श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 254 सलोकु ॥ गनि मिनि देखहु मनै माहि सरपर चलनो लोग ॥ आस अनित गुरमुखि मिटै नानक नाम अरोग ॥१॥ पद्अर्थ: गनि मिनि = गिन मिन के, गिन कि माप के। सरपर = अवश्य, जरूर। अनित आस = नित्य ना रहने वाले पदार्थों की आशा।1। अर्थ: (हे भाई!) मन में अच्छी तरह विचार के देख लो, सारा जगत जरूर (अपनी अपनी बारी यहाँ से) चला जाएगा (फिर नाशवान के लिए आस क्यूँ?) हे नानक! प्रभु का नाम मनुष्य के मन को (आशा आदि के) रोगों से बचा लेता है, गुरु की शरण पड़ने से नाश-वंत पदार्थों की आस मिट जाती है।1। पउड़ी ॥ गगा गोबिद गुण रवहु सासि सासि जपि नीत ॥ कहा बिसासा देह का बिलम न करिहो मीत ॥ नह बारिक नह जोबनै नह बिरधी कछु बंधु ॥ ओह बेरा नह बूझीऐ जउ आइ परै जम फंधु ॥ गिआनी धिआनी चतुर पेखि रहनु नही इह ठाइ ॥ छाडि छाडि सगली गई मूड़ तहा लपटाहि ॥ गुर प्रसादि सिमरत रहै जाहू मसतकि भाग ॥ नानक आए सफल ते जा कउ प्रिअहि सुहाग ॥१९॥ पउड़ी: रवहु = याद करो। नीत = नित्य। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। बिसासा = विश्वास, एतबार। बिलम = विलम्ब, देरी। बंधु = बंधन, रुकावट। बेरा = बेला। फंधु = फंदा, रस्सा। पेखि = देख। लपटाहि = लिपटते हैं, चिपकते हैं। जाहू मसतकि = जिसके माथे पर। प्रिअहि = प्रिय के, प्यारे के।19। अर्थ: पउड़ी: (हे मित्र!) श्वास-श्वास सदा गोबिंद का नाम जपो, प्रभु के गुण चेते करते रहो, (देखना) ढील ना करनी, इस शरीर का कोई भरोसा नहीं। बालपन हो, जवानी हो या बुढ़ापा हो (मौत के आने में किसी भी वक्त) कोई रुकावट नहीं है। उस वक्त का पता नहीं लग सकता, जब जम का फंदा (गले में) आ पड़ता है। देखो! ज्ञानवान हो, तवज्जो जोड़ने वाले हों, चाहे समझदार (सियाणे) हों, किसी ने भी सदा इस जगह टिके नहीं रहना। मूर्ख ही उन पदार्थों को जफ्फा मारते हैं जिन्हें (अपनी अपनी बारी) सारी दुनिया छोड़ गई। जिस मनुष्य के माथे पर भाग्यों के लेख अंकुरित हों, वह गुरु की कृपा से सदा प्रभु का नाम स्मरण करता रहता है। हे नानक! जिन्होंने प्यारे प्रभु का सुहाग (खसमाना) नसीब है, उनका ही जगत में आना मुबारक है।19। सलोकु ॥ घोखे सासत्र बेद सभ आन न कथतउ कोइ ॥ आदि जुगादी हुणि होवत नानक एकै सोइ ॥१॥ पद्अर्थ: घोखे = बारीकी से पढ़ के देखे हैं। आन = कोई और। जुगादी = जुगों के आदि से। होवत = आगे को भी, कायम रहने वाला।1। अर्थ: सारे वेद-शास्त्र विचार के देख लिए हैं, इनमें से कोई भी ये नहीं कहता कि परमातमा के बिना कोई और भी सदा स्थिर रहने वाला है। हे नानक! एक परमात्मा ही है जो जगत के शुरू से है, युगों के आरम्भ से है, अब भी है और आगे भी रहेगा।1। पउड़ी ॥ घघा घालहु मनहि एह बिनु हरि दूसर नाहि ॥ नह होआ नह होवना जत कत ओही समाहि ॥ घूलहि तउ मन जउ आवहि सरना ॥ नाम ततु कलि महि पुनहचरना ॥ घालि घालि अनिक पछुतावहि ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावहि ॥ घोलि महा रसु अम्रितु तिह पीआ ॥ नानक हरि गुरि जा कउ दीआ ॥२०॥ पउड़ी: घालहु = दृढ़ करो। मनहि = मन में। जत कत = हर जगह। घूलहि = भीगेगा, रस लेगा। मन = हे मन! कलि महि = मानव जीवन में। (नोट: किसी खास युग के बारे में यहाँ जिक्र नहीं चल रहा)। पद्अर्थ: पुनह चरना = (पुनह+चरन, पुनह = दुबारा, दूसरी बार, चरन = आचरण, कर्म) किसी पाप कर्म का असर मिटाने के लिए किए गए कर्म, बतौर पश्चाताप किया गया कर्म। थिति = स्थिति, आत्मिक टिकाव, शांति। गुरि = गुरु ने।20। अर्थ: पउड़ी। (हे भाई!) अपने मन में (ये सच्चाई) अच्छी तरह बैठा लो कि प्रभु के बिना और कोई सदा स्थिर नहीं है, ना कोई अब तक हुआ है ना ही होगा। हर जगह वह प्रभु ही मौजूद है। हे मन! अगर तू उस सदा स्थिर हरि की शरण पड़े, तो ही रस पाएगा। इस मानव जनम में एक प्रभु का नाम ही है जो किये विकारों का प्रभाव मिटा सकता है। परमात्मा की भक्ती के बिना और कहीं भी मन को शान्ति नहीं मिलती। अनेक ही लोग (हरि स्मरण के बिना) विभिन्न तरह की मेहनत कर करके आखिर में पछताते ही हैं। हे नानक! गुरु ने जिस को हरि-नाम की दाति दे दी, उसने महा = रस वाला (अत्यंत स्वादिष्ट) नाम-अमृत घोल के पी लिया (भाव, उसने बड़े प्रेम के साथ नाम जपा जिस में से ऐसा स्वाद आया जैसे किसी अति मीठे शर्बत आदि में से)।20। सलोकु ॥ ङणि घाले सभ दिवस सास नह बढन घटन तिलु सार ॥ जीवन लोरहि भरम मोह नानक तेऊ गवार ॥१॥ पद्अर्थ: ङणि = गिन के। घाले = भेजता है। दिवस = दिन। तिलु सार = तिल जितना भी। लोरहि = लोचना, अभिलाशा रखना। अर्थ: (जीव की उम्र के) सारा दिन श्वास गिन के ही (जीव को जगत में) भेजता है, (उस गिनती से) एक तिल जितना भी कम-ज्यादा नहीं होता। हे नानक! वे लोग मूर्ख हैं जो मोह की भटकना में पड़ कर (प्रभु द्वारा मिली उम्र से ज्यादा) जीने की तमन्ना रखते हैं।1। पउड़ी ॥ ङंङा ङ्रासै कालु तिह जो साकत प्रभि कीन ॥ अनिक जोनि जनमहि मरहि आतम रामु न चीन ॥ ङिआन धिआन ताहू कउ आए ॥ करि किरपा जिह आपि दिवाए ॥ ङणती ङणी नही कोऊ छूटै ॥ काची गागरि सरपर फूटै ॥ सो जीवत जिह जीवत जपिआ ॥ प्रगट भए नानक नह छपिआ ॥२१॥ पउड़ी: ङ्रासै = ग्रसता है। साकत = माया से ग्रसे हुए, ईश्वर से टूटे हुए। प्रभि = प्रभु ने। चीन = पहचाना। ङणती ङणी = गिनती गिनने से, सोचें सोचने से। सरपर = अवश्य, जरूर।21। अर्थ: पउड़ी: मौत का डर उन लोगों को ग्रसता है जिन्हें प्रभु ने अपने से विछोड़ दिया है, उन्होंने व्यापक प्रभु को नहीं पहिचाना, और वे अनेक जूनियों में जन्म लेते मरते रहते हैं। (मौत का सहम उतार के) प्रभु के साथ सांझ उन्होंने ही डाली, प्रभु से तवज्जो उन्होंने ही जोड़ी, जिन्हें प्रभु ने मेहर करके ये दाति दी। (ये शरीर) कच्चा घड़ा है इसने जरूर टूटना है, सोचें सोचने से (भी इस होनी से) कोई बच नहीं सकता। (पर) हे नानक! (कोई लम्बी उम्र जी गया, कोई थोड़ी) उसी को जीना समझो जिसने जीते-जी परमात्मा का स्मरण किया है, स्मरण करने वाला मनुष्य छुपा नहीं रहता, जगत में नाम भी कमाता है।21।3। नोट: अंक 3 का भाव है कि अक्षर ‘ङ’ की 3 पउड़ीयां आ चुकी हैं। सलोकु ॥ चिति चितवउ चरणारबिंद ऊध कवल बिगसांत ॥ प्रगट भए आपहि गुोबिंद नानक संत मतांत ॥१॥ पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितवता हूँ। चरणारबिंद = चरण+अरविंद, चरण कमल, सुंदर चरण। ऊध = उलटा हुआ, माया की ओर पलटा हुआ। आपहि = खुद ही। नोट: ‘गुोबिंद’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ व ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द ‘गोबिंद’ है, पर यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है। अर्थ: (मैं तो अपने) चिक्त में प्रभु सुंदर चरण टिकाता हूँ (जो जीव ये काम करता है उसका माया की ओर) उल्टा हुआ मन (सीधा हो के) कमल फूल की तरह खिल जाता है। हे नानक! गुरु की शिक्षा से गोबिंद स्वयं ही उस हृदय में आ प्रगट होता है।1। पउड़ी ॥ चचा चरन कमल गुर लागा ॥ धनि धनि उआ दिन संजोग सभागा ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमि आइओ ॥ भई क्रिपा तब दरसनु पाइओ ॥ चार बिचार बिनसिओ सभ दूआ ॥ साधसंगि मनु निरमल हूआ ॥ चिंत बिसारी एक द्रिसटेता ॥ नानक गिआन अंजनु जिह नेत्रा ॥२२॥ पद्अर्थ: ऊआ दिन = उस दिन। चार = सुंदर। बिचार = विचार। दूआ = दूसरा भाव, माया का प्यार। द्रिसटेता = दर्शन किया। अंजनु = सुरमा। जिह = जिस की।22। अर्थ: पउड़ी: वह दिन भाग्यों वाला, वह समय भाग्यशाली समझो जब (किसी जीव का माथा) गुरु के सुंदर चरणों से लगे। (प्रभु के दीदार की खातिर जीव) चारों तरफ दसों दिशाओं में भी भटक आए (तब भी सफलता नहीं मिलती) दीदार तभी होता है, जब उसकी मेहर हो (और मेहर होने से ही गुरु की संगति मिलती है)। गुरु की संगति में मन पवित्र हो जाता है, विचार स्वच्छ हो जाते हैं, माया का सारा प्यार समाप्त हो जाता है। हे नानक! (गुरु की बख्शी) सूझ का अंजन जिसकी आँखों में पड़ता है, उसे (हर जगह) एक परमात्मा के ही दर्शन होते हैं, वह और सभी चितवनें (सोचें) विसार देता है (और एक परमात्मा को ही चितवता रहता है)।22। सलोकु ॥ छाती सीतल मनु सुखी छंत गोबिद गुन गाइ ॥ ऐसी किरपा करहु प्रभ नानक दास दसाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सीतल = ठण्डी। छंत = छंद, गीत। गाइ = गा के। दास दसाइ = दासों का दास।1। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं तेरे दासों का दास हूँ। मुझ पर ऐसी मेहर कर कि तेरी महिमा की वाणी गा के मेरे दिल में ठंड पड़ जाए, मेरा मन सुखी हो जाए।1। पउड़ी ॥ छछा छोहरे दास तुमारे ॥ दास दासन के पानीहारे ॥ छछा छारु होत तेरे संता ॥ अपनी क्रिपा करहु भगवंता ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ संतन की मन टेक टिकाई ॥ छारु की पुतरी परम गति पाई ॥ नानक जा कउ संत सहाई ॥२३॥ पउड़ी: छोहरे = बालके, दास। पानीहारे = पानी भरने वाले। छारु = चरण धूल। भगवंता = हे भगवान! छारु की पुतरी = मिट्टी की पुतली। मन = हे मन!।23। अर्थ: पउड़ी: हे भगवान! अपनी मेहर कर, मैं तेरे संतजनों की चरणधूड़ हो जाऊँ। मैं तेरा दास हूँ, तेरा बच्चा हूँ (मेहर कर) तेरे दासों के दासों का मैं पानी भरने वाला बनूँ (उनकी सेवा में मुझे आनंद प्रतीत हो)। हे मन! सारी चतुराई समझदारी छोड़ के संत जनों का आसरा पकड़। हे नानक! संत जन जिस मनुष्य की सहायता करते हैं, उसका भी ये शरीर चाहे मिट्टी का पुतला है, पर इसी में वह ऊँची से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।23। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |