श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चरण कमल प्रभ रिदै निवासु ॥ सगल दूख का होइआ नासु ॥२॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में।2।

अर्थ: (हे भाई!) प्रभु के सुंदर चरणों का जिस मनुष्य के हृदय में निवास हो जाता है, उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है; ।2।

आसा माणु ताणु धनु एक ॥ साचे साह की मन महि टेक ॥३॥

पद्अर्थ: एक = एक परमात्मा की। टेक = सहारा।3।

अर्थ: एक परमात्मा का नाम ही उस मनुष्य की आस बन जाता है, प्रभु का नाम ही उस का मान-तान और धन हो जाता है। उस मनुष्य के मन में सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ही सहारा होता है।3।

महा गरीब जन साध अनाथ ॥ नानक प्रभि राखे दे हाथ ॥४॥८५॥१५४॥

पद्अर्थ: जन साध = साधु जन, गुरमुखि, गुरु के सेवक। अनाथ = निआसरे। प्रभि = प्रभु ने।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो) बड़े गरीब और अनाथ लोग (थे, जब वह) गुरु के सेवक (बन गए, गुरु की शरण आ पड़े) परमात्मा ने (उन्हें दुखों-कष्टों से) हाथ दे कर बचा लिया।4।85।154।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि नामि मजनु करि सूचे ॥ कोटि ग्रहण पुंन फल मूचे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में, नाम (-तीर्थ) में। मजनु = स्नान। करि = कर के। सूचे = स्वच्छ, पवित्र। कोटि = करोड़ों। मूचे = बहुत, ज्यादा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम (तीर्थ) में स्नान करके स्वच्छ (जीवन वाले बन जाते हैं)। (नाम तीर्थ में स्नान करने से) करोड़ों ग्रहणों के समय किए (दान-) पुंन्न के फलों से भी ज्यादा फल मिलते हैं।1। रहाउ।

हरि के चरण रिदे महि बसे ॥ जनम जनम के किलविख नसे ॥१॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप।1।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के चरन बस जाएं, उसके अनेक जन्मों के (किए) पाप नाश हो जाते हैं।1।

साधसंगि कीरतन फलु पाइआ ॥ जम का मारगु द्रिसटि न आइआ ॥२॥

पद्अर्थ: संगि = संगति में। मारगु = रास्ता।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा का फल प्राप्त कर लिया। जमों का रास्ता उसे नजर भी नहीं पड़ता (आत्मिक मौत उसके कहीं नजदीक भी नहीं फटकी)।2।

मन बच क्रम गोविंद अधारु ॥ ता ते छुटिओ बिखु संसारु ॥३॥

पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म, काम। अधारु = आसरा। ता ते = उससे। बिखु = जहर।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) अपने मन का अपने बोलों का अपने कामों का आसरा परमात्मा (के नाम) को बना लिया, उस से संसार (का मोह) दूर हट गया, उससे (विकारों का वह) जहर परे रह गया (जो मनुष्य के आत्मिक जीवन को मार देता है)।3।

करि किरपा प्रभि कीनो अपना ॥ नानक जापु जपे हरि जपना ॥४॥८६॥१५५॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जपे = जपता है।4।

अर्थ: हे नानक! मेहर कर के प्रभु ने जिस मनुष्य को अपना बना लिया। वह मनुष्य सदा प्रभु का जाप जपता है प्रभु का भजन करता है।4।86।155।

गउड़ी महला ५ ॥ पउ सरणाई जिनि हरि जाते ॥ मनु तनु सीतलु चरण हरि राते ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। हरि जाते = हरि से गहरी सांझ डाली है। सीतलु = ठण्डा,शांत। राते = रते रहने से, प्यार डालने से।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली है उसी की शरण पड़ा रह, (क्योंकि) प्रभु-चरणों में प्यार डाल के मन शांत हो जाता है, शरीर (भाव, हरेक इंद्रिय) शांत हो जाता है।1।

भै भंजन प्रभ मनि न बसाही ॥ डरपत डरपत जनम बहुतु जाही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भै भंजन प्रभ = सारे डरों का नाश करने वाला प्रभु। मनि = मन में। न बसाही = जो मनुष्य नहीं बसाते, बसाहि। जाही = जाहि, लांघ जाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) सारे डरों का नाश करने वाले प्रभु को अपने मन में नहीं बसाते, उनके अनेक जन्म इन डरों से काँपते हुए ही बीत जाते हैं।1। रहाउ।

जा कै रिदै बसिओ हरि नाम ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन काम ॥२॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। ता के = उस के।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसके सारे काम सारे उद्देश्य सफल हो जाते हैं।2।

जनमु जरा मिरतु जिसु वासि ॥ सो समरथु सिमरि सासि गिरासि ॥३॥

पद्अर्थ: जनमु = जिंदगी। जरा = बढ़ापा। मिरतु = मौत। वासि = बस रहा। सासि = (हरेक) श्वास से। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ।3।

अर्थ: (हे भाई!) हमारा जीना, हमारा बुढ़ापा और हमारी मौत जिस परमात्मा के वश में है, उस सब ताकतों के मालिक प्रभु को हरेक साँस के साथ और हरेक ग्रास के साथ स्मरण करता रह।3।

मीतु साजनु सखा प्रभु एक ॥ नामु सुआमी का नानक टेक ॥४॥८७॥१५६॥

पद्अर्थ: सखा = साथी। टेक = आसरा, सहारा।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) एक परमात्मा ही (हम जीवों का) मित्र है सज्जन है, साथी है। उस मालिक प्रभु का नाम ही (हमारी जिंदगी का) सहारा है।4।87।156।

गउड़ी महला ५ ॥ बाहरि राखिओ रिदै समालि ॥ घरि आए गोविंदु लै नालि ॥१॥

पद्अर्थ: बाहरि = जगत के साथ कार्य-व्यवहार करते हुए। रिदै = हृदय में। समालि = संभाल के। घरि = हृदय घर में। लै नालि = साथ ले कर।1।

अर्थ: (हे भाई!) जगत से कार्य-व्यवहार करते हुए संत जनों ने गोबिंद को अपने हृदय में संभाल के रखा होता है। गोबिंद को संत जन अपने हृदय घर में सदा अपने साथ रखते हैं।1।

हरि हरि नामु संतन कै संगि ॥ मनु तनु राता राम कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संतन कै संगि = संतों के साथ। राता = रंगा हुआ। रंगि = रंग में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा संत जनों के हृदय में बसता है। परमात्मा के (प्रेम) रंग में (संत जनों का) मन रंगा रहता है, तन (भाव, हरेक ज्ञानेंद्री) रंगी रहती है।1। रहाउ।

गुर परसादी सागरु तरिआ ॥ जनम जनम के किलविख सभि हिरिआ ॥२॥

पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। सागरु = (संसार) समुंदर। किलविख = पाप। सभि = सारे। हिरिआ = दूर कर लिए।2।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के संत जन) संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं, और अनेक जन्मों के (पहले किए हुये) सारे पाप दूर कर लेते हैं।2।

सोभा सुरति नामि भगवंतु ॥ पूरे गुर का निरमल मंतु ॥३॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। भगवंतु = भाग्यों वाले। मंतु = उपदेश।3।

अर्थ: (हे भाई! तू भी) पूरे गुरु का उपदेश (अपने हृदय में बसा। जो मनुष्य गुरु का उपदेश हृदय में बसाता है, वह) भाग्यशाली हो जाता है, वह (लोक परलोक में) बड़प्पन कमाता है, उसकी तवज्जो प्रभु के नाम में जुड़ती है।3।

चरण कमल हिरदे महि जापु ॥ नानकु पेखि जीवै परतापु ॥४॥८८॥१५७॥

पद्अर्थ: जापु = जपता रह। नानकु जीवै = नानक आत्मिक जीवन हासिल करता है। पेखि = देख के।4।

अर्थ: (हे भाई! तू भी परमात्मा के) सुंदर चरण (अपने) हृदय में जपता रह। नानक (उस परमात्मा का) प्रताप देख के आत्मिक जीवन हासिल करता है।4।88।157।

गउड़ी महला ५ ॥ धंनु इहु थानु गोविंद गुण गाए ॥ कुसल खेम प्रभि आपि बसाए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धंनु = भाग्यशाली। इह थानु = ये हृदय स्थल। कुसल खेम = कुशल आनंद। प्रभि = प्रभु ने।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के गुण गाने से (मनुष्य का) ये हृदय-स्थल भाग्यशाली बन जाता है (क्योंकि, जिस हृदय में प्रभु की महिमा आ बसी, उस में) प्रभु ने खुद सारे सुख, सारे आनंद ला बसाए।1। रहाउ।

बिपति तहा जहा हरि सिमरनु नाही ॥ कोटि अनंद जह हरि गुन गाही ॥१॥

पद्अर्थ: बिपति = मुसीबत। कोटि = करोड़ों। गाही = गाए जाते हैं।1।

अर्थ: (हे भाई!) बिपता (सदा) उस हृदय में (बीतती रहती) है, जिस में परमात्मा (के नाम) का स्मरण नहीं है। जिस हृदय में परमात्मा के गुण गाए जाते हैं, वहाँ करोड़ों ही आनंद हैं।1।

हरि बिसरिऐ दुख रोग घनेरे ॥ प्रभ सेवा जमु लगै न नेरे ॥२॥

पद्अर्थ: हरि बिसरिऐ = अगर हरि बिसर जाए। घनेरे = बहुत। नेरे = नजदीक।2।

अर्थ: (हे भाई!) अगर मनुष्य को परमात्मा (का नाम) बिसर जाए, तो उसे अनेक दुख, अनेक रोग (आ घेरते हैं)। (पर) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से जम (मौत का भय) नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत नहीं आती)।2।

सो वडभागी निहचल थानु ॥ जह जपीऐ प्रभ केवल नामु ॥३॥

पद्अर्थ: थानु = स्थान, हृदय। जह = जहाँ।3।

अर्थ: (हे भाई!) वह हृदय-स्थल भाग्यशाली है, वह हृदय सदा अडोल रहता है, जिस में परमात्मा का ही नाम जपा जाता है।3।

जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी ॥ नानक कउ मिलिआ अंतरजामी ॥४॥८९॥१५८॥

पद्अर्थ: सुआमी = स्वामी, मालिक प्रभु। कउ = को। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।

अर्थ: (हे भाई!) सबके दिल की जानने वाला प्रभु (अपनी कृपा से मुझ) नानक को मिल गया है, अब मैं जिधर जाता हूँ, उधर मेरा मालिक-प्रभु मुझे अपने साथ दिखाई देता है।4।89।158।

गउड़ी महला ५ ॥ जो प्राणी गोविंदु धिआवै ॥ पड़िआ अणपड़िआ परम गति पावै ॥१॥

पद्अर्थ: धिआवै = ध्यान धरता है, हृदय में याद रखता है। परम गति = सब से ऊँची अवस्था।1।

अर्थ: जो मनुष्य गोबिंद प्रभु को अपने हृदय में याद करता रहता है, वह चाहे विद्वान हो अथवा विद्या हीन, वह सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1।

साधू संगि सिमरि गोपाल ॥ बिनु नावै झूठा धनु मालु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में (रह के) सृष्टि के पालणहार प्रभु (के नाम) का स्मरण किया कर। प्रभु के नाम के बिना और कोई धन और कोई चीज पक्का साथ निभाने वाली नहीं है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh