श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 200 अह्मबुधि मन पूरि थिधाई ॥ साध धूरि करि सुध मंजाई ॥१॥ पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार ग्रसित बुद्धि। मन थिधाई = मन की चिकनाहट। मंजाई = मांज दी।1। नोट: चिकने बरतन को मिट्टी या राख से मांजा जाता है। अर्थ: अहंकार वाली बुद्धि के कारण (मनुष्य के) मन को (अहम् की) चिकनाई लगी रहती है (उस चिकनाई के कारण मन पर किसी उपदेश का असर नहीं होता, जैसे चिकने बरतन पर पानी नहीं ठहरता। जिस मनुष्य को ‘जन की धूरि’ मीठी लगती है) साधु की चरण-धूल से उसकी बुद्धि मांजी जाती है और शुद्ध हो जाती है।1। अनिक जला जे धोवै देही ॥ मैलु न उतरै सुधु न तेही ॥२॥ पद्अर्थ: देही = शरीर। तेही = उस तरीके से। सुधु = पवित्र।2। नोट: शब्द ‘सुधु’ पुलिंग, व ‘सुध’ स्त्रीलिंग। अर्थ: अगर मनुष्य अनेक (तीर्थों के) पानियों से अपने शरीर को धोता रहे, तो भी उसके मन की मैल नहीं उतरती, उस तरह (भाव, तीर्थ-स्नानों से भी) वह मनुष्य पवित्र नहीं हो सकता।2। सतिगुरु भेटिओ सदा क्रिपाल ॥ हरि सिमरि सिमरि काटिआ भउ काल ॥३॥ पद्अर्थ: भेटिओ = मिला। भउ काल = काल का भउ।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को सत्गुरू मिल जाता है, जिस पे गुरु सदा दयावान रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से) मौत का डर (आत्मिक मौत का खतरा) दूर कर लेता है।3। मुकति भुगति जुगति हरि नाउ ॥ प्रेम भगति नानक गुण गाउ ॥४॥१००॥१६९॥ पद्अर्थ: मुकति = मोक्ष। भुगति = भोग। जुगति = जोग।4। अर्थ: हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से परमात्मा के गुण गाता रह। परमात्मा का नाम ही विकारों से निजात दिलवाता है। नाम ही आत्मिक जीवन की खुराक है, नाम जपना ही जीवन की सही जुगति है।4।100।169। गउड़ी महला ५ ॥ जीवन पदवी हरि के दास ॥ जिन मिलिआ आतम परगासु ॥१॥ पद्अर्थ: पदवी = दर्जा। जीवन पदवी = ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिन = जिस (हरि के दासों को)। परगासु = प्रकाश।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे हरि के दास हैं) हरि के दासों को उच्च आत्मिक दर्जा प्राप्त है। उन (हरि के दासों) को मिलके आत्मा को (ज्ञान का) प्रकाश मिल जाता है।1। हरि का सिमरनु सुनि मन कानी ॥ सुखु पावहि हरि दुआर परानी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! कानी सुनि = कानों से सुन, ध्यान से सुन। हरि दुआरि = हरि के दर पर।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! ध्यान से परमात्मा का नाम सुना कर। हे प्राणी! (नाम जपने की इनायत से) तू हरि के दर पर सुख प्राप्त करेगा।1। रहाउ। आठ पहर धिआईऐ गोपालु ॥ नानक दरसनु देखि निहालु ॥२॥१०१॥१७०॥ पद्अर्थ: धिआईऐ = ध्याना चाहिए। देखि = देख के। निहालु = प्रसन्न।2। अर्थ: हे नानक! (हरि के दासों की संगति में रह के) आठों पहर सृष्टि के पालनहार प्रभु को स्मरणा चाहिए। (नाम जपने की इनायत से हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (मन) खिला रहता है।2।101।170। गउड़ी महला ५ ॥ सांति भई गुर गोबिदि पाई ॥ ताप पाप बिनसे मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गोबिदि = गोबिंद ने। गुर गोबिदि = गोबिंद के रूप गुरु ने। पाई = दी, बख्शी। सांति = ठंढ। ताप = दुख-कष्ट। भाई = हे भाई! 1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद के रूप गुरु ने (जिस मनुष्य को नाम की दाति) बख्श दी, उसके अंदर ठंढ पड़ गई, उसके सारे दुख-कष्ट और पाप नाश हो गए।1। रहाउ। राम नामु नित रसन बखान ॥ बिनसे रोग भए कलिआन ॥१॥ पद्अर्थ: रसन = जीभ से। कलिआन = खुशियां।1। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम उच्चारण करता है, उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, उसके अंदर आनंद ही आनंद बने रहते हैं।1। पारब्रहम गुण अगम बीचार ॥ साधू संगमि है निसतार ॥२॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। साधू संगमि = गुरु की संगति में। निसतार = पार उतारा।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अगम्य (पहुँच से परे) पारब्रहम् प्रभु के गुणों का विचार करता रहता है, गुरु की संगति में रह के उस का (संसार-समुंदर से) पार उतारा हो जाता है।2। निरमल गुण गावहु नित नीत ॥ गई बिआधि उबरे जन मीत ॥३॥ पद्अर्थ: नित नीत = सदा ही। बिआधि = रोग। उबरे = बच गए। मीत = हे मित्र!।3। अर्थ: हे (मेरे) मित्र! सदा परमात्मा के गुण गाते रहो। (जो मनुष्य गुण गाते हैं, उनका हरेक) रोग दूर हो जाता है, वह मनुष्य (रोगों-विकारों से) बचे रहते हैं।3। मन बच क्रम प्रभु अपना धिआई ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥४॥१०२॥१७१॥ पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म। धिआई = मैं ध्याऊँ।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु-चरणों में प्रार्थना करके कह: हे प्रभु!) मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर) मैं अपने मन से वचन से और कर्मों से सदा अपने मालिक प्रभु को स्मरण करता रहूँ।4।102।171। गउड़ी महला ५ ॥ नेत्र प्रगासु कीआ गुरदेव ॥ भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रगासु = रौशनी। गुरदेव = हे गुरदेव! 1। रहाउ। अर्थ: हे गुरदेव! जिस मनुष्य की (आत्मिक) आँखों को तूने (ज्ञान का) प्रकाश बख्शा, उसके सारे वहम (जगह-जगह की भटकना) दूर हो गई। तेरे दर पर टिक के की हुई उसकी सेवा सफल हो गई।1। रहाउ। सीतला ते रखिआ बिहारी ॥ पारब्रहम प्रभ किरपा धारी ॥१॥ पद्अर्थ: सीतला = माता का रोग, चेचक। ते = से। रखिआ = बचाया। बिहारी = (विहारिन्) हे सुंदर प्रभु! किरपा धारी = कृा धार के।1। अर्थ: हे सुंदर स्वरूप! हे पारब्रहम्! हे प्रभु! तूने ही कृपा करके शीतला से बचाया है (और कोई देवी आदि तेरे बराबर की नहीं है)।1। नोट: सन् 1594 से 1599 तक माझे (बृहक्तर पंजाब का इलाका) में सख्त अकाल पड़ा रहा। चेचक आदि बीमारियों की महामारी भी फैल गई। (छेवें गुरु) गुरु हरि गोबिंद साहिब का जन्म 1595 में हुआ था। (पाँचवें गुरु) गुरु अरजन साहिब जी भूखों, रोग पीड़ितों की सहायता के लिए पाँच साल माझे के गाँवों में, फिर लाहौर शहर में भी विचरते रहे। बालक गुरु हरि गोबिंद को भी अपने साथ ही रखने की आवश्यक्ता बनी रही, क्योंकि बाबा पृथ्वी चंद जी (गुरु अरजन देव जी के बड़े भ्राता) उनको जान से मार देना चाहते थे। चेचक के इलाके में घूमने की वजह से अमृतसर वापिस आने पर गुरु हरि गोबिंद साहिब को माता निकल आई। वहमी-भरमी स्त्रीयां आ आ के सीतला देवी की पूजा के वास्ते प्रेरित करती रहीं। इस वहिम-भ्रम से सदा के लिए बचाने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने इस शब्द के द्वारा उपदेश किया है। नानक नामु जपै सो जीवै ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीवै ॥२॥१०३॥१७२॥ पद्अर्थ: जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। साध संगि = साधु-संगत में।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य (और सारे आसरे छोड़ के) परमात्मा का नाम जपता है, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है (क्योंकि) वह साधु-संगत में रह के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस पीता रहता है।2।103।172। गउड़ी महला ५ ॥ धनु ओहु मसतकु धनु तेरे नेत ॥ धनु ओइ भगत जिन तुम संगि हेत ॥१॥ पद्अर्थ: धनु = भाग्यशाली। मसतकु = माथा। धनु नेत = भाग्यशाली हैं वह नेत्र। नेत = आँखें। तेरे = (जो) तेरे (दीदार में मस्त हैं)। तुम संगि = तेरे साथ। हेत = हित, प्यार।1। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन। अर्थ: (हे प्रभु!) भाग्यशाली है वह माथा (जो तेरे दर पर झुकता है), भाग्यशाली हैं वे आँखें (जो) तेरे (दीदार में मस्त रहती हैं)। भाग्यशाली हें वे भक्तजन जिनका तेरे नाम से प्रेम बना रहता है।1। नाम बिना कैसे सुखु लहीऐ ॥ रसना राम नाम जसु कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कैसे लहीऐ = कैसे मिल सकता है? कभी नहीं मिल सकता। रसना = जीभ (से)। जसु = यश, महिमा। कहीऐ = कहना चाहिए।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना कभी सुख नहीं मिल सकता। (इस वास्ते सदैव) जीभ से परमात्मा का नाम जपना चाहिए, परमात्मा की महिमा करनी चाहिए।1। रहाउ। तिन ऊपरि जाईऐ कुरबाणु ॥ नानक जिनि जपिआ निरबाणु ॥२॥१०४॥१७३॥ पद्अर्थ: जाईऐ = जाना चाहिए। जिनि = जिस ने। निरबाणु = वासना रहित, जिसे कोई वासना छू ना सके।2। नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, जबकि ‘जिनि’ एकवचन है। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस जिस ने वासना रहित प्रभु का नाम जपा है, उनपे से (सदा) सदके जाना चाहिए।2।104।173। गउड़ी महला ५ ॥ तूंहै मसलति तूंहै नालि ॥ तूहै राखहि सारि समालि ॥१॥ पद्अर्थ: मसलति = सलाह (देने वाला)। राखहि = रखता है, रक्षा करता है। सारि = संभाल के, सार ले के। समालि = संभाल कर के।1। अर्थ: हे प्रभु! तू (हर जगह मेरा) सलाहकार है, तू ही (हर जगह) मेरे साथ बसता है। तू ही (जीवों की) सार ले के संभाल करके रक्षा करता है।1। ऐसा रामु दीन दुनी सहाई ॥ दास की पैज रखै मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दीन दुनी सहाई = दीन का साथी और दुनिया का साथी, लोक परलोक का साथी। पैज = इज्जत, लज्जा। भाई = हे भाई! 1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा इस लोक में और परलोक में ऐसा साथी है कि वह अपने सेवक की इज्जत (हर जगह) रखता है।1। रहाउ। आगै आपि इहु थानु वसि जा कै ॥ आठ पहर मनु हरि कउ जापै ॥२॥ पद्अर्थ: आगै = परलोक में। इहु थानु = ये लोक। वसि जा कै = जिसके वश में। मनु = (मेरा) मन। जापै = जपता है।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में हमारा ये लोक है, वही खुद परलोक में भी (हमारा रक्षक) है। (हे भाई!) मेरा मन तो आठों पहर उस परमात्मा का नाम जपता है।2। पति परवाणु सचु नीसाणु ॥ जा कउ आपि करहि फुरमानु ॥३॥ पद्अर्थ: पति = इज्जत। परवाणु = स्वीकार। सचु = सदा सिथर प्रभु का नाम। नीसाणु = परवाना, जिंदगी के सफर में राहदारी। फुरमान = हुक्म।3। अर्थ: हे प्रभु! जिस (सेवक) के वास्ते तू खुद हुक्म करता है, उसे (तेरे दरबार में) आदर-सत्कार मिलता है, वह (तेरे दर पर) स्वीकार होता है, उसको (जीवन-यात्रा में) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम, (बतौर) राहदारी मिलता है।3। आपे दाता आपि प्रतिपालि ॥ नित नित नानक राम नामु समालि ॥४॥१०५॥१७४॥ पद्अर्थ: प्रतिपाल = पालना करता है। समालि = सम्भाल।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा खुद ही (सब जीवों को) दातें देने वाला है, स्वयं ही (सबकी) पालना करने वाला है। तू सदा ही उस परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल के रख।4।105।174। नोट: पाठक ये याद रखें कि यहाँ कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही है। यहाँ कुल जोड़ 175 चाहिए थे। गउड़ी महला ५ ॥ सतिगुरु पूरा भइआ क्रिपालु ॥ हिरदै वसिआ सदा गुपालु ॥१॥ पद्अर्थ: क्रिपालु = कृपा+आलय, कृपा का घर, दयावान। हिरदै = दिल में।1। अर्थ: (हे भाई!) अचूक गुरु जिस मनुष्य पर दयावान होता है, सृष्टि के रक्षक परमात्मा (का नाम) सदा उसके हृदय में बसा रहता है।1। रामु रवत सद ही सुखु पाइआ ॥ मइआ करी पूरन हरि राइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रवत = स्मरण करते हुए। सद ही = सदा ही। मइआ = कृपा। पूरन = सर्व व्यापक। हरि राइआ = प्रभु पातशाह।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर सर्व व्यापक प्रभु पातशाह ने मेहर की है, परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए उसने सदा ही आत्मिक आनंद पाया है।1। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |