श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ भुज बल बीर ब्रहम सुख सागर गरत परत गहि लेहु अंगुरीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भुज = बाँह। बल = ताकत। भुज बल = जिसकी बाँहों में ताकत है, हे बलवान बाँहों वाले! सुख सागर = हे सुखों के समुंदर। गरत = टोआ, गड्ढा। परत = पड़ता, गिरता। गहि लेहु = पकड़ लो। अंगुरीआ = उंगली।1। रहाउ।

अर्थ: हे बली बाहों वाले शूरवीर प्रभु! हे सुखों के समुंदर पारब्रहम्! (संसार समुंदर के विकारों के) गड्ढे में गिरते हुए की (मेरी) उंगली पकड़ ले।1। रहाउ।

स्रवनि न सुरति नैन सुंदर नही आरत दुआरि रटत पिंगुरीआ ॥१॥

पद्अर्थ: स्रवनि = श्रवण में, कान में। सुरति = सुनने की स्मर्था। आरत = दुखीया। दुआरि = (तेरे) दर पर। रटत = पुकारता। पिंगुरीआ = पिंगुला, पैर विहीन।1।

अर्थ: (हे प्रभु! मेरे) कानों में (तेरी महिमा) सुनने (की सूझ) नहीं, मेरी आँखें (इतनी) सुंदर नहीं (कि हर जगह तेरा दीदार कर सकें), मैं तेरी साधु-संगत में जाने के लायक भी नहीं हूँ, मैं पिंगला हो चुका हूँ और दुखी हो के तेरे दर पर पुकार करता हूँ (मुझे विकारों के गड्ढे में से बचा ले)।1।

दीना नाथ अनाथ करुणा मै साजन मीत पिता महतरीआ ॥ चरन कवल हिरदै गहि नानक भै सागर संत पारि उतरीआ ॥२॥२॥११५॥

पद्अर्थ: दीना नाथ = हे गरीबों के पति!। करुणा मै = (करुणा+मय) तरस रूप, तरस भरपूर। महतरीआ = माँ। चरन कवल = कमल फूलों जैसे चरण। गहि = पकड़ के।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गरीबों के पति! हे यतीमों पर तरस करने वाले! हे सज्जन! हे मित्र प्रभु! हे मेरे पिता! हे मेरी माँ प्रभु! तेरे संत तेरे सुंदर चरण अपने हृदय में रख कर संसार समुंदर से पार लांघते हैं, (मेहर कर, मुझे भी अपने चरणों का प्यार बख्श और मुझे भी पार लंधा ले)।2।2।115।

नोट: पहिला अंक 2 शब्द के बंदों की गिनती बताता है। दूसरा अंक 2 बताता है कि ‘गउड़ी चेती’ का ये दूसरा शब्द है।

रागु गउड़ी बैरागणि महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दय गुसाई मीतुला तूं संगि हमारै बासु जीउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दय = हे तर करने वाले! (दय = to feel pity)। मीतुला = प्यारा मित्र। बासु = वश।1। रहाउ।

अर्थ: हे तरस करने वाले! हे सृष्टि के पति! तू मेरा प्यारा मित्र है, सदा मेरे साथ बसता रह।1। रहाउ।

तुझ बिनु घरी न जीवना ध्रिगु रहणा संसारि ॥ जीअ प्राण सुखदातिआ निमख निमख बलिहारि जी ॥१॥

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। जीअ दातिआ = हे जिंद के देने वाले! निमख = आँख झपकने जितना समय (निर्मष)। बलिहार = मैं सदके जाता हूँ।1।

अर्थ: हे जिंद देने वाले! हे प्राण देने वाले! हे सुख देने वाले प्रभु! मैं तुझसे निमख निमख कुर्बान जाता हूँ। तेरे बिना एक घड़ी भर भी आत्मिक जीवन नहीं हो सकता और (आत्मिक जीवन के बिना) संसार में रहना धिक्कार-योग्य है।1।

हसत अल्मबनु देहु प्रभ गरतहु उधरु गोपाल ॥ मोहि निरगुन मति थोरीआ तूं सद ही दीन दइआल ॥२॥

पद्अर्थ: अलंबनु = आसरा। हसत अलंबनु = हाथ का सहारा। प्रभ = हे प्रभु! गरतहु = गड्ढे से। उधरु = निकाल ले। मोहि = मेरी। सद ही = सदा ही।2।

अर्थ: हे प्रभु! मुझे अपने हाथ का सहारा दे। हे गोपाल! मुझे (विकारों के) गड्ढों में से निकाल ले। मैं गुण हीन हूँ, मेरी मति होछी है। तू सदा ही गरीबों पर दया करने वाला है।2।

किआ सुख तेरे समला कवन बिधी बीचार ॥ सरणि समाई दास हित ऊचे अगम अपार ॥३॥

पद्अर्थ: संमला = संमलां, मैं याद करूँ। कवन बिधी = किस किस तरीके से? सरणि समाई = हे शरण आए की समाई करने वाले! दास हित = हे दासों के हितैषी! 3।

अर्थ: हे ऊँचे! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत प्रभु! हे शरण आए की सहायता करने वाले प्रभु! हे अपने सेवकों के हितैषी प्रभु! मैं तेरे (दिए हुए) कौन कौन से सुख याद करूँ? मैं किस किस तरीकों से (तेरे बख्शे हुए सुखों की) विचार करूँ? (मैं तेरे दिए हुए बेअंत सुख गिन नहीं सकता)।3।

सगल पदारथ असट सिधि नाम महा रस माहि ॥ सुप्रसंन भए केसवा से जन हरि गुण गाहि ॥४॥

पद्अर्थ: असटि सिधि = आठ सिद्धियां। केसवा = (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाला प्रभु! गाहि = गाते हैं।4।

अर्थ: हे भाई! दुनिया के सारे पदार्थ (योगियों की) आठों सिद्धियां सब से श्रेष्ठ राम-नाम-रस में मौजूद है। (हे भाई!) जिनपे सुंदर लंबे बालों वाला प्रभु प्रसन्न होता है, वे लोग प्रभु के गुण गाते रहते हैं।4।

मात पिता सुत बंधपो तूं मेरे प्राण अधार ॥ साधसंगि नानकु भजै बिखु तरिआ संसारु ॥५॥१॥११६॥

पद्अर्थ: बंधपो = बंधप, रिश्तेदार। अधार = आसरा। नानक भजै = नानक स्मरण करता है। बिखु = जहिर।5।1।116।

अर्थ: (हे दय! हे गुसांई!) हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभु! माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार (सब कुछ मेरा) तू ही है। (तेरा दास) नानक (तेरी) साधु-संगत में (तेरी मेहर से) तेरा भजन करता है। (जो मनुष्य तेरा भजन करता है वह विकारों के) जहिर भरे संसार से (सही सलामत आत्मिक जीवन ले के) पार लांघ जाता है।5।1।116।

नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शब्द है।


गउड़ी बैरागणि रहोए के छंत के घरि मः ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

है कोई राम पिआरो गावै ॥ सरब कलिआण सूख सचु पावै ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रहोआ = एक किस्म की धरणा का पंजाबी गीत जो लंबी तान ले के गाया जाता है। इसे विशेष तौर पर औरतें व्याह के समय गाती है। लंबी तान के इलावा टेक वाली पंक्ति भी बार-बार गाई जाती है। घरि = घर मे। रहोए के छंत के घरि = (इस शब्द को उस ‘घर’ में गाना है) जिस घर में लंबी तान वाला बिआह का गीत गाया जाता है। सरब = सारे। कलिआण = सुख। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु!। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) कोई विरला भाग्यशाली मनुष्य प्यारे के गुण गाता है, वह सारे सुख प्राप्त कर लेता है, सच्चे आनंद लेता है, सदा स्थिर परमात्मा को मिल पड़ता है। रहाउ।

बनु बनु खोजत फिरत बैरागी ॥ बिरले काहू एक लिव लागी ॥ जिनि हरि पाइआ से वडभागी ॥१॥

पद्अर्थ: बनु बनु = जंगल जंगल। बैरागी = विरक्त। एक लिव = एक प्रभु की लगन। जिनि = जिस ने।1।

नोट: शब्द ‘जिनि’ एकवचन है। इसके साथ बरता गया ‘से’ बहुवचन है। सो, इसका अर्थ करना है: जिस ने जिस ने, जिस जिस ने।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा को मिलने के लिए जो) कोई मनुष्य गृहस्थ से उपराम हो के जंगल-जंगल ढूँढता फिरता है (तो इस तरह परमात्मा नहीं मिलता)। किसी विरले मनुष्य की एक परमात्मा के साथ लगन लगती है। जिस जिस मनुष्य ने प्रभु को ढूँढ लिया है, वे सभी बड़े भाग्यशाली हैं।1।

ब्रहमादिक सनकादिक चाहै ॥ जोगी जती सिध हरि आहै ॥ जिसहि परापति सो हरि गुण गाहै ॥२॥

पद्अर्थ: ब्रहमादिक = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व अन्या देवते। सनकादिक = सनक आदि, सनक व उसके अन्य भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार। आहै = तमन्ना रखता है। गाहै = गाहता है, डुबकी लगाता है।2।

अर्थ: (हे भाई!) ब्रहमा व अन्य बड़े-बड़े देवतागण, सनक व उसके भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार - इनमें से हरेक प्रभु मिलाप चाहता है। जोगी-जती-सिध - हरेक परमात्मा को मिलने की चाहत रखता है। (पर जिसको धुर से) ये दाति मिली है, वही प्रभु के गुण गाता है।2।

ता की सरणि जिन बिसरत नाही ॥ वडभागी हरि संत मिलाही ॥ जनम मरण तिह मूले नाही ॥३॥

पद्अर्थ: जिन = जिन्हें। ता की = उनकी। मिलाही = मिलते हैं। तिह = उन्हें। मूले = बिल्कुल।3।

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) उनकी शरण पड़ें, जिन्हें परमात्मा कभी नहीं भूलता। परमात्मा के संतों को कोई बड़े भाग्यशाली ही मिल सकते हैं। उन संतों को जनम नरण के चक्कर नहीं व्यापते।3।

करि किरपा मिलु प्रीतम पिआरे ॥ बिनउ सुनहु प्रभ ऊच अपारे ॥ नानकु मांगतु नामु अधारे ॥४॥१॥११७॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! बिनउ = विनती (विनय)। मांगतु = मांगता है।4।

अर्थ: हे प्यारे प्रीतम प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर तथा (मुझे) मिल। हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभु! (मेरी ये) विनती सुन। (तेरा दास) नानक (तुझसे तेरा) नाम (ही जिंदगी का) आसरा मांगता है।4।1।117।

नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शब्द है। अंक1 यही दर्शाता है। इससे आगे ‘गउड़ी पूरबी’ के शब्द आरम्भ होते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh