनंद में लीन रहे)।3। आपे साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे हहि ता चे ॥ मेरा मनु तनु जीउ रासि सभ तेरी जन नानक के साह प्रभ साचे ॥४॥३॥१७॥५५॥ पद्अर्थ: ता चे = उस के। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4। अर्थ: प्रभु स्वयं ही (नाम रस की पूंजी देने वाले सब जीवों के) बड़ा शाह है, मालिक है। हम सभी जीव उस (शाह) के (भेजे हुए) वणजारे हैं (व्यापारी हैं)। हे दास नानक के सदा स्थिर शाह व प्रभु! मेरा मन, मेरा तन, मेरा जीवात्मा- ये सब कुछ तेरी बख्शी हुई राशि-पूंजी है (मुझे अपने नाम की दाति भी बख्श)।4।3।17।55। गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ तुम दइआल सरब दुख भंजन इक बिनउ सुनहु दे काने ॥ जिस ते तुम हरि जाने सुआमी सो सतिगुरु मेलि मेरा प्राने ॥१॥ पद्अर्थ: दइआल = (दया+आलय) दया का घर। सरब = सारे। भंजन = नाश करने वाला। बिनउ = विनय। दे काने = कान दे के, ध्यान से। जिस ते = जिस (गुरु) से। जानै = जान पहिचान होती है। प्राने = प्राण, जीवात्मा।1। अर्थ: हे (जीवों के) सारे दुख नाश करने वाले स्वामी! तू दया का घर है। मेरी एक आरजू ध्यान से सुन। मुझे वह सत्गुरू मिला जो मेरी जीवात्मा (का सहारा) है, जिसकी कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ पड़ती है।1। राम हम सतिगुर पारब्रहम करि माने ॥ हम मूड़ मुगध असुध मति होते गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम जाने ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि = करके, (बराबर का) करके। माने = माना है। असुध = अशुद्धि, मैली। मुगध = मूर्ख।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैंने सत्गुरू को (आत्मिक जीवन में) राम पारब्रह्म के बराबर का माना है। मैं मूर्ख था, महा मूर्ख था, मलीन मति वाला था, गुरु सत्गुरू के उपदेश (की इनायत से) मैंने परमात्मा के साथ जान-पहिचान डाल ली है।1। रहाउ। जितने रस अन रस हम देखे सभ तितने फीक फीकाने ॥ हरि का नामु अम्रित रसु चाखिआ मिलि सतिगुर मीठ रस गाने ॥२॥ पद्अर्थ: अन = अन्य, और-और। मिलि = मिल के। गाने = गन्ना।2। अर्थ: जगत के जितने भी अन्य रस हैं, मैंने देख लिए हैं, वे सारे ही फीके हैं, बेस्वाद हैं। गुरु को मिल के मैंने आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-रस चखा है। वह रस मीठा है जैसे गन्ने का रस मीठा होता है।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |