श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 177 अपने प्रभ सिउ होहु सावधानु ॥ ता तूं दरगह पावहि मानु ॥ उकति सिआणप सगली तिआगु ॥ संत जना की चरणी लागु ॥२॥ पद्अर्थ: सिउ = से। सावधानु = (स = अवधान) सुचेत। स = सहित, समेत। अवधान = ध्यान (attention)। मानु = आदर। उकति = बयान करने की शक्ति, दलील। सगली = सारी।2। अर्थ: (हे भाई!) अपनी दलीलें अपनी समझदारिआं सारी छोड़ दे, गुरमुखों की शरण पड़ (संत जनों की इनायत के सदका) अपने परमात्मा के साथ (परमात्मा की याद में) सुचेत रह (जब तू ये उद्यम करेगा) तब तू परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त करेगा।2। सरब जीअ हहि जा कै हाथि ॥ कदे न विछुड़ै सभ कै साथि ॥ उपाव छोडि गहु तिस की ओट ॥ निमख माहि होवै तेरी छोटि ॥३॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। हाथि = हाथ में। जा कै हाथि = जिस के हाथ में। साथि = साथ। उपाव = ढंग, यत्न। गहु = पकड़ना। ओट = आसरा। निमख = आँख झपकने जितना समय। छोटि = खलासी।3। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई!) सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा के वश में (हाथ में) है, जो प्रभु कभी भी (जीवों से) अलग नहीं होता, (सदा) सब जीवों के साथ रहता है, अपने प्रयत्नों-कोशिशों को छोड़ के उस परमात्मा का आसरा-परना पकड़। आँख की एक झपक में (माया के मोह के बंधनों से) तेरी मुक्ति हो जाएगी।3। सदा निकटि करि तिस नो जाणु ॥ प्रभ की आगिआ सति करि मानु ॥ गुर कै बचनि मिटावहु आपु ॥ हरि हरि नामु नानक जपि जापु ॥४॥४॥७३॥ पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। तिस नो = उस को। जाणु = समझ। सति = (सत्) अटल, चत्य। बचनि = वचन के द्वारा। आपु = स्वैभाव। जपि जापु = जाप जप।4। नोट: ‘तिस नो’ में ‘तिसु’ का ‘ु’, संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: हे नानक! उस परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ। ये दृढ़ करके मान कि परमात्मा की रजा अटल है। गुरु के वचन में (जुड़ के अपने अंदर से) स्वैभाव दूर कर, सदा परमात्मा का नाम जप, सदा प्रभु (के गुणों) का जाप जप।4।4।73। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर का बचनु सदा अबिनासी ॥ गुर कै बचनि कटी जम फासी ॥ गुर का बचनु जीअ कै संगि ॥ गुर कै बचनि रचै राम कै रंगि ॥१॥ पद्अर्थ: अबिनासी = ना नाश होने वाला, सदा आत्मिक जीवन के काम आने वाला। बचनि = वचन के द्वारा। जम फासी = मौत की फांसी, आत्मिक मौत लाने वाली जमों की फांसी। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। रचै = रचता है, जुड़ा रहता है। रंगि = रंग में, प्रेम में।1। अर्थ: गुरु का वचन (उपदेश) हमेशा आत्मिक जीवन के काम आने वाला है सदा अविनाशी है। गुरु के वचन से आत्मिक मौत लाने वाला मोह रूपी फंदा कट जाता है। गुरु का वचन हमेशा जीव के संग है। गुरु के उपदेश से आदमी परमात्मा के प्रेम-रंग में जुड़ा रहता है।1। जो गुरि दीआ सु मन कै कामि ॥ संत का कीआ सति करि मानि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कामि = काम में। मन कै कामि = मन के काम में। संत = गुरु। सति = अटल, सदा काम आने वाला। मानि = मंन, जाण।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो (उपदेश) गुरु ने दिया है, वह (हरेक मनुष्य के) मन के काम आता है। (इस वास्ते हे भाई!) गुरु के किए हुए इस उपकार को सदा साथ निभने वाला समझ।1। रहाउ। गुर का बचनु अटल अछेद ॥ गुर कै बचनि कटे भ्रम भेद ॥ गुर का बचनु कतहु न जाइ ॥ गुर कै बचनि हरि के गुण गाइ ॥२॥ पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाला। अछेद = कभी ना नाश होने वाला। भ्रम = भटकना। भेद = भेदभाव। कतहु = कहीं भी। जाइ = जाता है। गाइ = गाता है।2। अर्थ: गुरु का उपदेश सदा मनुष्य के आत्मिक जीवन के काम आने वाला है, ये उपदेश कभी कम होने वाला (पुराना होने वाला) नहीं। गुरु के उपदेश के द्वारा मनुष्य की भटकना मनुष्य के भेदभाव कट जाते हैं। गुरु का उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता। गुरु के उपदेश (की इनायत) से मनुष्य परमात्मा के गुण गाता (रहता) है।2। गुर का बचनु जीअ कै साथ ॥ गुर का बचनु अनाथ को नाथ ॥ गुर कै बचनि नरकि न पवै ॥ गुर कै बचनि रसना अम्रितु रवै ॥३॥ पद्अर्थ: साथि = साथ। नाथु = नाथ, पति, आसरा। नरकि = नर्क में। रसना = जीभ (से)। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रवै = माणता है, भोगता है।3। अर्थ: गुरु का उपदेश जीवात्मा के साथ निभता है। गुरु का उपदेश निआसरी जीवात्माओं का सहारा बनता है। गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य नर्क में नहीं जाता, और, गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है।3। गुर का बचनु परगटु संसारि ॥ गुर कै बचनि न आवै हारि ॥ जिसु जन होए आपि क्रिपाल ॥ नानक सतिगुर सदा दइआल ॥४॥५॥७४॥ पद्अर्थ: संसारि = संसार में। हारि = हार के, (जीवन बाजी) हार के।4। अर्थ: गुरु का उपदेश मनुष्य को संसार में प्रसिद्ध कर देता है। गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य जीवन-बाजी हार के नहीं आता। हे नानक! जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद मेहरबान होता है उस पर सतिगुरु सदैव दया-दृष्टि करता रहता है।4।5।74। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिनि कीता माटी ते रतनु ॥ गरभ महि राखिआ जिनि करि जतनु ॥ जिनि दीनी सोभा वडिआई ॥ तिसु प्रभ कउ आठ पहर धिआई ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (कर्तार) ने। रतनु = अमुल्य मानव शरीर। गरभ = गर्भ, माँ का पेट। करि = कर के। धिआई = मैं ध्याता हूँ।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभु) ने मिट्टी से (मेरा) अमुल्य मानव शरीर बना दिया है। जिसने प्रयत्न करके माँ के पेट में मेरी रक्षा की है, जिसने मुझे शोभा दी है, आदर बख्शी है, उस प्रभु को मैं (उसकी मेहर से) आठों पहर स्मरण करता हूँ।1। रमईआ रेनु साध जन पावउ ॥ गुर मिलि अपुना खसमु धिआवउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रमईआ = हे राम!। रेनु = चरण धूल। पावउं = मैं पा लूँ। मिलि = मिल के।1। रहाउ। अर्थ: हे सुंदर राम! (कृपा कर) मैं गुरमुखों के चरणों की धूल प्राप्त कर लूँ, और गुरु को मिल के (तुझे) अपने पति को स्मरण करता रहूँ।1। रहाउ। जिनि कीता मूड़ ते बकता ॥ जिनि कीता बेसुरत ते सुरता ॥ जिसु परसादि नवै निधि पाई ॥ सो प्रभु मन ते बिसरत नाही ॥२॥ पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। ते = से। बकता = वक्ता, अच्छा बोलने वाला। बेसुरत = बेसमझ। सुरता = समझ वाला। परसादि = कृपा से। नवै निधि = नौ ही खजाने। पाई = में पाता हूँ।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस (कर्तार) ने (मुझ) मूर्ख-अंजान को सुंदर बोल बोलने वाला बना दिया है, जिसने (मुझे) बेसमझ से समझदार बना दिया है, जिस (प्रभु) की कृपा से मैं (धरती के सारे) नौ ही खजाने हासिल कर रहा हूँ, वह प्रभु मेरे मन से भूलता नहीं है।2। जिनि दीआ निथावे कउ थानु ॥ जिनि दीआ निमाने कउ मानु ॥ जिनि कीनी सभ पूरन आसा ॥ सिमरउ दिनु रैनि सास गिरासा ॥३॥ पद्अर्थ: कीनी = की। सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। रैनि = रात। गिरासा = ग्रास।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभु) ने (मुझ) निआसरे को आसरा दिया है, जिसने (मुझ) निमाणे को मान-आदर दिया है, जिस (कर्तार) ने मेरी हरेक आस (अब तक) पूरी की है, उसे मैं दिन रात हरेक श्वास-ग्रास स्मरण करता रहता हूँ।3। जिसु प्रसादि माइआ सिलक काटी ॥ गुर प्रसादि अम्रितु बिखु खाटी ॥ कहु नानक इस ते किछु नाही ॥ राखनहारे कउ सालाही ॥४॥६॥७५॥ पद्अर्थ: सिलक = फांसी। बिखु = जहर। खाटी = (कटु) कड़वी। इस ते = इस जीव से। सालाही = मैं सलाहता हूँ।4। नोट: ‘इस ते’ में से शब्द ‘इसु’ से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘ु’ मात्रा नहीं लगी है। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस (प्रभु) की कृपा से (मेरे गले से) माया (के मोह) की फांसी कट गयी है, (जिसके कारण) गुरु की कृपा से (मुझे) अमृत (जैसी मीठी लगने वाली माया अब) कड़वी जहर प्रतीत हो रही है, मैं उस प्रतिपालक प्रभु की महिमा करता हूँ (नहीं तो) इस जीव के वश कुछ नहीं कि (अपने प्रयासों से प्रभु की महिमा कर सके)।4।6।75। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तिस की सरणि नाही भउ सोगु ॥ उस ते बाहरि कछू न होगु ॥ तजी सिआणप बल बुधि बिकार ॥ दास अपने की राखनहार ॥१॥ पद्अर्थ: तिस की = उस (राम) की। सोगु = गम, चिन्ता। ते = से। बाहरि = (बस के) बाहर, आकी। होगु = होगा। तजी = त्याग दी, मैंने छोड़ दी। बल = आसरा, तान। बुधि = बुद्धि। बिकार = बुराई।1। नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ में संबंधक ‘की’ के कारण ‘ु’ मात्रा नहीं लगी है। अर्थ: (हे भाई!) उस राम की शरण पड़ने से कोई भय छू नहीं सकता। कोई चिन्ता नहीं व्याप सकती। (क्योंकि कोई डर कोई चिन्ता) कुछ भी उस राम से आकी नहीं हो सकते। (इस वास्ते हे भाई!) मैंने अपनी अक्ल का आसरा रखने की बुराई त्याग दी है (और उस राम का दास बन गया हूँ, वह राम) अपने दास की इज्जत रखने के समर्थ है।1। जपि मन मेरे राम राम रंगि ॥ घरि बाहरि तेरै सद संगि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! रंगि = प्रेम से। संगि = साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! प्रेम से राम का नाम जप। वह नाम तेरे घर में (हृदय में) और बाहर हर जगह सदा तेरे साथ रहता है।1। रहाउ। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |