श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ यया जारउ दुरमति दोऊ ॥ तिसहि तिआगि सुख सहजे सोऊ ॥ यया जाइ परहु संत सरना ॥ जिह आसर इआ भवजलु तरना ॥ यया जनमि न आवै सोऊ ॥ एक नाम ले मनहि परोऊ ॥ यया जनमु न हारीऐ गुर पूरे की टेक ॥ नानक तिह सुखु पाइआ जा कै हीअरै एक ॥१४॥

पद्अर्थ: पउड़ी: जारउ = जला दो। दोऊ = दूसरा भाव। तिसहि = इस (दुर्मति) को। सोऊ = टिकोगे। मनहि = मन में। न हारीअै = व्यर्थ नहीं जाएगा। टेक = आसरा। तिह = उसने। हीअरै = हृदय में।14।

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) बुरी मति और माया का प्यार जला दो, इसे त्याग के ही सुख में अडोल अवस्था में टिके रहोगे। जा के संतों की शरण पड़ो, इसी आसरे इस संसार-समुंद्र में से (सही सलामत) पार लांघ सकते हैं।

जो बंदा एक प्रभू का नाम ले के अपने मन में परो लेता है, वह बारंबार जन्मों में नहीं आता।

हे नानक! पूरे गुरू का आसरा लेने से मानस जनम व्यर्थ नहीं जाता। जिस मनुष्य के हृदय में एक प्रभू बस गया है, उसने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है।14।

सलोकु ॥ अंतरि मन तन बसि रहे ईत ऊत के मीत ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नानक जपीऐ नीत ॥१॥

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। ईत ऊत के मीत = लोक परलोक में साथ देने वाला मित्र। गुरि = गुरू ने। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया।1।

अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरू लोक-परलोक में साथ देने वाला परमात्मा नजदीक दिखा देता है, परमात्मा उस मनुष्य के मन में तन में हर समय आ बसता है। हे नानक! ऐसे प्रभू को सदा सिमरना चाहिए।1।

पउड़ी ॥ अनदिनु सिमरहु तासु कउ जो अंति सहाई होइ ॥ इह बिखिआ दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ ॥ का को मात पिता सुत धीआ ॥ ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ ॥ ऐसी संचि जु बिनसत नाही ॥ पति सेती अपुनै घरि जाही ॥ साधसंगि कलि कीरतनु गाइआ ॥ नानक ते ते बहुरि न आइआ ॥१५॥

पद्अर्थ: पउड़ी: तासु कउ = उसे। बिखिआ = माया। चारि छिअ = दस। सभु कोइ = हरेक जीव। का को = किस का? किसी का नहीं। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। संचि = संचित करए इकट्ठी कर। पति = इज्जत। अपुनै घरि = अपने घर में, जिस घर में से कोई निकाल नहीं सकेगा। कलि = इस समय में, जनम ले के, जगत में आ के। ते ते = वह वह लोग।15।

अर्थ: पउड़ी: जो प्रभू आखिर में सहायता करता है, उसे हर वक्त याद रखो। ये माया तो दस दिनों की साथिन है, हरेक जीव इसे यहीं छोड़ के चला जाता है।

माता, पिता, पुत्र, पुत्री कोई भी किसी का साथी नहीं है। घर-स्त्री कोई भी चीज कोई जीव यहाँ से साथ ले के नहीं जा सकता। (हे भाई!) ऐसी राशि-पूंजी इकट्ठी कर जिसका कभी नाश ना हो, और इज्जत से उस घर में जा सकें, जहाँ से कोई निकाल ना सके।

हे नानक! जिन लोगों ने मानस जनम ले के सत्संग में प्रभू की सिफत-सालाह की, वे बार-बार जनम-मरण के चक्कर में नहीं आए।15।

सलोकु ॥ अति सुंदर कुलीन चतुर मुखि ङिआनी धनवंत ॥ मिरतक कहीअहि नानका जिह प्रीति नही भगवंत ॥१॥

पद्अर्थ: मुखि = मुखी, जाने-माने। मिरतक = मृतक, मुरदे।1।

अर्थ: यदि कोई बड़ा सुंदर, अच्छे कुल वाला, समझदार, ज्ञानवान व धनवान भी हो, पर, हे नानक! जिन के अंदर भगवान की प्रीति नहीं है, वे मुर्दे ही कहे जाते हैं (भाव, विकारों में मरी हुई आत्मा वाले)।1।

पउड़ी ॥ ङंङा खटु सासत्र होइ ङिआता ॥ पूरकु कु्मभक रेचक करमाता ॥ ङिआन धिआन तीरथ इसनानी ॥ सोमपाक अपरस उदिआनी ॥ राम नाम संगि मनि नही हेता ॥ जो कछु कीनो सोऊ अनेता ॥ उआ ते ऊतमु गनउ चंडाला ॥ नानक जिह मनि बसहि गुपाला ॥१६॥

पद्अर्थ: पउड़ी: खटु = छे। खटु सासत्र = छे शास्त्र (सांख, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, वेदांत। इनके कर्ता: कपिल, गौतम, कणाद, जेमनी, पतंजली व व्यास)। पूरकु = प्राण ऊपर चढ़ाने। कुंभक = पाण रोक के रखने। रेचक = प्राण बाहर निकालने। सोम पाक = स्वयं पाक, अपने हाथों रोटी पकाने वाला। अपरस = अस्पर्श, जो किसी (शूद्र आदि से) ना छूए। अनेता = ना नित्य रहने वाला, व्यर्थ। गनउ = मैं समझता हूँ।16।

अर्थ: पउड़ी: कोई मनुष्य छे शास्त्रों को जानने वाला हो, (प्राणयाम के अभ्यास में) श्वास ऊपर चढ़ाने, रोक के रखने व नीचे उतारने के कर्म करता हो, धार्मिक चर्चा करता हो, समाधियां लगाता हो, (स्वच्छता की खातिर) अपने हाथों से रोटी पकाता हो, जंगलों में रहता हो, पर यदि उसके मन में परमात्मा के नाम का ध्यान नहीं, तो उसने जो कुछ किया व्यर्थ ही किया।

हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य के मन में प्रभू जी नहीं बसते, उससे मैं एक नीच जाति के आदमी को बेहतर समझता हूँ।16।

सलोकु ॥ कुंट चारि दह दिसि भ्रमे करम किरति की रेख ॥ सूख दूख मुकति जोनि नानक लिखिओ लेख ॥१॥

पद्अर्थ: कुंट = कूट, तरफ। दह दिसि = दसों दिशाएं। रेख = रेखा, लकीर, संस्कार। किरति = किए हुये।1।

अर्थ: हे नानक! जीव अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार चारों तरफ दसों दिशाओं में भटकते हैं। लिखे लेखों के मुताबिक ही सुख-दुख-मुक्ति अथवा जनम-मरण के चक्कर मिलते हैं।1।

पवड़ी ॥ कका कारन करता सोऊ ॥ लिखिओ लेखु न मेटत कोऊ ॥ नही होत कछु दोऊ बारा ॥ करनैहारु न भूलनहारा ॥ काहू पंथु दिखारै आपै ॥ काहू उदिआन भ्रमत पछुतापै ॥ आपन खेलु आप ही कीनो ॥ जो जो दीनो सु नानक लीनो ॥१७॥

पद्अर्थ: पवड़ी = पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। उदिआन = उद्यान, जंगल।17।

अर्थ: पवड़ी- करतार स्वयं ही (जगत के कार्य-व्यवहार का) सबब बनाने वाला है। कोई जीव उसके द्वारा लिखे लेख को मिटा नहीं सकता। सृजनहार भूलने वाला नहीं है, (जो भी काम वह करता है, उसमें गलती नहीं रह जाती, इस वास्ते) कोई काम उसे दूसरी बार (ठीक करके) नहीं करना पड़ता।

किसी जीव को खुद ही (जिंदगी का सही) रास्ता दिखाता है, किसी को खुद ही जंगल में भटका के पछुतावे की ओर ले जाता है।

ये सारा जगत-खेल प्रभू ने स्वयं ही बनाया है। हे नानक! जो कुछ वह जीवों को देता है, वही उन्हें मिलता है।17।

सलोकु ॥ खात खरचत बिलछत रहे टूटि न जाहि भंडार ॥ हरि हरि जपत अनेक जन नानक नाहि सुमार ॥१॥

पद्अर्थ: बिलछत = विलसित, आत्मिक आनंद भोगते हुए।1।

अर्थ: हे नानक! अनेकों जीव, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती, परमात्मा का नाम जपते हैं (उनके पास सिफत-सालाह के इतने खजाने इकट्ठे हो जाते हैं कि) वे उन खजानों को खाते-खरचते-भोगते हैं, पर वह कभी खत्म नहीं होते।1।

पउड़ी ॥ खखा खूना कछु नही तिसु सम्रथ कै पाहि ॥ जो देना सो दे रहिओ भावै तह तह जाहि ॥ खरचु खजाना नाम धनु इआ भगतन की रासि ॥ खिमा गरीबी अनद सहज जपत रहहि गुणतास ॥ खेलहि बिगसहि अनद सिउ जा कउ होत क्रिपाल ॥ सदीव गनीव सुहावने राम नाम ग्रिहि माल ॥ खेदु न दूखु न डानु तिह जा कउ नदरि करी ॥ नानक जो प्रभ भाणिआ पूरी तिना परी ॥१८॥

पद्अर्थ: पउड़ी: खूना = ऊन, कमी। पाहि = पास। भावै = जैसे प्रभू को भाता है। तह तह = वहां वहां। भावै तह तह जाहि = (भक्त जन) उसकी रजा में चलते हैं। सहज = अडोलता। गुणतास = गुणों का खजाना परमात्मा। बिगसहि = खिले रहते हैं। गनीव = धनाढ, ग़नी। ग्रिहि = हृदय घर में। खेदु = कलेश। डानु = दण्ड।18।

अर्थ: पउड़ी: प्रभू सब ताकतों का मालिक है, उसके पास किसी भी चीज की कमी नहीं। उसके भक्त जन उसकी रजा में चलते हैं, उन्हें वह सब कुछ देता है। प्रभू का नाम-धन भक्तों की राशि पूँजी है, इसी खजाने को वे सदा इस्तेमाल करते हैं। वे सदा गुणों के खजाने प्रभू को सिमरते हैं और इससे उनके अंदर क्षमा-निम्रता-आत्मिक आनंद व अडोलता (आदि गुण प्रफुल्लित होते हैं)।

वह जिन पर कृपा करता है, वह आत्मिक आनंद से जीवन की खेल खेलते हैं और सदा खिले रहते हैं। वे सदा ही धनवान हैं, उनके माथे चमकते हैं, उनके हृदय में बेअंत नाम-धन है।

जिन पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उनकी आत्मा को कोई कलेश नहीं, कोई दुख नहीं (जीवन-वणज में उन्हें कोई जिंमेदारी) बोझ नहीं लगती। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू को अच्छे लगते हैं, (जीवन-व्यापार में) वह कामयाब हो जाते हैं।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh