श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिन कउ गुरु सतिगुरु नही भेटिआ ते साकत मूड़ दिवाने ॥ तिन के करमहीन धुरि पाए देखि दीपकु मोहि पचाने ॥३॥

पद्अर्थ: भेटिआ = मिला। दिवाने = कमले, झल्ले। हीन = नीच। धुरि = धुर से। मोहि = मोह में। पचाने = पचते हैं, जलते हैं।3।

अर्थ: जिस मनुष्यों को गुरु नहीं मिलता, वे मूर्ख, ईश्वर से टूटे हुए रहते हैं। वे माया के पीछे झल्ले हुए फिरते हैं। (पर, उनके भी क्या बस?) धुर से ही (परमात्मा ने) उनके भाग्यों में (ये) नीच कर्म ही डाले हुए हैं, वे माया के मोह में ऐसे जलते रहते हैं जैसे दीपक को देख के (पतंगे)।3।

जिन कउ तुम दइआ करि मेलहु ते हरि हरि सेव लगाने ॥ जन नानक हरि हरि हरि जपि प्रगटे मति गुरमति नामि समाने ॥४॥४॥१८॥५६॥

पद्अर्थ: प्रगटे = प्रगट हुए, चमक गए। नामि = नाम में।4।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों को तू मेहर करके (गुरु चरणों में) मिलाता है, वे, हे हरि! तेरी सेवा-भक्ति में लगे रहते हैं। हे दास नानक! वे परमात्मा का नाम जप ज पके चमक पड़ते हैं। गुरु की मति पर चल के वे प्रभु के नाम में लीन रहते हैं।4।4।18।56।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ मेरे मन सो प्रभु सदा नालि है सुआमी कहु किथै हरि पहु नसीऐ ॥ हरि आपे बखसि लए प्रभु साचा हरि आपि छडाए छुटीऐ ॥१॥

पद्अर्थ: कहु = बताओ। पहु = से। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।1।

अर्थ: हे मेरे मन! वह स्वामी हर वक्त (जीवों के) साथ (बसता) है। बताओ वह कौन सी जगह है जहां उस प्रभु से हम भाग सकते हैं? वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (हमारे अवगुण) बख्श लेता है। वह हरि खुद ही (विकारों के पँजों से) छुड़ा लेता है (उसी की सहायता से विकारों से) बच सकते हैं।1।

मेरे मन जपि हरि हरि हरि मनि जपीऐ ॥ सतिगुर की सरणाई भजि पउ मेरे मना गुर सतिगुर पीछै छुटीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! मनि = मन में। भजि = दौड़ के। पउ = लेट जाओ (लेटना)। पीछै = पीछे चलने से।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा हरि-नाम जप। (हे भाई!) हरि-नाम सदा मन में जपना चाहिए। हे मेरे मन! सत्गुरू की शरण पड़। गुरु का आसरा लेने से (माया के बंधनों से) बच जाते हैं।1। रहाउ।

मेरे मन सेवहु सो प्रभ स्रब सुखदाता जितु सेविऐ निज घरि वसीऐ ॥ गुरमुखि जाइ लहहु घरु अपना घसि चंदनु हरि जसु घसीऐ ॥२॥

पद्अर्थ: स्रब = सरब, सारे। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा करने से। घरि = घर में। लहहु = ढूँढ लो। घसि = घिसा के।2।

अर्थ: हे मेरे मन! सारे सुख देने वाले उस परमात्मा का स्मरण कर, जिसकी शरण पड़ने से अपने घर में बस सकते हैं (माया की भटकना से बच के अंतरात्मे टिक सकते हैं)। (हे मन!) गुरु की शरण पड़ कर अपना (असल) घर जा के ढूँढ ले (प्रभु के चरणों में टिक)। (जैसे) चंदन (सिल्ली पे) घिसने से (सुगंधि देता है, वैसे ही) परमात्मा की महिमा (उपमा, प्रशंसा) को (अपने मन के साथ) घसाना चाहिए (आत्मिक जीवन में सुगंधि पैदा होगी)।2।

मेरे मन हरि हरि हरि हरि हरि जसु ऊतमु लै लाहा हरि मनि हसीऐ ॥ हरि हरि आपि दइआ करि देवै ता अम्रितु हरि रसु चखीऐ ॥३॥

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। मनि = मन में। हसीऐ = आनंद ले सकते हैं।3।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की महिमा सब से श्रेष्ठ पदार्थ है। (हे भाई!) हरि नाम की कमाई कमा के मन में आत्मिक आनंद ले सकते हैं। जब परमात्मा खुद मेहर करके अपने नाम की दाति देता है, तब आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम-रस चख सकते हैं।3।

मेरे मन नाम बिना जो दूजै लागे ते साकत नर जमि घुटीऐ ॥ ते साकत चोर जिना नामु विसारिआ मन तिन कै निकटि न भिटीऐ ॥४॥

पद्अर्थ: जमि = जम ने। साकत = ईश्वर से टूटे हुए, माया के आँगन में। निकटि = नजदीक। भिटीऐ = छूना चाहिए।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम भुला के जो मनुष्य और तरफ व्यस्त रहते हैं, वे परमात्मा से टूट जाते हैं। यम ने उन्हें जकड़ लिया होता है (आत्मिक मौत उनका दायरा कम कर देती है)। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम बिसार दिया, वे माया के मोह में जकड़े गए, वे ईश्वर के चोर बन गए। हे मेरे मन! उनके नजदीक नहीं होना चाहिए।4।

मेरे मन सेवहु अलख निरंजन नरहरि जितु सेविऐ लेखा छुटीऐ ॥ जन नानक हरि प्रभि पूरे कीए खिनु मासा तोलु न घटीऐ ॥५॥५॥१९॥५७॥

पद्अर्थ: अलख = अदृश्य। नरहरि = परमात्मा। प्रभि = प्रभु ने। पूरे = मुकम्मल, सम्पूर्ण।5।

अर्थ: हे मेरे मन! उस परमातमा की सेवा भक्ति करजो अदृश्य है जो माया के प्रभाव से परे है। उसकी सेवा भक्ति करने से (किए कर्मों का) लेखा समाप्त हो जाता है (माया की तरफ प्रेरित करने वाले संस्कार मनुष्य के अंदर से समाप्त हो जाते हैं)।

हे दास नानक! जिस मनुष्यों को हरि प्रभु ने पूर्णत: शुद्ध जीवन वाला बना दिया है, उनके आत्मिक जीवन में एक तौला भर, मासा भर, रत्ती भर भी कमजोरी नहीं आती।5।5।19।57।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हमरे प्रान वसगति प्रभ तुमरै मेरा जीउ पिंडु सभ तेरी ॥ दइआ करहु हरि दरसु दिखावहु मेरै मनि तनि लोच घणेरी ॥१॥

पद्अर्थ: तुमरै वसगति = तेरे बस में। प्रभू = हे प्रभु! जीउ = जीवात्मा, जिंद। पिंडु = शरीर। तेरी = तेरा (काव्य छंदाबंदी तुकांत ठीक करने के लिए ‘तेरा’ की जगह ‘तेरी’)। लोच = तमन्ना। घणेरी = बहुत।1।

अर्थ: हे प्रभु! मेरे प्राण तेरे वश में ही हैं। मेरी जीवात्मा और मेरा शरीर ये सब तेरे ही दिए हुए हैं। हे प्रभु! (मेरे ऊपर) मेहर कर, मुझे अपना दर्शन दे, (तेरे दर्शन की) मेरे मन में मेरे दिल में बड़ी तमन्ना है।1।

राम मेरै मनि तनि लोच मिलण हरि केरी ॥ गुर क्रिपालि क्रिपा किंचत गुरि कीनी हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: केरी = की। मनि = मन में। तनि = तन में। क्रिपालि = कृपालु ने। किंचतु = थोड़ी सी। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे हरि! मेरे मन में मेरे दिल में तुझे मिलने की (बहुत) चाह है। (हे भाई!) कृपालु गुरु ने जब थोड़ी सी कृपा की, तो मेरा हरि प्रभु मुझे आ मिला।1। रहाउ।

जो हमरै मन चिति है सुआमी सा बिधि तुम हरि जानहु मेरी ॥ अनदिनु नामु जपी सुखु पाई नित जीवा आस हरि तेरी ॥२॥

पद्अर्थ: मन चिति = मन में चित्त में। बिधि = हालत। अनदिनु = हर रोज। जपी = मैं जपूँ। पाई = मैं पाऊँ। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ।2।

अर्थ: हे हरि! हे मेरे स्वामी! हम जीवों के मन में, चित्त में जो कुछ घटित होता है, वह हालत तू खुद ही जानता है। हे हरि! मुझे (सदा) तेरी (मेहर की) आशा रहती है (कि तू कृपा करे तो) मैं हर रोज तेरा नाम जपता रहूँ, आत्मिक आनंद लेता रहूं, और सदा आत्मिक जीवन जीता रहूँ।2।

गुरि सतिगुरि दातै पंथु बताइआ हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥ अनदिनु अनदु भइआ वडभागी सभ आस पुजी जन केरी ॥३॥

पद्अर्थ: दातै = दाते ने। पंधु = रास्ता। केरी = की।3।

अर्थ: (नाम की) दात देने वाले गुरु ने सत्गुरू ने मुझे (परमात्मा से मिलने का) राह बताया और मेरा हरि-प्रभु मुझे आ मिला। बड़े भाग्यों से (मेरे हृदय में) हर रोज (हर वक्त) आत्मिक आनंद बना रहता है। मुझ दास की आशा पूरी हो गई है।3।

जगंनाथ जगदीसुर करते सभ वसगति है हरि केरी ॥ जन नानक सरणागति आए हरि राखहु पैज जन केरी ॥४॥६॥२०॥५८॥

पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसुर = हे जगत के ईश्वर! पैज = लज्जा।4।

अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के ईश्वर! हे कर्तार! ये सारी सृष्टि (जगत खेल) तेरे वश में है। हे दास नानक! (अरदास कर और कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझ दास की लज्जा (इज्जत) रख।4।6।20।58।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इहु मनूआ खिनु न टिकै बहु रंगी दह दह दिसि चलि चलि हाढे ॥ गुरु पूरा पाइआ वडभागी हरि मंत्रु दीआ मनु ठाढे ॥१॥

पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। खिनु = रत्ती भर भी। बहु रंगी = बहुत रंग तमाशों में (फस के)। दह = दस। दिसि = दिशाओं में, की ओर। चलि = चल के, दौड़ के। हाढे = भटकता है। ठाढे = खड़ा हो गया।1।

अर्थ: (मेरा) ये अंजान मन बहुत रंग-तमाशों में (फंस के) छिन भर भी टिकता नहीं, दसों दिशाओं में दौड़ दौड़ के भटकता है। (पर अब) बड़े भाग्यों से (मुझे) पूरा गुरु मिल पड़ा है। उसने प्रभु (-नाम स्मरण का) उपदेश दिया है (जिस की इनायत से) मन शांत हो गया है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh