श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राम हम सतिगुर लाले कांढे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लाले = गुलाम। कांढे = बहलाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे राम! मैं गुरु का गुलाम कहलाता हूँ।1। रहाउ।

हमरै मसतकि दागु दगाना हम करज गुरू बहु साढे ॥ परउपकारु पुंनु बहु कीआ भउ दुतरु तारि पराढे ॥२॥

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। दागु = निशान। दगाना = दागा गया। साढे = सांढे, इकट्ठा कर लिया है। पुंनु = भलाई, नेकी। भउ = भव सागर। दुतरु = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल हो। पराढे = पार कर दिया है।2।

अर्थ: (पूरे गुरु ने मेरे पर) बहुत परोपकार किए हैं, भलाई की है, मुझे उस संसार समुंदर से पार लंघा दिया है, जिससे पार होना बहुत मुश्किल था। (गुरु के उपकार का ये) बहुत करजा (मेरे सिर पर) इकट्ठा हो गया है। (ये कर्जा उतर नहीं सकता, उसके बदले गुरु का गुलाम बन गया हूँ, और) मेरे माथे पे (गुलामी का) निशान दागा गया है।2।

जिन कउ प्रीति रिदै हरि नाही तिन कूरे गाढन गाढे ॥ जिउ पाणी कागदु बिनसि जात है तिउ मनमुख गरभि गलाढे ॥३॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। कूरे = झूठे। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। गरभि = गर्भ में, योनियों के चक्र में। गलाढे = गलते हैं।3।

अर्थ: जिस मनुष्योंकेहृदय में परमात्मा का प्यार नहीं होता (अगर वे बाहर लोकाचार वश प्यार का कोई दिखावा करते हैं, तो) वे झूठी उधेड़-बुन ही करते हैं। जैसे पानी में (पड़ा) कागज गल जाता है वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु प्रीति से वंचित होने के कारण) योनियों के चक्र में (अपने आत्मिक जीवन की तरफ से) गल जाते हैं।3।

हम जानिआ कछू न जानह आगै जिउ हरि राखै तिउ ठाढे ॥ हम भूल चूक गुर किरपा धारहु जन नानक कुतरे काढे ॥४॥७॥२१॥५९॥

पद्अर्थ: न जानह = हम नहीं जानते। आगै = आने वाले समय में। ठाढे = खड़े हैं। कुतरे = कुत्ते, कूकर। काढे = कहलाते हैं।4।

अर्थ: (पर हम जीवों की कोई चतुराई समझदारी काम नहीं कर सकती) ना (अब तक) हम जीव कोई चतुराई-अक्लमंदी कर सके हैं। ना ही भविष्य में समर्थ होंगे। जैसे परमात्मा हमें रखता है उसी हालात में हम टिकते हैं।

हे दास नानक! (उसके दर पर अरदास, प्रार्थना ही फबती है। अरदास करो और कहो-) हे गुरु! हमारी भूलें चूकें (अनदेखा कर के हमारे ऊपर) मेहर करो। हम (तुम्हारे दर पर) कुत्ते कहलवाते हैं।4।7।21।59।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥

पद्अर्थ: कामि = काम से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर नगर। साधू = गुरु। खंडल = टोटे, अंश (खण्ड = a piece)। खंडा = नाश कर देता। पूरबि = पूर्बले जनम में। मनि = मन में। मंडल = रौशनी के चक्र (जैसे सूर्य व चंद्रमा के चारों तरफ चक्र)। मंडा = सजाया।1।

अर्थ: (हे भाई!) ये शरीर रूपी नगर काम-क्रोध से बहुत भरा रहता है (गंदा हुआ रहता है), गुरु को मिल के (काम-क्रोध आदि के) सारे अंश नाश कर लिए जाते हैं। पूर्व जनम में (किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जिस मनुष्य के माथे पर) लेख लिखे जाते हैं, उसे गुरु मिल जाता है, और उसके मन में, हरि चरणों में ध्यान जोड़ने की इनायत से आत्मिक रौशनी की सजावट हो जाती है।1।

करि साधू अंजुली पुंनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंजुली = (अंजुलि, अंजलि = कृ = दानों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने के लिए सिर तक पहुँचाने) हाथ जोड़ के अरदास। पुंनु = भलाई, भला काम। डंडउत = दण्डवत्, डण्डे की तरह सीधे लेट के प्रणाम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के आगे हाथ जोड़ के नमस्कार कर, ये बड़ा नेक काम है। गुरु के आगे डण्डवत की, ये बड़ा भला काम है।1। रहाउ।

साकत हरि रस सादु न जानिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥

पद्अर्थ: साकत = रब से टूटे हुए, माया में ग्रसे जीव। चलहि = चलते हैं। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिरि = सिर पर।2।

अर्थ: माया के आँगन में ग्रसे मनुष्य परमात्मा के नाम के रस का स्वाद नहीं जानते, उनके अंदर अहंकार का काँटा (टिका रहता) है। वह मनुष्य ज्यों ज्यों (जीवन मार्ग में) चलते हैं त्यों त्यों (वह अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, वे अपने सिर पर आत्मिक मौत रूपी डंडा (डण्डे की चोट) बर्दाश्त करते रहते हैं।2।

हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। भव = संसार, संसार समुंदर। सोभ = शोभा। खंड = खण्ड, हिस्सा।3।

अर्थ: परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं। उनके जनम मरण (के चक्र) का दुख संसार समुंदर (के विकारों) का दुख नाश हो जाता है। उन्हें नाश-रहित सर्व-व्यापक परमेश्वर मिल जाता है, और ब्रह्मण्ड के सारे खण्डों में उनकी बहुत शोभा होती है।3।

हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥८॥२२॥६०॥

पद्अर्थ: मसकीन = आजिज। आधारु = आसरा। मंडा = मिलता।4।

अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! हम जीव गरीब हैं, आजीज हैं, तेरे हैं, तू ही हमारा सब से बड़ा आसरा है। हमारी रक्षा कर। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम को (जिंदगी का) आसरा-सहारा बनाया है, वह परमात्मा के नाम में ही सदैव आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।4।8।22।60।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इसु गड़ महि हरि राम राइ है किछु सादु न पावै धीठा ॥ हरि दीन दइआलि अनुग्रहु कीआ हरि गुर सबदी चखि डीठा ॥१॥

पद्अर्थ: गढ़ = किला (शरीर)। राइ = राजा, प्रकाश रूप। सादु = स्वाद, आनंद। धीठा = ढीठ (बार बार विकारों की तरफ परतने की जिद करने वाला)। दइआलि = दयालु ने। अनुग्रहु = कृपा।1।

अर्थ: इस (शरीर-) किले में (जगत का) राजा हरि परमात्मा बसता है, (पर, विकारोंके स्वादों में) ढीठ बने मनुष्य को (अंदर बसते परमात्मा के मिलाप का कोई) आनंद नहीं आता। जिस मनुष्य पर दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने कृपा की, उसने गुरु के शब्द द्वारा (हरि नाम रस) चख के देख लिया है (कि ये सचमुच ही मीठा है)।1।

राम हरि कीरतनु गुर लिव मीठा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लिव = लगन।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु (के चरणों में) लगन (लगा के) परमात्मा की महिमा करो। (दुनिया के सब रसों से ये रस) मीठा है।1। रहाउ।

हरि अगमु अगोचरु पारब्रहमु है मिलि सतिगुर लागि बसीठा ॥ जिन गुर बचन सुखाने हीअरै तिन आगै आणि परीठा ॥२॥

पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे), अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो सके। मिलि = मिल के। लागि = लग के। बसीठा = बिचौला, वकील। सुखाने = प्यारे लगे। हीअरै = हृदय में। आणि = ला के। परीठा = परोस धरा।2।

अर्थ: जो हरि पारब्रह्म अगम्य (पहुँच से परे) है जिस तक मनुष्य के ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। वह हरि प्रभु गुरु को मिल के गुरु वकील के चरणों में लग के (ही मिलता है)। जिस मनुष्यों को गुरु के वचन हृदय में प्यारे लगते हैं, गुरु उनके आगे (परमात्मा का नाम अमृत) ला के परोस देता है।2।

मनमुख हीअरा अति कठोरु है तिन अंतरि कार करीठा ॥ बिसीअर कउ बहु दूधु पीआईऐ बिखु निकसै फोलि फुलीठा ॥३॥

पद्अर्थ: हीअरा = हृदय। कठोर = कड़ा, निर्दयी। कार करीठा = कालख ही कालख। बिसीअर = साँप। कउ = को। फोलि = फरोल के।3।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का हृदय बहुत कठोर होता है। उनके अंदर (विकारों की) कालिख ही कालिख होती है। साँप को कितना ही दूध पिलाए जाएं पर उसके अंदर से जहर ही निकलता है (यही हालत मनमुख की होती है)।3।

हरि प्रभ आनि मिलावहु गुरु साधू घसि गरुड़ु सबदु मुखि लीठा ॥ जन नानक गुर के लाले गोले लगि संगति करूआ मीठा ॥४॥९॥२३॥६१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! आनि = ला के। घसि = घिसा के। गरुड़ = साँप का जहर दूर करने वाली दवाई। मुखि = मुंह में। लीठा = चूस ली। लाले गोले = गुलाम सेवक। करूआ = कड़वा।4।

अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! (मेहर कर) मुझे साधु गुरु ला के मिला। मैं गुरु का शब्द अपने मुंह में बसाऊँ, और मेरे अंदर से विकारों का जहर दूर हो। जैसे साँप का जहर दूर करने वाली बूटी घिसा के मुंह में चूसने से साँप का जहर उतरता है। हे दास नानक! (कह: हम) गुरु के गुलाम हैं, सेवक हैं, गुरु की संगति में बैठने से कड़वा (स्वाभाव) मीठा हो जाता है4।9।23।61।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हरि हरि अरथि सरीरु हम बेचिआ पूरे गुर कै आगे ॥ सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ मुखि मसतकि भाग सभागे ॥१॥

पद्अर्थ: हरि अरथि = हरि (के मिलाप) की खातिर। हम = मैं। दातै = दाते ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) पक्का कर दिया। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। सभाग = भाग्य वाले।1।

अर्थ: (हे भाई!) हरि के मिलाप की खातिर मैंने अपना शरीर पूरे गुरु के आगे बेच दिया है। दाते सत्गुरू ने (मेरे दिल में) हरि का नाम पक्का कर दिया है। मेरे मुंह पर मेरे माथे पर भाग्य जाग पड़े हैं। मैं भाग्यशाली हो गया हूँ।1।

राम गुरमति हरि लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लिव = लगन। लागै = लगती है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति पर चलने से ही राम-हरि के (चरणों में) लगन लगती है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh