श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 202 जन की कीनी आपि सहाइ ॥ सुखु पाइआ लगि दासह पाइ ॥ आपु गइआ ता आपहि भए ॥ क्रिपा निधान की सरनी पए ॥३॥ पद्अर्थ: सहाइ = सहायता। लगि = लग के। दासह पाइ = दासों के पैरों पर। आपु = स्वैभाव। आपहि = खुद ही, प्रभु स्वयं ही, परमात्मा का रूप ही। ता = कब। क्रिपा निधान = क्रिपा का खजाना।3। नोट: शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ का फर्क याद रखने योग्य है। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ने खुद जिस मनुष्य की सहायता की, उसने परमात्मा के भक्तों के चरणों में लग के आत्मिक आनंद पाया। जो मनुष्य दया के खजाने परमात्मा की शरण आ पड़े, उनके अंदर (जब) स्वैभाव दूर हो गया तब वे परमात्मा का रूप हो गए।3। जो चाहत सोई जब पाइआ ॥ तब ढूंढन कहा को जाइआ ॥ असथिर भए बसे सुख आसन ॥ गुर प्रसादि नानक सुख बासन ॥४॥११०॥ पद्अर्थ: जो चाहत = जिसे मिलना चाहता है। सोई = वही (परमात्मा)। कहा = कहाँ? को = कोई। असथिर = स्थिर, अडोल अवस्था। सुख आसन = आनंद के आसन पर। सुख बासन = सुखों में बसने वाले।4। अर्थ: (हे भाई!) जब किसी मनुष्य को (गुरु की कृपा से) वह परमात्मा ही मिल पड़ता है जिसे वह मिलना चाहता है, तब वह (बाहर जंगल पहाड़ों आदि में उसे) ढूँढने नहीं जाता। हे नानक! (परमात्मा को अपने ही अंदर ढूँढ लेने वाले मनुष्य) अडोल-चित्त हो जाते हैं, वे सदा आनंद अवस्था में टिके रहते हैं, गुरु की कृपा से वे सदा सुख में बसने वाले हो जाते हैं।4।110। गउड़ी महला ५ ॥ कोटि मजन कीनो इसनान ॥ लाख अरब खरब दीनो दानु ॥ जा मनि वसिओ हरि को नामु ॥१॥ पद्अर्थ: मजन = स्नान, डुबकी। अरब खरब = सौ लाख का एक करोड़, सौ करोड़ का एक अरब, सौ अरब का एक खरब। मनि = मन में। जा मनि = जिस (मनुष्य) के मन में।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसने मानों करोड़ों तीर्थों में डुबकियां लगा ली हों, करोड़ों तीर्थों के स्नान कर लिए, उसने (मानो) लाखों रुपए अरबों रुपए खरबों रुपए दान कर दिए।1। सगल पवित गुन गाइ गुपाल ॥ पाप मिटहि साधू सरनि दइआल ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गाइ = गा के। मिटहि = मिट जाते हैं। साधू = गुरु। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण गा के सारे मनुष्य पवित्र हो सकते हैं। दया के श्रोत गुरु की शरण पड़ने से (सारे) पाप मिट जाते हैं। रहाउ। बहुतु उरध तप साधन साधे ॥ अनिक लाभ मनोरथ लाधे ॥ हरि हरि नाम रसन आराधे ॥२॥ पद्अर्थ: उरध = उर्ध, ऊँचा, ऊँचा उल्टा लटक के। रसन = जीभ (से)।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपता है, उसने (मानो) उल्टा लटक के अनेक तपों की साधनाएं साधु लीं। उसने (मानो, रिद्धियों-सिद्धियों के) अनकों लाभ प्राप्त कर लिए।2। सिम्रिति सासत बेद बखाने ॥ जोग गिआन सिध सुख जाने ॥ नामु जपत प्रभ सिउ मन माने ॥३॥ पद्अर्थ: बखाने = उचारे, पढ़ लिए। माने = पतीज गए।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते स्मरण करते जिस मनुष्य का मन परमात्मा में लीन हो जाता है, उसने (मानो) स्मृतियों-शास्त्रों-वेदों के उच्चारण कर लिए। उसने (जैसे) योग (की पेचीदिकियों) की सूझ हासिल कर ली है। उसने (मानो) सिद्धों को मिले सुखों से सांझ पा ली।3। अगाधि बोधि हरि अगम अपारे ॥ नामु जपत नामु रिदे बीचारे ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारे ॥४॥१११॥ पद्अर्थ: अगाधि = अथाह। अगाधि बोधि = अथाह बोध वाला, जिसके पूर्ण स्वरूप का सही बयान नहीं हो सकता।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु कृपा करता है, वह मनुष्य) उस अथाह हस्ती वाले अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम जपता है, उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है। (हे नानक! तू भी अरदास कर और कह:) हे प्रभु! मुझ नानक पर कृपा कर (ता कि मैं तेरा नाम जप सकूँ)।4।111। गउड़ी मः ५ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ ॥ चरन कमल गुर रिदै बसाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सुखु = आत्मिक आनंद। चरन कमल गुर = गुरु के सुंदर चरण (कमल फूल जैसे)। रिदै = हृदय में।1। अर्थ: (पर, हे भाई! गोबिंद की आराधना गुरु के द्वारा ही मिलती है। जिस मनुष्य ने) गुरु के सुंदर चरण अपने हृदय में बसाए हैं, उसने गोबिंद का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद पाया है।1। गुर गोबिंदु पारब्रहमु पूरा ॥ तिसहि अराधि मेरा मनु धीरा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पूरा = अचूक, सारे गुणों वाला। तिसहि = उस (गोबिंद) को। धीरा = धैर्य वाला। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद पारब्रहम् (सब हस्तियों से) बड़ा है। सारे गुणों का मालिक है (उसमें कोई किसी किस्म की कमी नहीं है)। उस गोबिंद को आराध के मेरा मन हौसले वाला बन जाता है (और अनेक किलविखों का मुकाबला करने के काबिल हो जाता है)। रहाउ। अनदिनु जपउ गुरू गुर नाम ॥ ता ते सिधि भए सगल कांम ॥२॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। ता ते = उस (जपने) की इनायत से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि सगल काम = सारे कामों की सफलता।2। अर्थ: (हे भाई!) मैं हर समय गुरु का नाम याद रखता हूँ (गुरु की मेहर से ही गोबिंद का स्मरण प्राप्त होता है और) उस नाम जपने की इनायत से सारे कामों में सफलता हासिल होती है।2। दरसन देखि सीतल मन भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। सीतल मन = ठण्डे मन वाले। किलविख = पाप।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु के द्वारा हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (दर्शन करने वाले) ठण्डे-ठार मन वाले हो जाते हैं, और उनके अनेक (पहले) जन्मों के किए हुए पाप नाश हो जाते हैं।3। कहु नानक कहा भै भाई ॥ अपने सेवक की आपि पैज रखाई ॥४॥११२॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! भाई = हे भाई! भै = डर, खतरे। पैज = इज्जत।4। नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है। अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ के गोबिंद का नाम स्मरण करने से संसार के) सारे डर-खतरे मन से उतर जाते हैं (क्योंकि) नाम जपने की इनायत से ये यकीन बन जाता है कि (गोबिंद) अपने सेवक की स्वयं लज्जा रखता है।4।112। गउड़ी महला ५ ॥ अपने सेवक कउ आपि सहाई ॥ नित प्रतिपारै बाप जैसे माई ॥१॥ पद्अर्थ: कउ = वास्ते। सहाई = मददगार। नित = सदा। प्रतिपारै = पालना करता है, संभाल करता है।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवक के लिए (सदा) मददगार बना रहता है, सदा (अपने सेवक की) संभाल करता है जैसे माता और पिता (अपने बच्चे की संभाल करते हैं)।1। प्रभ की सरनि उबरै सभ कोइ ॥ करन करावन पूरन सचु सोइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उबरै = (डर, खतरों, किलविखों से) बच जाता है। सभ कोइ = हरेक जीव। सचु = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह परमात्मा। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य (जो) परमात्मा की शरण में (आता है, सारे विकारों, डरों, सहिमों से) बच जाता है। उसे निश्चय बन जाता है कि वह सर्व व्यापक सदा कायम रहने वाला परमात्मा सब कुछ करने की स्मर्था रखता है और जीवों से सब कुछ करवाने वाला है। रहाउ। अब मनि बसिआ करनैहारा ॥ भै बिनसे आतम सुख सारा ॥२॥ पद्अर्थ: अब = अब। मनि = मन में। करनैहारा = पैदा करने वाला प्रभु। सारा = संभाला है।2। अर्थ: (हे भाई!) सब कुछ करने की स्मर्था रखने वाला परमात्मा (मेरे) मन में आ बसा है, अब मेरे सारे डर खतरे नाश हो गए हैं और मैं आत्मिक आनंद पा रहा हूँ।2। करि किरपा अपने जन राखे ॥ जनम जनम के किलबिख लाथे ॥३॥ पद्अर्थ: करि = करके। किलविख = पाप।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा कृपा करके अपने सेवकों की स्वयं रक्षा करता है, उनके (पहले के) अनेक जन्मों के (किए) पापों के संस्कार (उनके मन से) उतर जाते हैं।3। कहनु न जाइ प्रभ की वडिआई ॥ नानक दास सदा सरनाई ॥४॥११३॥ पद्अर्थ: कहनु न जाइ = बताई नहीं जा सकती।4। अर्थ: परमात्मा कितनी बड़ी स्मर्था वाला है, ये बात बयान नहीं की जा सकती। हे नानक! परमात्मा के सेवक सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं।4।113। रागु गउड़ी चेती महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम को बलु पूरन भाई ॥ ता ते ब्रिथा न बिआपै काई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। पूरनु = हर जगह मौजूद। भाई = हे भाई! ता ते = उस बल की इनायत से। बिरथा = पीड़ा, दुख-कष्ट। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की ताकत हर जगह (अपना प्रभाव डाल रही है) (इस वास्ते जिस सेवक के सिर पर परमात्मा अपना मेहर का हाथ रखता है) उस ताकत की इनायत से (उस सेवक पे) कोई दुख-कष्ट अपना जोर नहीं डाल सकते।1। रहाउ। जो जो चितवै दासु हरि माई ॥ सो सो करता आपि कराई ॥१॥ पद्अर्थ: दासु हरि = हरि का दास। माई = हे माँ। करता = कर्तार।1। अर्थ: हे (मेरी) माँ! परमात्मा का सेवक जो जो मांग अपने मन में चितवता है, कर्तार स्वयं उसकी वह मांग पूरी कर देता है।1। निंदक की प्रभि पति गवाई ॥ नानक हरि गुण निरभउ गाई ॥२॥११४॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। पति = इज्जत। नानक = हे नानक!।2। अर्थ: हे नानक! (परमात्मा का सेवक) परमात्मा के गुण गाता रहता है (और दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है। (पर सेवक के) दुखदाई-निंदक की इज्जत प्रभु ने लोक-परलोक में खुद गवा दी होती है।2।114। नोट: गउड़ी गुआरेरी के शब्द समाप्त हो चुके हैं, अब यहाँ से गउड़ी चेती के शब्द शुरू होते हैं। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |