श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 217 भए क्रिपाल सुआमी मेरे जीउ ॥ पतित पवित लगि गुर के पैरे जीउ ॥ भ्रमु भउ काटि कीए निरवैरे जीउ ॥ गुर मन की आस पूराई जीउ ॥४॥ पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। लगि = लग के। भ्रमु = भटकना। काटि = काट के। कीए = कर दिए, बना दिए। गुर = हे गुरु! पूराई = पूरी की है।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों पे मेरे स्वामी प्रभु जी दयावान होते हैं, वे मनुष्य गुरु के चरणों में लग के (पहले विकारों में) गिरे हुए (होने के बावजूद भी) स्वच्छ आचरण वाले बन जाते हैं। गुरु (उनके अंदर से माया की) भटकना दूर करके (हरेक किस्म का मलीन) डर दूर कर के उन मनुष्यों को निर्वेर बना देता है। हे गुरु! तूने ही मेरे मन की भी (स्मरण की) आस पूरी की है।4। जिनि नाउ पाइआ सो धनवंता जीउ ॥ जिनि प्रभु धिआइआ सु सोभावंता जीउ ॥ जिसु साधू संगति तिसु सभ सुकरणी जीउ ॥ जन नानक सहजि समाई जीउ ॥५॥१॥१६६॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जिसु = जिस को। तिसु = उस की। सभ = सारी। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।5। अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम धन ढूँढ लिया, वह धनाढ बन गया। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया वह (लोक परलोक में) शोभा वाला हो गया। जिस मनुष्य को गुरु की संगति मिल गई, उसकी सारी करनी श्रेष्ठ बन गई। उस मनुष्य को आत्मिक अडोलता में लीनता प्राप्त हो गई।5।1।166। गउड़ी महला ५ माझ ॥ आउ हमारै राम पिआरे जीउ ॥ रैणि दिनसु सासि सासि चितारे जीउ ॥ संत देउ संदेसा पै चरणारे जीउ ॥ तुधु बिनु कितु बिधि तरीऐ जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय घर में। रैणि = रात। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। चितारे = मैं तुझे याद करता हूँ। संत देउ = मैं संतों को देता हूँ। संदेसा = संदेश। पै = पड़ कर।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे राम जी! मेरे हृदय घर में आ बस। मैं रात दिन हरेक सांस के साथ तुझे याद करता हूँ। (तेरे) संत जनों के चरणों में पड़ कर मैं (तेरे को) संदेश भेजता हूँ (कि, हे मेरे प्यारे राम जी!) मैं तेरे बगैर किसी तरह भी (इस संसार समुंदर को) पार नहीं लांघ सकता।1। संगि तुमारै मै करे अनंदा जीउ ॥ वणि तिणि त्रिभवणि सुख परमानंदा जीउ ॥ सेज सुहावी इहु मनु बिगसंदा जीउ ॥ पेखि दरसनु इहु सुखु लहीऐ जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: संगि तुमारै = तेरी संगति में। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। वणि त्रिणि = सारी बनस्पति में। त्रिभवहण = तीनों भवनों वाले संसार में। सेज = हृदय सेज। बिगसंदा = खिला हुआ। लहीऐ = मिलता है।2। अर्थ: (हे मेरे प्यारे राम जी!) तेरी संगति में रह के मैं आनंद लेता हूँ। सारी बनस्पति में और तीन भवनों वाले संसार में (तुझे देख के) मैं परम सुख परम आनंद (अनुभव करता हूँ)। मेरे हृदय की सेज सुंदर बन गई है, मेरा ये मन खिल गया है। (हे मेरे प्यारे राम जी!) तेरा दर्शन करके ये (आत्मिक) सुख मिलता है।2। चरण पखारि करी नित सेवा जीउ ॥ पूजा अरचा बंदन देवा जीउ ॥ दासनि दासु नामु जपि लेवा जीउ ॥ बिनउ ठाकुर पहि कहीऐ जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: पखारि = धो के। करी = करूँ। अरचा = अर्चना, फूलों की भेट। बिनउ = विनती। कहीऐ = (हे संत जनो!) कह देनी।3। अर्थ: (हे मेरे प्यारे राम जी! तेरे संत जनों के पास मैं विनती करता हूँ कि) मालिक प्रभु के पास मेरी ये विनती कहना- (हे मेरे राम जी! मेहर कर, मैं तेरे संत जनों के) चरण धो के उनकी सदा सेवा करता रहूँ- यही मेरे वास्ते देव-पूजा है, यही मेरे लिए देवताओं के लिए फूल भेट है और यही देवताओं के आगे नमस्कार है।3। इछ पुंनी मेरी मनु तनु हरिआ जीउ ॥ दरसन पेखत सभ दुख परहरिआ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपे जपि तरिआ जीउ ॥ इहु अजरु नानक सुखु सहीऐ जीउ ॥४॥२॥१६७॥ पद्अर्थ: इछ = चाह। पुंनी = पूरी हो गई है। परहरिआ = दूर हो गया है। जपै जपि = जप जप के। अजरु = जरा रहित, जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता, कम ना होने वाला।4। अर्थ: (हे भाई! प्यारे राम की किरपा से) मेरी (उससे मिलाप की) अभिलाषा पूरी हो गई है, मेरा मन आत्मिक जीवन वाला हो गया है, मेरा शरीर (भाव, हरेक ज्ञानेंद्रिय) हरा हो गया है, (प्यारे राम का) दर्शन करके मेरा सारा दुख दूर हो गया है, प्यारे राम जी का नाम जप जप के मैंने (संसार-समुंदर को) पार कर लिया है। हे नानक! (उस प्यारे राम जी का दर्शन करने से) ये एक ऐसा सुख पा लेते हैं जो कभी कम होने वाला नहीं है।4।2।167। गउड़ी माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि साजन मन मित पिआरे जीउ ॥ मनु तनु तेरा इहु जीउ भि वारे जीउ ॥ विसरु नाही प्रभ प्राण अधारे जीउ ॥ सदा तेरी सरणाई जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन हरि! मन मित = हे मेरे मन के मित्र हरि! जीउ भि = जिंद भी। वारे = सदके। प्राण अधारे = हे मेरी जिंद के आसरे!।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! हे मेरे मन के मित्र प्रभु! हे मेरी जिंद के आसरे प्रभु! (मेरी विनती) ध्यान से सुन। (मेरा ये) मन तेरा दिया हुआ है, मेरी ये जीवात्मा भी तेरी ही दी हुई है। मैं (ये सब कुछ तुझ पर से) कुर्बान करता हूँ। मुझे भूलना नहीं, मैं सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ।1। जिसु मिलिऐ मनु जीवै भाई जीउ ॥ गुर परसादी सो हरि हरि पाई जीउ ॥ सभ किछु प्रभ का प्रभ कीआ जाई जीउ ॥ प्रभ कउ सद बलि जाई जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: मनु जीवै = मन जीअ पड़ता है, आत्मिक जीवन मिल जाता है। भाई = हे भाई! परसादी = कृपा से। पाई = पैरों में, मैं पड़ता हूँ, मैं प्राप्त करता हूँ। कीआ = की। जाई = सारी जगहें। कउ = को से। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ।2। अर्थ: हे भाई! जिस हरि प्रभु को मिलने से आत्मिक जीवन प्राप्त हो जाता है, वह हरि प्रभु गुरु की किरपा से ही मिल सकता है। (हे भाई! मेरा मन तन) सब कुछ प्रभु का ही दिया हुआ है, (जगत की) सभी जगहें प्रभु की ही हैं। मैं सदा उस प्रभु से ही सदके जाता हूँ।2। एहु निधानु जपै वडभागी जीउ ॥ नाम निरंजन एक लिव लागी जीउ ॥ गुरु पूरा पाइआ सभु दुखु मिटाइआ जीउ ॥ आठ पहर गुण गाइआ जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। लिव = लगन।3। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का) ये (नाम सारे पदार्थों का) खजाना (है, कोई) भाग्यशाली मनुष्य ही ये नाम जपता है। पवित्र स्वरूप प्रभु के नाम से (उस भाग्यशाली मनुष्य की लगन लग जाती है, जिस भाग्यशाली मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है, वह हरेक किस्म का दुख दूर कर लेता है, वह आठों पहर परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है।3। रतन पदारथ हरि नामु तुमारा जीउ ॥ तूं सचा साहु भगतु वणजारा जीउ ॥ हरि धनु रासि सचु वापारा जीउ ॥ जन नानक सद बलिहारा जीउ ॥४॥३॥१६८॥ पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। साहु = शाहूकार। वणजारा = व्यापारी। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सचु = सदा टिके रहने वाला।4। अर्थ: (हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! हे हरि! तेरा नाम कीमती पदार्थों का श्रोत) है। हे हरि! तू सदा कायम रहने वाला (उन रत्न पदार्थों का) शाहूकार है, तेरा भक्त उन रत्न पदार्थों का व्यापार करने वाला है। हे हरि! तेरा नाम-धन (तेरे भक्तों की) संपत्ति है, तेरा भक्त यही सदा स्थिर रहने वाला वणज करता है। हे दास नानक! (कह: हे हरि!) मैं (तुझसे और तेरे भक्त से) सदा कुर्बान जाता हूँ।4।3।168। रागु गउड़ी माझ२ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तूं मेरा बहु माणु करते तूं मेरा बहु माणु ॥ जोरि तुमारै सुखि वसा सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! माणु = फखर, गर्व। जोरि तुमारै = तेरी ताकत के आसरे। सुखि = सुख से। वसा = बसूँ, मैं बसता हूँ। नीसाणु = परवाना, राहदारी।1। रहाउ। अर्थ: हे कर्तार! तू मेरे वास्ते गर्व वाली जगह है, तू मेरा मान है। हे कर्तार! तेरे बल पर मैं सुखी बसता हूँ, तेरी सदा स्थिर महिमा की वाणी (मेरे जीवन सफर में मेरे वास्ते) राहदारी है।1। रहाउ। सभे गला जातीआ सुणि कै चुप कीआ ॥ कद ही सुरति न लधीआ माइआ मोहड़िआ ॥१॥ पद्अर्थ: सभे = सारी। जातीआ = मैंने समझीं। चुप कीआ = लापरवाह हुआ रहा। सुरति = सूझ।1। अर्थ: हे कर्तार! माया में मोहित जीव पदार्थों की सारी बातें सुन के समझता भी है, फिर भी परवाह नहीं करता, और कभी भी (परमार्थ की तरफ) ध्यान नहीं देता।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |