श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देइ बुझारत सारता से अखी डिठड़िआ ॥ कोई जि मूरखु लोभीआ मूलि न सुणी कहिआ ॥२॥

पद्अर्थ: देइ = देता है। सारता = इशारा। अखी = आँखों से। मूलि न = बिल्कुल नहीं। कहिआ = कहा हुआ।2।

अर्थ: अगर कोई गुरमुखि कोई इशारा अथवा संकेत देता भी है (कि यहां सदा स्थिर नहीं रहना, फिर) ये बातें आँखों से भी देख लेते हैं (कि सब चले जा रहे हैं) पर जीव ऐसा कोई मूर्ख लोभी है कि (ऐसी) कही हुई बात बिल्कुल नहीं सुनता।2।

इकसु दुहु चहु किआ गणी सभ इकतु सादि मुठी ॥ इकु अधु नाइ रसीअड़ा का विरली जाइ वुठी ॥३॥

पद्अर्थ: किआ गणी = मैं क्या गिनूँ? मैं क्या बताऊूं। इकतु = एक में। सादि = स्वाद में। इकतु सादि = एक ही स्वाद में। मुठी = ठगी जा रही है। इकु अधु = कोई एक-आध, कोई विरला। नाइ = नाम में। रसीअड़ा = रस लेने वाला। जाइ = जगह। वुठी = कृपा करके दी हुई।3।

अर्थ: (हे भाई!) मैं किसी एक की, दो या चार की क्या बात बताऊँ? सारी ही सृष्टि एक ही स्वाद में ठगी जा रही है। कोई विरला मनुष्य परमातमा के नाम में रस लेने वाला है, कोई एक-आध हृदय-स्थल ही कृपा पात्र मिलता है।3।

भगत सचे दरि सोहदे अनद करहि दिन राति ॥ रंगि रते परमेसरै जन नानक तिन बलि जात ॥४॥१॥१६९॥

पद्अर्थ: सचे दरि = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। रंगि = रंग में, प्रेम रंग में। तिन = उनसे।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पाते हैं, और दिन रात आत्मिक आनंद का लुत्फ लेते हैं। हे दास नानक! (कह: जो मनुष्य) परमेश्वर के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ।4।1।169।

गउड़ी महला ५ मांझ ॥ दुख भंजनु तेरा नामु जी दुख भंजनु तेरा नामु ॥ आठ पहर आराधीऐ पूरन सतिगुर गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला। जी = हे जी! गिआनु = प्रभु से सांझ पाने वाला उपदेश।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है, तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है। (हे भाई!) ये नाम आठों पहर स्मरणा चाहिए- पूरे सतिगुरु का यही उपदेश है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है।1। रहाउ।

जितु घटि वसै पारब्रहमु सोई सुहावा थाउ ॥ जम कंकरु नेड़ि न आवई रसना हरि गुण गाउ ॥१॥

पद्अर्थ: जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में (जिसु घटि = जिस मनुष्य के दिल में)। जम कंकरु = जम का दास, जम दूत। नेड़ि = नजदीक। रसना = जीभ (से)।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, वही हृदय-स्थल सुंदर बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाता है, जमदूत उसके पास नहीं फटकता (उसे मौत का डर नहीं छू सकता)।1।

सेवा सुरति न जाणीआ ना जापै आराधि ॥ ओट तेरी जगजीवना मेरे ठाकुर अगम अगाधि ॥२॥

पद्अर्थ: सुरति = सूझ। ना जापै आराधि = मुझे तेरी अराधना नहीं सूझती। जग जीवना = हे जगत की जिंदगी के (आसरे)! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगाधि = हे अथाह!।2।

अर्थ: हे जगत की जिंदगी के आसरे! हे मेरे पालनहार मालिक! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! मैंने (अब तक) तेरी सेवा-भक्ति की सूझ की कद्र ना जानी, मुझे तेरे नाम की आराधना करनी नहीं सूझी, (पर अब) मैंने तेरा आसरा लिया है।2।

भए क्रिपाल गुसाईआ नठे सोग संताप ॥ तती वाउ न लगई सतिगुरि रखे आपि ॥३॥

पद्अर्थ: गुसाईआ = सृष्टि के मालिक। सतिगुरि = सत्गुरू ने।3।

अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के मालिक प्रभु जिस मनुष्य पर मेहरवान होते हैं, उसके सारे फिक्र और कष्ट मिट जाते हैं। जिस मनुष्य की गुरु ने स्वयं रक्षा की, उसे (सोग-संताप आदि का) सेक नहीं लगता।3।

गुरु नाराइणु दयु गुरु गुरु सचा सिरजणहारु ॥ गुरि तुठै सभ किछु पाइआ जन नानक सद बलिहार ॥४॥२॥१७०॥

पद्अर्थ: दयु = प्यार करने वाला प्रभु। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गुरि तुठै = अगर गुरु मेहरबान हो जाए। गुरि = गुरु के द्वारा। तूठै = मेहरबान हो के।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु नारायण का रूप है, गुरु सब पर दया करने वाले प्रभु का स्वरूप है। गुरु उस कर्तार का रूप है जो सदा कायम रहने वाला है। अगर गुरु प्रसन्न हो जाए तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है।

हे दास नानक! (कह:) मैं गुरु से सदके हूँ।4।2।170।

गउड़ी माझ महला ५ ॥ हरि राम राम राम रामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपि = जप के। कामा = सारे काम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम जप के सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

राम गोबिंद जपेदिआ होआ मुखु पवित्रु ॥ हरि जसु सुणीऐ जिस ते सोई भाई मित्रु ॥१॥

पद्अर्थ: हरि जसु = हरि की महिमा। जिस ते = जिस तरफ से।1।

नोट: ‘जिस ते’ में शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।

अर्थ: (हे भाई!) राम राम गोबिंद गोबिंद जपते हुए मुंह पवित्र हो जाता है। (दुनिया में) वही मनुष्य (असल) भाई है, (असल) मित्र है, जिससे परमात्मा की महिमा सुनी जाए।1।

सभि पदारथ सभि फला सरब गुणा जिसु माहि ॥ किउ गोबिंदु मनहु विसारीऐ जिसु सिमरत दुख जाहि ॥२॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। जिसु माहि = जिस (परमात्मा के वश) में। मनहु = मन से।2।

अर्थ: (हे भाई!) उस गोबिंद को अपने मन से कभी भुलाना नहीं चाहिए, जिसका स्मरण करने से सारे दुख दूर हो जाते हैं, और जिसके वश में (दुनिया के) सारे पदार्थ, सारे फल और सारे आत्मिक गुण हैं।2।

जिसु लड़ि लगिऐ जीवीऐ भवजलु पईऐ पारि ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ मुख ऊजल दरबारि ॥३॥

पद्अर्थ: जिसु लड़ि = जिस (प्रभु) के पल्ले में। लगिऐ = लगने से। जीवीऐ = जी जाते हैं, आत्मिक जीवन मिल जाता है। भवजलु = संसार समुंदर। साधू संगि = गुरु की संगति में। उधारु = (विकारों से) बचाव। दरबारि = (प्रभु के) दरबार में।3।

अर्थ: (हे भाई! उस गोबिंद को अपने मन से कभी भी भुलाना नहीं चाहिए) जिसका आसरा लेने से आत्मिक जीवन मिल जाता है, संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं। गुरु की संगति में मिल के (जिसका स्मरण करने से विकारों से) बचाव हो जाता है और प्रभु की हजूरी में सही स्वीकार हो जाते हैं।3।

जीवन रूप गोपाल जसु संत जना की रासि ॥ नानक उबरे नामु जपि दरि सचै साबासि ॥४॥३॥१७१॥

पद्अर्थ: जसु = महिमा। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। दरि सचै = सदा सिथर प्रभु के दर पे।4।

अर्थ: हे नानक! गोपाल प्रभु की महिमा आत्मिक जीवन देने वाली है, प्रभु की महिमा संत जनों के वास्ते राशि (संपत्ति, धन-दौलत) है। प्रभु का नाम जप के (संत जन विकारों से) बच निकलते हैं, और सदा स्थिर प्रभु के दर पर से शाबाश हासिल करते हैं।4।3।171।

गउड़ी माझ महला ५ ॥ मीठे हरि गुण गाउ जिंदू तूं मीठे हरि गुण गाउ ॥ सचे सेती रतिआ मिलिआ निथावे थाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिंदू = हे जिंदे! सेती = साथ।1। रहाउ।

नोट: ‘जिंदू’ मैन शब्द ‘जिंदु’ उकरांत है व स्त्रीलिंग है। संबोधन में या संबंधक के साथ इसकी ‘ु’ की मात्रा दीर्घ हो जाती है और ‘ू’ लग जाती है। इसी तरह शब्द ‘खाकु’ से ‘खाकू’।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! तू हरि के प्यारे लगने वाले गुण गाती रहा कर। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ रंगे रहने से उस मनुष्य को भी (हर जगह) आदर मिल जाता है, जिसे पहले कोई जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।

होरि साद सभि फिकिआ तनु मनु फिका होइ ॥ विणु परमेसर जो करे फिटु सु जीवणु सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: साद = स्वाद। सभि = सारे। फिटु = फिटकार के लायक।1।

नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

अर्थ: (हे मेरी जिंदे! हरि के मीठे गुणों के मुकाबले दुनिया के) सारे स्वाद फीके हैं। (इन स्वादों में पड़ने से) शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रिय) फीकी (रूखी) हो जाती है, मन खुश्क हो जाता है। परमेश्वर का नाम जपने से वंचित होकर मनुष्य जो कुछ भी करता है, उससे जिंदगी धिक्कारयोग्य हो जाती है।1।

अंचलु गहि कै साध का तरणा इहु संसारु ॥ पारब्रहमु आराधीऐ उधरै सभ परवारु ॥२॥

पद्अर्थ: अंचलु = पल्ला। गहि कै = पकड़ के। साध = गुरु। उधरै = बच जाता है।2।

अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) गुरु का पल्ला पकड़ के इस संसार (-समुंदर) से पार लांघ सकते हैं। (हे जिंदे!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। (जो मनुष्य आराधना करता है, उसका) सारा परिवार (संसार समुंदर के विकारों की लहरों में से) बच निकलता है।2।

साजनु बंधु सुमित्रु सो हरि नामु हिरदै देइ ॥ अउगण सभि मिटाइ कै परउपकारु करेइ ॥३॥

पद्अर्थ: हिरदै = दिल में (बसाने के लिए)। देइ = देता है।3।

अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) जो गुरमुख परमात्मा का नाम हृदय में (बसाने के लिए) देता है, वही असल सज्जन है, वही असल संबंधी है, वही असली मित्र है, (क्योंकि वह हमारे अंदर से) सारे अवगुण दूर करके (हमारी) भलाई करता है।3।

मालु खजाना थेहु घरु हरि के चरण निधान ॥ नानकु जाचकु दरि तेरै प्रभ तुधनो मंगै दानु ॥४॥४॥१७२॥

पद्अर्थ: थेहु = गाँव, आबादी। निधान = खजाने। जाचकु = भिखारी। दरि = दर पे। प्रभ = हे प्रभु! तुध नो = तुझे, तेरे नाम को।4।

अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) परमात्मा के चरण ही (सारे पदार्थों के) खजाने हैं (जीव के साथ निभने वाला) माल है, खजाना है (जीव के वास्ते असली) बसेरा व घर है।

हे प्रभु! (तेरे दर का) भिखारी नानक तेरे दर पर तेरे नाम-दान के तौर पर मांगता है।4।4।172।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh