श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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घटि घटि रमईआ रमत राम राइ गुर सबदि गुरू लिव लागे ॥ हउ मनु तनु देवउ काटि गुरू कउ मेरा भ्रमु भउ गुर बचनी भागे ॥२॥

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सोहना राम। रमत = व्यापक। सबदि = शब्द के द्वारा। हउ = मैं। देवउ = मैं देता हूँ। कउ = को। काटि = काट के।2।

अर्थ: (हलांकि वह) सुंदर राम हरेक शरीर में व्यापक है (फिर भी) गुरु के शब्द के द्वारा (ही उससे) लगन लगती है। मैं गुरु को अपना मन अपना तन देने को तैयार हूँ (अपना सिर) काट के देने को तैयार हूँ। गुरु के वचन से ही मेरी भटकना, मेरा डर दूर हो सकता है।2।

अंधिआरै दीपक आनि जलाए गुर गिआनि गुरू लिव लागे ॥ अगिआनु अंधेरा बिनसि बिनासिओ घरि वसतु लही मन जागे ॥३॥

पद्अर्थ: अंधिआरै = (माया के मोह के) अंधकार में। दीपक = (ज्ञान का) दिया। आनि = ला के। गिआनि = ज्ञान के द्वारा, प्रभु के साथ गहरी सांझ के द्वारा। घरि = घर में। लही = ढूँढ ली।3।

अर्थ: (माया के मोह के) अंधेरे में (फंसे हुए जीव के अंदर गुरु ही ज्ञान का) दीपक ला के प्रज्जवलित करता है। गुरु के दिए ज्ञान के द्वारा ही (प्रभु चरणों में लगन लगती है)। अज्ञानता का अंधकार पूरे तौर पर नाश हो जाता है, हृदय घर में प्रभु का नाम पदार्थ मिल जाता है। मन (मोह की नींद में से) जाग पड़ता है।3।

साकत बधिक माइआधारी तिन जम जोहनि लागे ॥ उन सतिगुर आगै सीसु न बेचिआ ओइ आवहि जाहि अभागे ॥४॥

पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। बधिक = शिकारी, हैंसियारे, निर्दयी। जम = मौत, आत्मिक मौत। जोहनि लागे = ताक में रखती है। उन = उन (साकतों) ने।4।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

अर्थ: माया को अपनी जिंदगी का आसरा बनाने वाले मनुष्य ईश्वर से टूट जाते हैं, निर्दयी हो जाते हैं। आत्मिक मौत उनको अपने घेरे में रखती है। वे मनुष्य सतिगुरु के आगे अपना सिर नहीं बेचते (वे अपने अंदर से अहंकार नहीं गवाते) वे बद्किस्मत जनम मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।4।

हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे ॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे ॥५॥१०॥२४॥६२॥

पद्अर्थ: हमरा बिनउ = मेरी बिनती। प्रभ = हे प्रभु! मागे = मांगता हूं। लज = लज्जा। पाति = पति, इज्जत।5।

अर्थ: हे प्रभु! हे ठाकुर! मेरी बिनती सुनो, मैं तेरी शरण आया हूँ। मैं तुझसे तेरा नाम माँगता हूँ। दास नानक की लज्जा इज्जत (रखने वाला) गुरु ही है। मैंने सत्गुरू के आगे अपना सिर बेच दिया है (मैंने नाम के बदले में अपना आप गुरु के हवाले कर दिया है)।5।10।24।62।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हम अहंकारी अहंकार अगिआन मति गुरि मिलिऐ आपु गवाइआ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ धनु धंनु गुरू हरि राइआ ॥१॥

पद्अर्थ: हम = हम जीव। गुरि मिलिऐ = जब गुरु मिल जाए। आपु = स्वै भाव। सुखु = आत्मिक आनंद। धनु धंनु = सलाहने योग्य।1।

अर्थ: (गुरु के बगैर) हम जीव अहंकारी हुए रहते हैं। हमारी मति अहंकार व अज्ञानता वाली बनी रहती है। जब गुरु मिल जाए, तो स्वैभाव दूर हो जाता है। (गुरु की मेहर से जब) अहंकार का रोग दूर होता है, तो आत्मिक आनंद मिलता है। ये सारी मेहर गुरु की ही है, गुरु की ही है।1।

राम गुर कै बचनि हरि पाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बचनि = वचन के द्वारा, उपदेश की इनायत से।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से ही राम से हरि से मिलाप होता है।1। रहाउ।

मेरै हीअरै प्रीति राम राइ की गुरि मारगु पंथु बताइआ ॥ मेरा जीउ पिंडु सभु सतिगुर आगै जिनि विछुड़िआ हरि गलि लाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: हीअरै = हृदय में। राइ = प्रकाश रूप। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। जिउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस ने, क्योंकि उसने। गलि = गले से।2।

अर्थ: (गुरु की कृपा से ही) मेरे हृदय में परमात्मा (के चरणों) की प्रीति पैदा हुई है। गुरु ने (ही परमात्मा के मिलाप का) रास्ता बताया है। मैंने अपनी जीवात्मा, अपना शरीर सब कुछ गुरु के आगे रख दिया है क्योंकि गुरु ने ही मुझ बिछुड़े हुए को परमात्मा के गले से लगा दिया है।2।

मेरै अंतरि प्रीति लगी देखन कउ गुरि हिरदे नालि दिखाइआ ॥ सहज अनंदु भइआ मनि मोरै गुर आगै आपु वेचाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सहज अनंदु = आत्मिक अडोलता का सुख। मनि मोरै = मेरे मन में।3।

अर्थ: (गुरु की कृपा से ही) मेरे अंदर परमात्मा का दर्शन करने की चाहत पैदा हुई, गुरु ने (ही) मुझे मेरे दिल में बसता मेरे साथ बसता परमात्मा दिखा दिया। मेरे मन में (अब) आत्मिक अडोलता का सुख पैदा हो गया है, (उसके बदले में) मैंने अपना आप गुरु के आगे बेच दिया है।3।

हम अपराध पाप बहु कीने करि दुसटी चोर चुराइआ ॥ अब नानक सरणागति आए हरि राखहु लाज हरि भाइआ ॥४॥११॥२५॥६३॥

पद्अर्थ: कीने = किए, करते रहे। दुसटी = दुष्टता, विकार। चोर चुराइआ = चोरों की तरह चोरी की। हरि भाइआ = अगर, हे हरि! तुझे ठीक लगे, यदि तेरी मेहर हो।4।

अर्थ: मैं बहत सारे पाप अपराध करता रहा, कई बुरे कर्म करता रहा और छुपाता रहा जैसे चोर अपनी चोरी छुपाते हैं। पर अब, हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ, अगर तेरी मेहर हो तो मेरी इज्जत रख (मुझे विकारों से बचाए रख)।4।11।25।63।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ गुरमति बाजै सबदु अनाहदु गुरमति मनूआ गावै ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ धनु धंनु गुरू लिव लावै ॥१॥

पद्अर्थ: बाजै = बजता है, पूरा प्रभाव डाल लेता है (जैसे ढोल बाजों में कोई छोटी-मोटी आवाज सुनी नहीं जा सकती। अनाहदु = (अनाहत् = बिना बजाए) एक रस। धनु धंनु = शाबाश योग्य। लिव = लगन।1।

अर्थ: गुरु की मति पर चलने से ही गुरु का शब्द मनुष्य के हृदय में एक-रस प्रभाव डाले रखता है (और अन्य कोई माया का रस अपना जोर नहीं डाल सकता), गुरु के उपदेश की इनायत से ही मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। कोई बड़े भाग्यों वाला मनुष्य गुरु का दर्शन प्राप्त करता है। सदके गुरु से, सदके गुरु पे। गुरु (मनुष्य के अंदर परमात्मा के मिलाप की) लगन पैदा करता है।1।

गुरमुखि हरि लिव लावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रह के ही मनुष्य (अपने अंदर) हरि के मिलाप की लगन पैदा कर सकता है।1। रहाउ।

हमरा ठाकुरु सतिगुरु पूरा मनु गुर की कार कमावै ॥ हम मलि मलि धोवह पाव गुरू के जो हरि हरि कथा सुनावै ॥२॥

पद्अर्थ: हमरा = हमारा, मेरा। मलि मलि = मल मल के, बड़े प्रेम से। धोवह = हम धोते हैं, मैं धोता हूँ।2।

अर्थ: (हे भाई!) पूरा गुरु ही मेरा ठाकुर है, मेरा मन गुरु की बताई हुई कार ही करता है। मैं अपने गुरु के पैर मल मल के धोता हूँ। क्योंकि, गुरु मुझे परमात्मा के महिमा की बातें सुनाता है।2।

हिरदै गुरमति राम रसाइणु जिहवा हरि गुण गावै ॥ मन रसकि रसकि हरि रसि आघाने फिरि बहुरि न भूख लगावै ॥३॥

पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। जिहवा = जीभ। रसिक रसिक = मुड़ मुड़ रस ले के, बड़े आनंद से। रसि = रस में। आघाने = तृप्त हुए। भूख = तृष्णा, माया की भूख।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के) हृदय में गुरु के उपदेश की इनायत से सब रसों का घर प्रभु का नाम बस जाता है, (जिस की) जीभ परमात्मा के गुण गाती है, उनके मन सदैव आनंद से परमात्मा के नाम रस में तृप्त रहते हैं। उन्हें फिर कभी माया की भूख नहीं सताती।3।

कोई करै उपाव अनेक बहुतेरे बिनु किरपा नामु न पावै ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी मति गुरमति नामु द्रिड़ावै ॥४॥१२॥२६॥६४॥

पद्अर्थ: कउ = को। द्रिढ़ावै = पक्का कर देता है।4।

अर्थ: पर कोई भी मनुष्य परमात्मा का नाम (परमात्मा की) कृपा के बिना हासिल नहीं कर सकता, बेशक कोई बहुत सारे अनेक उपाय करता फिरे। हे नानक! जिस दास पे परमात्मा मेहर करता है, गुरु के उपदेश की इनायत से उसकी मति में परमात्मा अपना नाम पक्का कर देता है।4।12।26।64।

नोट:
गउड़ी पूरबी महला ४-------------12 शब्द
गउड़ी गुआरेरी महला ४-----------06 शब्द
गउड़ी बैरागणि महला ४----------08 शब्द
गउड़ी महला ३--------------------18 शब्द
गउड़ी महला १--------------------20 शब्द
कुल जोड़: ------------------------64

रागु गउड़ी माझ महला ४ ॥ गुरमुखि जिंदू जपि नामु करमा ॥ मति माता मति जीउ नामु मुखि रामा ॥ संतोखु पिता करि गुरु पुरखु अजनमा ॥ वडभागी मिलु रामा ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। जिंदू = हे जिंदे! हे जीवात्मा! करंमा = भाग्य (जाग पड़े हैं)। मति = (गुरु की दी हुई) अक्ल। जीउ = जीवन (का आसरा)। मुखि = मुंह से। अजनमा = जन्म रहित।1।

अर्थ: हे (मेरी) जीवात्मा! गुरु की शरण पड़ के (परमात्मा का) नाम जपो। (तेरे) भाग्य (जाग गए हैं)। (हे जीवात्मा! गुरु की दी हुई) मति को (अपनी) माँ बना, और मति को ही जीवन (का आसरा बना)। राम का नाम मुंह से जप। (हे जीवात्मा!) संतोख को पिता बना। अजोनी अकाल पुरख के रूप गुरु की शरण पड़। हे जिंदे! मिल राम को, तेरे भाग्य अच्छे हो गए हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh