श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 201 कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ हरि हरि नामु असथिरु सोहागु ॥२॥१०६॥ पद्अर्थ: जा के = जिस (मनुष्य) के। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। सोहागु = सौभाग्य,खसम, पति।2। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के (माथे पर) पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, वह सदा परमात्मा का नाम जपता है। (उस के सिर पर) परमात्मा सदा कायम रहने वाला पति (अपना हाथ रखता है)।2।106। नोट: यहाँ तक गुरु अरजन देव जी के 106 शब्द हैं। पिछला जोड़ 70 था। कुल जोड़ 176 बनता है, पर अब तक कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही थी, जो यहाँ आ के स्पष्ट हो गई है। पिछले सारे अंक तोड़ने पड़ने थे। इसकी जगह आगे वाला अंक लिखना बंद कर दिया गया है। गउड़ी महला ५ ॥ धोती खोलि विछाए हेठि ॥ गरधप वांगू लाहे पेटि ॥१॥ पद्अर्थ: धोती खोलि = धोती के ऊपर का आधा हिस्सा उतार के। हेठि = नाचे, जमीन पर। गरधप = गधा। पेटि = पेट में। लाहे = डाले जाता है (खीर वगैरा)।1। अर्थ: (पर, हे भाई! ब्राहमण अपने जजमानों को यही बताता है कि ब्राहमण को दिया दान ही मोक्ष पदवी मिलने का रास्ता है। वह ब्राहमण श्राद्ध आदि के समय जजमान के घर जा के चौके में बैठ के) अपनी धोती का ऊपर का हिस्सा उतार के नीचे रख लेता है और गधे की तरह (दबादब खीर आदि) अपने पेट में डाले जाता है।1। बिनु करतूती मुकति न पाईऐ ॥ मुकति पदारथु नामु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करतूती = करतूत, नाम स्मरण का उद्यम। मुकति = मुक्ति, विकारों से खलासी, मोक्ष पदवी।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। ये ऐसा पदार्थ है जो विकारों से खलासी देता है। (हे भाई!) नाम जपने की कमाई किए बिना मोक्ष पदवी नहीं मिलती।1। रहाउ। पूजा तिलक करत इसनानां ॥ छुरी काढि लेवै हथि दाना ॥२॥ पद्अर्थ: छुरी काढि = छुरी निकाल के, निर्दयता से, (स्वर्ग आदि का) धोखा दे के। लेवै हथि = हाथ में लेता है, हासिल करता है।2। अर्थ: (ब्राहमण) स्नान करके, तिलक लगा के पूजा करता है, और छुरी निकाल के, हाथ में दान लेता है।2। बेदु पड़ै मुखि मीठी बाणी ॥ जीआं कुहत न संगै पराणी ॥३॥ पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। मीठी बाणी = मीठे सुर से। कुहत = मारते हुए। जीआं कुहत = जीवों को मारते हुए, अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए। न संगै = नहीं शर्माता, नहीं हिचकिचाता।3। अर्थ: (ब्राहमण) मुंह से मीठी सुर का वेद (मंत्र) पढ़ता है, पर अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए रक्ती भर नहीं झिझकता।3। कहु नानक जिसु किरपा धारै ॥ हिरदा सुधु ब्रहमु बीचारै ॥४॥१०७॥ पद्अर्थ: सुधु = पवित्र। ब्रहमु = परमात्मा।4। अर्थ: (पर) हे नानक! कह: (ब्राहमण के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है वही परमातमा के गुण अपने हृदय में बसाता है। (जिसकी इनायत से) उसका हृदय पवित्र हो जाता है (और वह किसी के साथ ठगी-फरेब नहीं करता)।4।107। गउड़ी महला ५ ॥ थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ॥ सतिगुरि तुमरे काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: थिरु = अडोल चिक्त, श्रद्धा से। घरि = हृदय घर में। हरि जन = हे हरि के सेवको! स्तिगुरि = सतिगुरु ने।1। रहाउ। अर्थ: हे प्यारे भक्त जनों! अपने हृदय में ये पूरी श्रद्धा बनाओ, कि सतिगुरु ने हमारे कारज सवार दिए हैं (कि सत्गुरू शरण पड़ने वालों के कार्य सवार देता है)।1। रहाउ। दुसट दूत परमेसरि मारे ॥ जन की पैज रखी करतारे ॥१॥ पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। जन की पैज = सेवक की लज्जा। करतारे = कर्तार ने।1। अर्थ: (हे संत जनों! ये निश्चय धारो कि जो मनुष्य और आसरे छोड़ के परमेश्वर का आसरा देखता है), परमेश्वर ने उसके कष्ट देने वाले-वैरी सब समाप्त कर दिए हैं, कर्तार ने अपने सेवक की इज्जत जरूर रखी है।1। बादिसाह साह सभ वसि करि दीने ॥ अम्रित नाम महा रस पीने ॥२॥ पद्अर्थ: वसि = वश में। पीने = पीते हैं।2। अर्थ: (हे संत जनों परमेश्वर ने अपने सेवकों को) दुनिया के शाहों-बादशाहों से बे-मुहताज (आजाद) कर दिया है। परमेश्वर के सेवक आत्मिक जीवन देने वाला परमेश्वर का सब रसों से मीठा नाम-रस पीते रहते हैं।2। निरभउ होइ भजहु भगवान ॥ साधसंगति मिलि कीनो दानु ॥३॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। कीनो = किया है।3। अर्थ: (हे प्यारे भक्त जनों! परमेश्वर ने तुम्हारे ऊपर) नाम की बख्शिश की है, तुम साधु-संगत में मिल के निडर हो के भगवान का नाम स्मरण करते रहो।3। सरणि परे प्रभ अंतरजामी ॥ नानक ओट पकरी प्रभ सुआमी ॥४॥१०८॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! ओट = आसरा।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:) हे अंतरजामी प्रभु! हे स्वामी प्रभु! मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मैंने तेरा आसरा लिया है (मुझे अपने नाम की दाति बख्श)।4।108। गउड़ी महला ५ ॥ हरि संगि राते भाहि न जलै ॥ हरि संगि राते माइआ नही छलै ॥ हरि संगि राते नही डूबै जला ॥ हरि संगि राते सुफल फला ॥१॥ पद्अर्थ: भाहि = (तृष्णा की) आग (में)। संगि = साथ। राते = रंगे जाने से। जला = संसार समुंदर में।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के साथ रंगे रहने से (मनुष्य तृष्णा की) आग में नहीं जलता। परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से (मनुष्य को) माया ठग नहीं सकती। परमात्मा की याद में मस्त रहने से मनुष्य संसार समुंदं के विकारों के पानियों में ग़र्क नहीं होता, मानव जन्म का खूबसूरत उद्देश्य प्राप्त कर लेता है।1। सभ भै मिटहि तुमारै नाइ ॥ भेटत संगि हरि हरि गुन गाइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नाइ = काम के द्वारा। भेटत = मिलने से। गाइ = गाता है।1। रहाउ। नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है। अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे नाम में जुड़ने से (मनुष्य के सारे) डर दूर हो जाते हैं। (हे भाई!) प्रभु की संगति में रहने से (चरणों में जुड़ने से) मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है।1। रहाउ। हरि संगि राते मिटै सभ चिंता ॥ हरि सिउ सो रचै जिसु साध का मंता ॥ हरि संगि राते जम की नही त्रास ॥ हरि संगि राते पूरन आस ॥२॥ पद्अर्थ: साध = गुरु। मंता = उपदेश। त्रास = डर।2। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की याद में जुड़े रहने से (मनुष्य की) हरेक किस्म की चिन्ता मिट जाती है। (पर) परमात्मा के साथ वही मनुष्य जुड़ता है जिसे गुरु का उपदेश प्राप्त होता है। परमात्मा के साथ रंगे रहने से मौत का सहम नहीं रहता, और मनुष्य की सारी आशाएं पूरी हो जाती हैं।2। हरि संगि राते दूखु न लागै ॥ हरि संगि राता अनदिनु जागै ॥ हरि संगि राता सहज घरि वसै ॥ हरि संगि राते भ्रमु भउ नसै ॥३॥ पद्अर्थ: न लागै = छू नहीं सकता। राता = रंगा हुआ। अनदिनु = हर रोज। जागै = (विकारों की ओर से) सुचेत रहता है। सहज घरि = आत्मिक अडोलता के घर में।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से कोई दुख छू नहीं सकता। जो मनुष्य परमात्मा की याद में मस्त रहता है, वह हर वक्त (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता की अवस्था में टिका रहता है। परमात्मा की याद में जुड़े रहने से मनुष्य की हरेक किस्म की भटकना मिट जाती है, हरेक सहम दूर हो जाता है।3। हरि संगि राते मति ऊतम होइ ॥ हरि संगि राते निरमल सोइ ॥ कहु नानक तिन कउ बलि जाई ॥ जिन कउ प्रभु मेरा बिसरत नाही ॥४॥१०९॥ पद्अर्थ: निरमल = पवित्र, बेदाग। सोइ = शोभा। बलि जाई = मैं कर्बान जाता हूँ।4। अर्थ: हे नानक! कह: मैं उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्हें मेरा परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।109। गउड़ी महला ५ ॥ उदमु करत सीतल मन भए ॥ मारगि चलत सगल दुख गए ॥ नामु जपत मनि भए अनंद ॥ रसि गाए गुन परमानंद ॥१॥ पद्अर्थ: सीतल मन = ठंडे मन वाले, शांत चित्त। मारगि = रास्ते में। सगल = सारे। मनि = मन में। रसि = प्रेम से। गुन परमानंद = परमानंद के गुण। परमानंद = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु।1। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में जाने का) उद्यम करते हुए (मनुष्य) शांत-चित्त हो जाते हैं। (साधु-संगत के) रास्ते पर चलते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं (छू नहीं सकते)। (हे भाई!) सबसे उच्च आनंद का मालिक प्रभु के गुण प्रेम से गाने से, प्रभु का नाम जपने से मन में आनंद ही आनंद पैदा हो जाते हैं।1। खेम भइआ कुसल घरि आए ॥ भेटत साधसंगि गई बलाए ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: खेम = सुख। कुसल घरि = सुख के घर में, सुख की अवस्था में। भेटत = मिलने से। बलाए = माया चुड़ैल।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में मिलने से (माया-) चुड़ेल (की चिपकन) देर हो जाती है। (जो लोग साधु-संगत में जुड़ते हैं उन्हें) सुख ही सुख प्राप्त होता है, वे आनंद की अवस्था में टिक जाते हैं।1। रहाउ। नेत्र पुनीत पेखत ही दरस ॥ धनि मसतक चरन कमल ही परस ॥ गोबिंद की टहल सफल इह कांइआ ॥ संत प्रसादि परम पदु पाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र, पराया रूप देखने का बाण से रहित। पेखत = देखते हुए। धनि = धन्य, भाग्यशाली। मसतक = माथा। परस = छूह। कांइआ = शरीर। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।2। अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के दर्शन करते ही आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकार-वासना से रहित हो जाती हैं)। (हे भाई!) भाग्यशाली हैं वह माथे जिन्हें गोबिंद के सुंदर चरणों की छोह मिलती है। परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से ये शरीर सफल हो जाता है। गुरु संत की कृपा से सबसे ऊंची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |