श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 176 हसती घोड़े देखि विगासा ॥ लसकर जोड़े नेब खवासा ॥ गलि जेवड़ी हउमै के फासा ॥२॥ पद्अर्थ: हसती = हाथी। देखि = देख के। विगासा = खुशी। जोड़े = एकत्र किए। नेब = नायब, सलाहकार। खवासा = शाही नौकर। गलि = गले में। फासा = फाहे।2। अर्थ: मनुष्य हाथी, घोड़े देख के खुशी (महिसूस करता है), फौजें एकत्र करता है, मंत्री और शाही नौकर रखता है, पर उसके गले में अहंकार की रस्सी, अहम् के फाहे ही पड़ते हैं।2। राजु कमावै दह दिस सारी ॥ माणै रंग भोग बहु नारी ॥ जिउ नरपति सुपनै भेखारी ॥३॥ पद्अर्थ: दह दिस = दसों दिशाओं में। सारी = सारी (सृष्टि) का। नरपति = राजा। भेखारी = भिखारी।3। अर्थ: (राजा बन के मनुष्य) दसों दिशाओं में धरती का राज कमाता है, मौजें करता है, स्त्रीयां भोगता है (पर ये सब कुछ ऐसे ही है) जैसे कोई राजा भिखारी बन जाता है (और दुखी होता है, आत्मिक सुख की जगह राज में व भोगों में भी दुख ही दुख है)।3। एकु कुसलु मो कउ सतिगुरू बताइआ ॥ हरि जो किछु करे सु हरि किआ भगता भाइआ ॥ जन नानक हउमै मारि समाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। भाइआ = अच्छा लगता है। मारि = मार के।4। अर्थ: सत्गुरू ने मुझे असल आत्मिक सुख (का मूल्य) बताया है (वह है परमात्मा की रजा में राजी रहना)। जो कुछ परमात्मा करता है उसके भक्तों को वह मीठा लगता है (और वे इस तरह आत्मिक सुख प्राप्त करते हैं)। हे दास नानक! अहंकार मार के (भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा में ही) लीन रहता है।4। इनि बिधि कुसल होत मेरे भाई ॥ इउ पाईऐ हरि राम सहाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥ पद्अर्थ: इनि बिधि = इस तरीके से। इउ = इस तरह। रहाउ दूजा। नोट: शब्द ‘रहाउ दूजा’ के आखिर और इससे पहले के शब्द का अंक १ दिया गया है। पर 70 शबदों को इसके साथ मिला के जोड़ 71 नहीं दिया गया। अर्थ: हे मेरे वीर! इस तरीके से (भाव, रजा में रहने से) आत्मिक आनंद पैदा होता है, इस तरह (ही) असल मित्र हरि-परमात्मा मिलता है।1। रहाउ दूजा।1। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ किउ भ्रमीऐ भ्रमु किस का होई ॥ जा जलि थलि महीअलि रविआ सोई ॥ गुरमुखि उबरे मनमुख पति खोई ॥१॥ पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना। भ्रमीऐ = भटकते फिरें। किउ भ्रमीऐ = भटकना समाप्त हो जाती है। जा = जब। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की सतह पर, आकाश में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। उबरे = (तृष्णा से) बचाता है। मनमुख = अपने मन की ओर चलने वाला। पति = इज्जत।1। अर्थ: जब (ये यकीन बन जाए कि) वह प्रभु ही जल में धरती में आकाश में व्यापक है तब मन भटकने से हट जाता है क्योंकि किसी मायावी पदार्थ के लिए भटकना रहती ही नहीं। (पर तृष्णा के प्रभाव से) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही) बचते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (तृष्णा में फंस के अपनी) इज्जत गवा लेते हैं (क्योंकि वे आत्मिक जीवन के स्तर से नीचे हो जाते हैं)।1। जिसु राखै आपि रामु दइआरा ॥ तिसु नही दूजा को पहुचनहारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राखै = तृष्णा से बचाता है। दइआरा = दयाल, दया का घर। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने वाला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को दयाल प्रभु खुद (तृष्णा से) बचाता है (उसका जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ। सभ महि वरतै एकु अनंता ॥ ता तूं सुखि सोउ होइ अचिंता ॥ ओहु सभु किछु जाणै जो वरतंता ॥२॥ पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। ता = तब। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोउ = सो जाओ, लीन रहो। अचिंता = चिन्ता रहित हो के। ओहु = वह परमात्मा। वरतंता = पसरा हुआ है।2। अर्थ: (हे भाई!) तू तभी चिन्ता-रहित हो के आत्मिक आनंद में लीन रह सकता है (जब तुझे ये निश्चय हो जाए कि) एक बेअंत प्रभु ही सब में व्यापक है, और, जो कुछ जगत में घटित हो रहा है वह परमात्मा सब कुछ जानता है।2। मनमुख मुए जिन दूजी पिआसा ॥ बहु जोनी भवहि धुरि किरति लिखिआसा ॥ जैसा बीजहि तैसा खासा ॥३॥ पद्अर्थ: मुए = आत्मिक मौत मर गए। दूजी पिआसा = प्रभु के बिना और तमन्ना। भवहि = घूमते रहते हैं। धुरि = धुर से। किरति = किए कर्मों के संस्कार के अनुसार।3। अर्थ: जिस मनुष्यों को माया की तृष्णा चिपकी रहती है, वे अपने मन के मुरीद मनुष्य आत्मिक मौत से मरे रहते हैं क्योंकि वे जैसा (कर्म बीज) बीजते हैं वैसा ही (फल) खाते हैं। उनके किए कर्मों के अनुसार धुर से ही उनके माथे पर ऐसे लेख लिखे होते हैं कि वे अनेक योनियों में भटकते फिरते हैं।3। देखि दरसु मनि भइआ विगासा ॥ सभु नदरी आइआ ब्रहमु परगासा ॥ जन नानक की हरि पूरन आसा ॥४॥२॥७१॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। मनि = मन में। विगासा = खिड़ाव। नदरी आइआ = दिखा।4। अर्थ: (हर जगह) परमात्मा का दर्शन करके जिस मनुष्य के मन में खिड़ाव (प्रसन्नता) पैदा होता है, उसे हर जगह परमात्मा का ही प्रकाश नजर आता है, हे नानक! उस दास की परमात्मा (हरेक) आशा पूरी करता है।4।2।71। नोट: गुरु अर्जुन देव जी का गउड़ी राग में ये दूसरा शब्द है। पहले सारे शबदों का जोड़ 70 है। यहाँ बड़ा जोड़ 72 चाहिए था। गुरु अरजन साहिब के शब्द नंबर 105 तक यही एक की कमी चली जाती है। शब्द नं: 106 से बड़ा अंक दर्ज करना ही बंद कर दिया गया है। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कई जनम भए कीट पतंगा ॥ कई जनम गज मीन कुरंगा ॥ कई जनम पंखी सरप होइओ ॥ कई जनम हैवर ब्रिख जोइओ ॥१॥ पद्अर्थ: कीट = कीड़े। गज = हाथी। मीन = मछली। कुरंग = हिरन। पंखी = पक्षी। सरप = सर्प, साँप। हैवर = (हय+वर) बढ़िया घोड़े। ब्रिख = (वृष) बैल। जाइओ = जोता गया।1। अर्थ: (हे भाई!) तू कई जन्मों में कीड़े-पतंगे बना रहा, कई जन्मों में हाथी मछ हिरन बनता रहा। कई जन्मों में तू पंछी और साँप बना, कई जन्मों में तू घोड़े बैल बनके हाँका गया।1। मिलु जगदीस मिलन की बरीआ ॥ चिरंकाल इह देह संजरीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जगदीस = जगत के मालिक प्रभु को। बरीआ = बारी, समय। देह = शरीर। संजरीआ = मिली है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) चिरंकाल के बाद तुझे ये (मानुस) शरीर मिला है, जगत के मालिक प्रभु को (अब) मिल, (यही मानुष जनम प्रभु को) मिलने का समय है।1। रहाउ। कई जनम सैल गिरि करिआ ॥ कई जनम गरभ हिरि खरिआ ॥ कई जनम साख करि उपाइआ ॥ लख चउरासीह जोनि भ्रमाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: सैल = पत्थर। गिरि = पहाड़। हिरि खरिआ = छन गए, गिर गए। साख = शाखा, बनस्पति। करि = बना के।2। अर्थ: (हे भाई!) कई जन्मों में तुझे पत्थर की चट्टान बनाया गया, कई जन्मों में (तेरी माँ का) गर्भ ही छनता रहा। कई जन्मों में तुझे (विभिन्न प्रकार के) वृक्ष बना के पैदा किया गया, और इस तरह (चौरासी लाख) जूनियों में तुझे घुमाया गया।2। साधसंगि भइओ जनमु परापति ॥ करि सेवा भजु हरि हरि गुरमति ॥ तिआगि मानु झूठु अभिमानु ॥ जीवत मरहि दरगह परवानु ॥३॥ पद्अर्थ: संगि = संगति में (आ)। भजु = भजन कर। मरहि = अगर तू (स्वैभाव से) मरे।3। अर्थ: (हे भाई! अब तुझे) मानव जन्म मिला है, साधु-संगत में आ, गुरु की मति ले के (लोगों की) सेवा कर और परमात्मा का भजन कर। अभिमान, झूठ व अहंकार त्याग दे। तू (परमात्मा की) दरगाह में (तब ही) स्वीकार होगा अगर तू जीवन जीते हुए ही स्वैभाव को मार लेगा।3। जो किछु होआ सु तुझ ते होगु ॥ अवरु न दूजा करणै जोगु ॥ ता मिलीऐ जा लैहि मिलाइ ॥ कहु नानक हरि हरि गुण गाइ ॥४॥३॥७२॥ पद्अर्थ: तुझ ते = तुझसे (हे प्रभु!)। होगु = होगा। करणै जोगु = करने की स्मर्था वाला।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर और) कह: (हे प्रभु तेरा स्मरण करने की जीव की क्या स्मर्था हो सकती है?) जो कुछ (जगत में) होता है वह तेरे (हुक्म) से ही होता है। (तेरे बिना) अन्य कोई भी कुछ करने की स्मर्था वाला नहीं है। हे प्रभु! तुझे तभी मिला जा सकता है अगर तू खुद जीव को (अपने चरणों में) मिला ले, तभी जीव हरि गुण गा सकता है।4।3।72 नोट: यहाँ गिनती का असल नंबर 73 चाहिए। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ करम भूमि महि बोअहु नामु ॥ पूरन होइ तुमारा कामु ॥ फल पावहि मिटै जम त्रास ॥ नित गावहि हरि हरि गुण जास ॥१॥ पद्अर्थ: भूमि = धरती। करम भूमि = वह धरती जिस में कर्म बीजे जा सकते हैं, मानव शरीर। बोअहु = बीजो। कामु = काम, जीवन उद्देश्य। त्रास = डर। जम त्रास = मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा। जास = यश।1। अर्थ: (हे भाई!) कर्म बीजने वाली धरती में (मानव शरीर में) परमात्मा का नाम बीज इस तरह तेरा (मानव जीवन का) उद्देश्य सिरे चढ़ जाएगा। (हे भाई!) अगर तू नित्य परमात्मा के गुण गाए, तो इसका इसका फल ये होगा कि तेरी आत्मिक मौत का खतरा मिट जाएगा।1। हरि हरि नामु अंतरि उरि धारि ॥ सीघर कारजु लेहु सवारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंतरि = अंदर से। उरि = दिल से। धारि = रख के। सीघर = शीघ्र, जल्दी। कारजु = जीवन उद्देश्य।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) अपने अंदर अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रख और (इस तरह) अपना मानव जीवन का उद्देश्य संभाल ले।1। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |