श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ रे मन बिनु हरि जह रचहु तह तह बंधन पाहि ॥ जिह बिधि कतहू न छूटीऐ साकत तेऊ कमाहि ॥ हउ हउ करते करम रत ता को भारु अफार ॥ प्रीति नही जउ नाम सिउ तउ एऊ करम बिकार ॥ बाधे जम की जेवरी मीठी माइआ रंग ॥ भ्रम के मोहे नह बुझहि सो प्रभु सदहू संग ॥ लेखै गणत न छूटीऐ काची भीति न सुधि ॥ जिसहि बुझाए नानका तिह गुरमुखि निरमल बुधि ॥९॥

पउड़ी: साकत = प्रभु से विछुड़े जीव। करम रत = पुन्न कर्मों के प्रेमी, कर्म काण्डी। अफार = ना बर्दाश्त किए जा सकने वाला, बहुत। भीति = दीवार। सुधि = सफाई, शुद्धि, पवित्रता।9।

अर्थ: पउड़ी: हे मेरे मन! प्रभु के बिना और जहां जहां प्रेम डालेगा, वहां वहां माया के बंधन पड़ेंगे। हरि से विछुड़े लोग वही काम करते हैं कि उस तरीके से कहीं भी इन बंधनों से खलासी ना हो सके।

(तीर्थ, दान अदिक) कर्मों के प्रेमी (ये कर्म करके, इनके किए का) गुमान करते फिरते हैं, इस अहंकार का भार भी असहि होता है। अगर प्रभु के नाम से प्यार नहीं बना, तो ये कर्म विकार रूप हो जाते हैं।

मीठी माया के चमत्कारों में (फंस के जीव) जम की फासी में बंध जाते हैं। भटकनों में फंसे हुओं को ये समझ नही आती कि प्रभु सदा हमारे साथ है।

(हम जीव इतने माया-ग्रसे हुए हैं कि हमारे किए कुकर्मों का) लेखा करने से हम बरी नहीं हो सकते, (पानी से धोने पर) गारे की दीवार की सफाई नहीं हो सकती (और-और गारा बनता जाएगा)।

हे नानक! (कह:) प्रभु जिस मनुष्य को सूझ बख्शता है, गुरु की शरण पड़ कर उसकी बुद्धि पवित्र हो जाती है।9।

सलोकु ॥ टूटे बंधन जासु के होआ साधू संगु ॥ जो राते रंग एक कै नानक गूड़ा रंगु ॥१॥

पद्अर्थ: जासु के = जिस मनुष्य के। गूढ़ा रंग = पक्का (मजीठी) रंग (कुसंभ वाला कच्चा नहीं)।1।

अर्थ: जिस मनुष्य के माया के बंधन टूटने पर आते हैं, उसे गुरु की संगति प्राप्त होती है। हे नानक! (गुरु की संगति में रह के) जो एक प्रभु के प्यार रंग में रंगे जाते हैं, वह रंग ऐसा गाढ़ा होता है (कि मजीठ के रंग की तरह कभी उतरता नहीं)।1।

पउड़ी ॥ रारा रंगहु इआ मनु अपना ॥ हरि हरि नामु जपहु जपु रसना ॥ रे रे दरगह कहै न कोऊ ॥ आउ बैठु आदरु सुभ देऊ ॥ उआ महली पावहि तू बासा ॥ जनम मरन नह होइ बिनासा ॥ मसतकि करमु लिखिओ धुरि जा कै ॥ हरि स्मपै नानक घरि ता कै ॥१०॥

पउड़ी: रसना = जीभ (से)। रे रे = ओए! ओए! (भाव, अनादरी के वचन, दुरकारने के बोल)। सुभ = अच्छा। मसतकि = माथे पर। करमु = प्रभु की बख्शिश। संपै = धन-पदार्थ।10

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जीभ से सदा हरि के नाम का जाप जपो, (इस तरह) अपने इस मन को (प्रभु के नाम रंग में) रंगो! प्रभु की हजूरी में तुम्हें कोई अनादरी के बोल नहीं बोलेगा, (बल्कि) बढ़िया आदर-सत्कार मिलेगा, (कहेंगे) -आओ बैठो!

(हे भाई!) अगर तू नाम में मन रंग ले तो तुझे प्रभु की हजूरी में ठिकाना मिल जाएगा, ना जनम मरन का चक्कर रह जाएगा, और ना ही कभी आत्मिक मौत होगी।

पर हे नानक! धुर से ही जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु की मेहर का लेख लिखा (उघड़ता) है, उसके ही हृदय-घर में ये नाम-धन इकट्ठा होता है।10।

सलोकु ॥ लालच झूठ बिकार मोह बिआपत मूड़े अंध ॥ लागि परे दुरगंध सिउ नानक माइआ बंध ॥१॥

पद्अर्थ: बिआपत = जोर डाल लेते हैं। अंध = सूझ-हीन, जिनके ज्ञान नेत्र बंद हैं। दुरगंध = गंदगी, बुरे काम। बंध = बंधन।1।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य माया के मोह के बंधनों में फंस जाते हैं, उन ज्ञान-हीन मूर्खों पर लालच झूठ विकार मोह आदि जोर डाल लेते हैं, और वह बुरे काम में लगे रहते हैं।1।

पउड़ी ॥ लला लपटि बिखै रस राते ॥ अह्मबुधि माइआ मद माते ॥ इआ माइआ महि जनमहि मरना ॥ जिउ जिउ हुकमु तिवै तिउ करना ॥ कोऊ ऊन न कोऊ पूरा ॥ कोऊ सुघरु न कोऊ मूरा ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक ठाकुर सदा अलिपना ॥११॥

पउड़ी: लपटि = चिपके हुए। बिखै रस = विषियों के स्वाद। अहंबुधि = ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि। मद = नशा। माते = मस्त। ऊन = वंचित, सखणा, ऊणा, कम। सुघरु = समझदार। मूरा = मूढ़, मूर्ख। अलिपना = अलेप, माया के प्रभाव से परे।11।

अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य माया के नशे में मस्त रहते हैं, जिनकी बुद्धि पर अहंकार का पर्दा पड़ जाता है, वे मनुष्य विषियों के स्वादों से चिपके रहते हैं, और इस माया में फंस के जनम मरन (के चक्कर में पड़ जाते हैं), (पर जीव के भी क्या वश?) जैसे जैसे प्रभु की रजा होती है, वैसे वैसे ही जीव कर्म करते हैं। (अपनी चतुराई से) ना कोई जीव पूर्ण बन सकता है, ना कोई कमजोर रह सकता है, ना कोई (अपने बूते पर) समझदार हो गया है, ना कोई मूर्ख रह गया है।

हे प्रभु! जिस जिस तरफ तू जीवों को प्रेरता है, उधर उधर ही ये लग पड़ते हैं।

हे नानक! (कैसी आश्चर्यजनक खेल है! सब जीवों में बैठ के पालणहार प्रभु प्रेरना कर रहा है, फिर भी) प्रभु खुद स्वयं माया के प्रभाव से परे है।11।

सलोकु ॥ लाल गुपाल गोबिंद प्रभ गहिर ग्मभीर अथाह ॥ दूसर नाही अवर को नानक बेपरवाह ॥१॥

पद्अर्थ: लाल = प्यारा। गोपाल = धरती का पालक। गहिर = गहिरा, जिसका भेद ना पाया जा सके। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। बेपरवाह = चिन्ता फिक्र से ऊपर।1।

अर्थ: परमात्मा सब का प्यारा है, सृष्टि कर रक्षक है, सब की जानने वाला है उसका भेद नहीं पाया जा सकता, बड़े जिगरे वाला है, उसे एक ऐसा समुंदर समझो, जिसकी गहराई व आकार समझ से परे है, कोई चिन्ता-फिक्र उसके नजदीक नहीं फटकते। हे नानक! उस जैसा और कोई दूसरा नहीं।1।

पउड़ी ॥ लला ता कै लवै न कोऊ ॥ एकहि आपि अवर नह होऊ ॥ होवनहारु होत सद आइआ ॥ उआ का अंतु न काहू पाइआ ॥ कीट हसति महि पूर समाने ॥ प्रगट पुरख सभ ठाऊ जाने ॥ जा कउ दीनो हरि रसु अपना ॥ नानक गुरमुखि हरि हरि तिह जपना ॥१२॥

पउड़ी: लवै = बराबर का, पास पास का। होवनहार = अस्तित्व वाला। काहू = किसी ने भी। कीट = कीड़ी। हसति = हाथी।12।

अर्थ: पउड़ी: उस परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं है, (अपने जैसा) वह खुद ही है स्वयं ही है (उस जैसा) और कोई नही। सदा से ही वह प्रभु अस्तित्व वाला चला आ रहा है, किसी ने उस (की) हस्ती का आखिरी छोर नहीं पाया। कीड़ी से लेकर हाथी तक सब में पूण तौर पर प्रभु व्यापक है, वह सर्व-व्यापक परमात्मा हर जगह प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है।

हे नानक! जिस आदमी को प्रभु ने अपने नाम का स्वाद बख्शा है, वह बंदा गुरु की शरण पड़ कर सदा उसे जपता है।12।

सलोकु ॥ आतम रसु जिह जानिआ हरि रंग सहजे माणु ॥ नानक धनि धनि धंनि जन आए ते परवाणु ॥१॥

पद्अर्थ: रसु = आनंद। जिह = जिन्होंने। सहजे = सहजि, अडोलता में (टिक के)। धनि = धन्य, भाग्यशाली। परवाणु = स्वीकार।1।

अर्थ: हे नानक! जो लोग अडोल अवस्था में टिक के प्रभु की याद का स्वाद लेते हैं, जिन्होंने इस आत्मिक आनंद के साथ सांझ डाली है, वे भाग्यशाली है, उनका ही जगत में पैदा सफल है।1।

पउड़ी ॥ आइआ सफल ताहू को गनीऐ ॥ जासु रसन हरि हरि जसु भनीऐ ॥ आइ बसहि साधू कै संगे ॥ अनदिनु नामु धिआवहि रंगे ॥ आवत सो जनु नामहि राता ॥ जा कउ दइआ मइआ बिधाता ॥ एकहि आवन फिरि जोनि न आइआ ॥ नानक हरि कै दरसि समाइआ ॥१३॥

पउड़ी: ताहू को = उसी का। गनीऐ = समझना चाहिए। जासु रसन = जिस की जीभ। जसु = यश, महिमा। भनीऐ = उचारती है। साधू = गुरु। अनदिनु = हर रोज, हर समय। रंगे = रंग में, प्यार से। नामहि = नाम में। राता = मस्त। माइआ = मेहर, दया। बिधाता = बिधाते की, सुजनहार की। एकहि आवन = एक ही बार जनम। दरसि = दीदार में।13।

अर्थ: पउड़ी: (जगत में) उसी मनुष्य का आना सफल हुआ जानो, जिस की जीभ सदा परमात्मा की महिमा करती है। (जो लोग) गुरु की हजूरी में आ टिकते हैं, वह हर वक्त प्यार से प्रभु का नाम स्मरण करते हैं।

जिस मनुष्य पर विधाता की मेहर की किरपा हुई, वह सदा परमात्मा के नाम में मस्त रहता है, (जगत में वही) आया समझो।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के दीदार में लीन रहता है, (जगत में) उसका जनम एक ही बार होता है, वह मुड़ मुड़ जूनियों में नहीं आता।13।

सलोकु ॥ यासु जपत मनि होइ अनंदु बिनसै दूजा भाउ ॥ दूख दरद त्रिसना बुझै नानक नामि समाउ ॥१॥

पद्अर्थ: यासु = जासु, जिसे। मनि = मन मे। दूजा भाउ = किसी और के साथ प्यार। त्रिसना = तृष्णा, माया का लालच। नामि = नाम मे। समाउ = लीन हो।1।

अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु का नाम जपने से मन में आनंद पैदा होता है, (प्रभु से अलग) किसी और का मोह दूर हो सकता है, माया का लालच (और लालच से पैदा हुआ) दुख-कष्ट मिट जाता है, उसके नाम में टिके रहो।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh