श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 184 जन ऊपरि प्रभ भए दइआल ॥ जन की टेक एक गोपाल ॥ एका लिव एको मनि भाउ ॥ सरब निधान जन कै हरि नाउ ॥३॥ पद्अर्थ: टेक = आसरा। गोपाल = धरती का रक्षक प्रभु। लिव = लगन। मनि = मन में। भाउ = प्यार। जन कै = सेवक के वास्ते, सेवक के हृदय में।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण की इनायत से) प्रभु जी सेवक पर दयावान हो जाते हैं, एक गोपाल प्रभु ही सेवक की जिंदगी का आसरा बन जाता है। (गुरु की शरण आए मनुष्य को) एक परमात्मा की ही लगन लग जाती है, उसके मन में एक परमात्मा का ही प्यार (टिक जाता है)। सेवक के दिल में परमात्मा का नाम ही (दुनिया के) सारे खजाने बन जाता है।3। पारब्रहम सिउ लागी प्रीति ॥ निरमल करणी साची रीति ॥ गुरि पूरै मेटिआ अंधिआरा ॥ नानक का प्रभु अपर अपारा ॥४॥२४॥९३॥ पद्अर्थ: सिउ = से, साथ। करणी = आचरण। रीति = जीवन मर्यादा। साची = अटल, अडोल, कभी ना डोलने वाली। गुरि = गुरु ने। अपर = (नास्ति परो यस्मात्) जिससे परे और कोई नहीं। अपार = जिसका उस पार नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत।4। अर्थ: (परमात्मा की मेहर से) पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया, उसकी प्रीति परमात्मा के साथ पक्की बन जाती है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, उसकी जीवन मर्यादा (विकारों के आक्रमण से) अडोल हो जाती है। (हे भाई! ये सारी मेहर परमात्मा की ही है) नानक का प्रभु परे से परे है और बेअंत है।4।24।93। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिसु मनि वसै तरै जनु सोइ ॥ जा कै करमि परापति होइ ॥ दूखु रोगु कछु भउ न बिआपै ॥ अम्रित नामु रिदै हरि जापै ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। जा कै करमि = जिस (प्रभु) की बख्शिश से। बिआपै = ’जोर डाल लेता है। रिदै = हृदय में।1। अर्थ: जिस (परमात्मा) की कृपा से (उसके नाम की) प्राप्ति होती है, वह परमात्मा जिस मनुष्य के मन में बस जाता है वह (वह दुखों रोगों विकारों के समुंदर में से) पार लांघ जाता है। (संसार का) कोई दुख, कोई रागे, कोई डर उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता (क्योंकि) वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम अपने दिल में जपता रहता है।1। पारब्रहमु परमेसुरु धिआईऐ ॥ गुर पूरे ते इह मति पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से। मति = अक्ल, सूझ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) अकाल पुरख परमेश्वर का स्मरण करना चाहिए। (स्मरण की) ये सूझ गुरु के पास से मिलती है।1। रहाउ। करण करावनहार दइआल ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ अगम अगोचर सदा बेअंता ॥ सिमरि मना पूरे गुर मंता ॥२॥ पद्अर्थ: सगले = सारे। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = इंद्रियों की पहुँच से परे। मंता = उपदेश।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे (मेरे) मन! पूरे गुरु के उपदेश पर चल के उस (परमात्मा) को स्मरण कर, जो सब कुछ करने की स्मर्था रखता है, जो जीवों से सब कुछ करवाने की ताकत रखता है। जो दया का घर है, जो सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, जिसके गुणों का कभी अंत नहीं पाया जा सकता।2। जा की सेवा सरब निधानु ॥ प्रभ की पूजा पाईऐ मानु ॥ जा की टहल न बिरथी जाइ ॥ सदा सदा हरि के गुण गाइ ॥३॥ पद्अर्थ: निधान = खजाने। बिरथी = व्यर्थ, निश्फल।3। अर्थ: (हे भाई!) सदा ही सदा उस हरि के गुण गाता रह, जिसकी सेवा-भक्ति में ही (जगत के) सारे खजाने हैं। जिस हरि की पूजा करने से (हर जगह) आदर सत्कार मिलता है, और जिसकी की हुई सेवा निष्फल नहीं जाती।3। करि किरपा प्रभ अंतरजामी ॥ सुख निधान हरि अलख सुआमी ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई ॥४॥२५॥९४॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुख निधान = हे सुखों के खजाने प्रभु! अलख = हे अदृष्ट।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर प्रार्थना कर और कह:) हे अंतरजामी प्रभु! हे सुखों के खजाने प्रभु! हे अदृष्ट स्वामी! सारे जीव-जंतु तेरी शरण हैं (तेरे ही आसरे हैं, मैं भी तेरी शरण आया हूँ) मेहर कर, मुझे तेरा नाम मिल जाए (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) बड़प्पन है।4।24।94। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जीअ जुगति जा कै है हाथ ॥ सो सिमरहु अनाथ को नाथु ॥ प्रभ चिति आए सभु दुखु जाइ ॥ भै सभ बिनसहि हरि कै नाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जीअ जुगति = सारे जीवों की जीवन मर्यादा। नाथु = खसम। चिति = चित्त में। नाइ = नाम के द्वारा।1। नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है। अर्थ: (हे भाई!) उस अनाथों के नाथ परमात्मा का स्मरण कर, जिसके हाथों में सब जीवों की जीवन मर्यादा है। (हे भाई!) यदि परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस जाए तो (उसका) हरेक दुख दूर हो जाता है। परमात्मा के नाम की इनायत के साथ सारे डर नाश हो जाते हैं।1। बिनु हरि भउ काहे का मानहि ॥ हरि बिसरत काहे सुखु जानहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: काहे का = किस का? मानहि = तू मानता है। काहे = कौन सा?।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) तू परमात्मा के बिना और किसी का डर क्यूँ मानता है? परमात्मा को भुला के और कौन सा सुख समझता है?।1। रहाउ। जिनि धारे बहु धरणि अगास ॥ जा की जोति जीअ परगास ॥ जा की बखस न मेटै कोइ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु निरभउ होइ ॥२॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणि = धरती। अगास = आकाश। जीअ = सब जीवों में। परगास = प्रकाश। बखस = बख्शश।2। अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभु को सदा स्मरण कर, जिसने अनेक धरतियों, आकाशों को सहारा दिया हुआ है। जिसकी ज्योति सारे जीवों में प्रकाश कर रही है, और जिस की (की हुई कृपा को कोई मिटा नहीं सकता) (कोई रोक नहीं सकता)। (जो मनुष्य उस प्रभु को स्मरण करता है वह दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है।2। आठ पहर सिमरहु प्रभ नामु ॥ अनिक तीरथ मजनु इसनानु ॥ पारब्रहम की सरणी पाहि ॥ कोटि कलंक खिन महि मिटि जाहि ॥३॥ पद्अर्थ: मजनु = (मज्जन = dip) डुबकी, स्नान। पाहि = अगर तू लेट जाए। कलंक = बदनामी।3। अर्थ: (हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) प्रभु का नाम स्मरण करता रह। (ये स्मरण ही) अनेक तीर्थों का स्नान है। यदि तू परमात्मा की शरण पड़ जाए तो तेरे करोड़ों पाप एक पल में नाश हो जाएं।3। बेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ प्रभ सेवक साचा वेसाहु ॥ गुरि पूरै राखे दे हाथ ॥ नानक पारब्रहम समराथ ॥४॥२६॥९५॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। वेसाहु = भरोसा। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। समराथ = सब ताकतों का मालिक।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, किसी के आसरे नहीं। वह सब गुणों का मालिक है, वह सब गुणों का बादशाह है। प्रभु के सेवकों को प्रभु का अटल भरोसा रहता है। (हे भाई!) परमात्मा पूरे गुरु के द्वारा (अपने सेवकों को सब कलंकों से) हाथ दे कर बचाता है। परमात्मा सब ताकतों का मालिक है।4।26।95। नोट: यहाँ बड़ा जोड़ 96 बनता है। पीछे देख चुके हैं कि जोड़ में एक की गिनती कम चली आ रही है। गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर परसादि नामि मनु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥ अम्रित गुण उचरै प्रभ बाणी ॥ पूरे गुर की सुमति पराणी ॥१॥ पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। नामि = नाम से। सोइआ = (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ। उचरै = उचारता है। सुमति = श्रेष्ठ मति। पराणी = प्राणी, (जिस) मनुष्य (को)।1। अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम में जुड़ता है, वह जन्मों जन्मांतरों का (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ (भी) जाग पड़ता है। जिस प्राणी को पूरे गुरु की श्रेष्ठ मति प्राप्त होती है, वह प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण उचारता है, प्रभु की (महिमा की) वाणी उचारता है।1। प्रभ सिमरत कुसल सभि पाए ॥ घरि बाहरि सुख सहज सबाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कुसल = सुख। सभि = सारे। घरि = घर में, हृदय में। बाहरि = जगत में घटित होतीं। सहज = आत्मिक अडोलता। सबाए = सारे।1। रहाउ। अर्थ: (जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है) प्रभु का स्मरण करते हुए उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए, उसके हृदय में (भी) आत्मिक अडोलता के सारे आनंद, जगत से बरतते हुए भी उसे आत्मिक अडोलता के सारे आनंद प्राप्त होते हैं।1। रहाउ। सोई पछाता जिनहि उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाइआ ॥ बाह पकरि लीनो करि अपना ॥ हरि हरि कथा सदा जपु जपना ॥२॥ पद्अर्थ: जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाइआ = पैदा किया। प्रभि = प्रभु ने। पकरि = पकड़ के। करि = कर के, बना के।2। अर्थ: प्रभु ने मेहर करके जिस मनुष्य को स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ लिया, उस मनुष्य ने उसी प्रभु से गहरी सांझ डाल ली, जिस प्रभु ने उसे पैदा किया है। जिस मनुष्य को प्रभु ने बाँह पकड़ कर अपना बना लिया, वह मनुष्य सदैव प्रभु की महिमा की बातें करता है। प्रभु के नाम का जाप जपता है।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |