श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 255 सलोकु ॥ जोर जुलम फूलहि घनो काची देह बिकार ॥ अह्मबुधि बंधन परे नानक नाम छुटार ॥१॥ पद्अर्थ: फूलहि = फूलते हैं, अकड़ते हैं, अहंकार करते हैं। काची = नाशवान। बिकार = बेकार, व्यर्थ। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि, मैं मैं करने वाली अक्ल।1। अर्थ: जो लोग दूसरों पर धक्का जुल्म करके बहुत मान करते हैं, (शरीर तो उनका भी नाशवान है) उनका नाशवान शरीर व्यर्थ चला जाता है। वे ‘मैं बड़ा’ ‘मैं बड़ा’ करने वाली मति के बंधनों में जकड़े जाते हैं। हे नानक! इन बंधनों से प्रभु का नाम ही छुड़ा सकता है।1। पउड़ी ॥ जजा जानै हउ कछु हूआ ॥ बाधिओ जिउ नलिनी भ्रमि सूआ ॥ जउ जानै हउ भगतु गिआनी ॥ आगै ठाकुरि तिलु नही मानी ॥ जउ जानै मै कथनी करता ॥ बिआपारी बसुधा जिउ फिरता ॥ साधसंगि जिह हउमै मारी ॥ नानक ता कउ मिले मुरारी ॥२४॥ पउड़ी: नलिनी = तोते को पकड़ने वाला यंत्र। एक चरखी जिस पर चोगा डाला जाता है, नीचे पानी का बरतन रखा होता है, तोता चोगे की लालच में उस पर बैठता है, चरखी पलट जाती है, तोता नीचे पानी देख के चरखी को कस के पकड़ लेता है और वह खुद ही पकड़ा जाता है। सूआ = तोता। ठाकुरि = ठाकुर ने। बसुधा = धरती। जिह = जिस ने। मुरारी = परमात्मा।24। अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य ये समझने लग जाता है कि मैं बड़ा बन गया हूँ, वह इस अहंकार में ऐसे बंध जाता है जैसे तोता (चोगे के) भुलेखे में नलिनी से पकड़ा जाता है। जब मनुष्य ये समझता है कि मैं भक्त हो गया हूँ, मैं ज्ञानवान बन गया हूँ, तो आगे से प्रभु ने उसके इस अहंकार का मूल्य रक्ती भर भी नहीं डालना होता। जब मनुष्य ये समझ लेता है कि मैं बढ़िया धार्मिक व्याख्यान कर लेता हूँ तो फिर वह एक फेरी वाले व्यापारी की तरह ही धरती पर चलता फिरता है (जैसे फेरी वाला सौदा और लोगों को ही बेचता है, वैसे ही ये खुद भी कोई आत्मिक लाभ नहीं कमाता)। हे नानक! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में जा के अपने अहंकार का नाश किया है, उसे परमात्मा मिलता है।24। सलोकु ॥ झालाघे उठि नामु जपि निसि बासुर आराधि ॥ कार्हा तुझै न बिआपई नानक मिटै उपाधि ॥१॥ पद्अर्थ: झालाघे = सवेरे, अमृत बेला। उठि = उठ के। निसि = रात। बासुर = दिन। कारा = काढ़ा, झुरना, चिन्ता फिक्र। न बिआपई = जोर नहीं डाल सकेगा। उपाधि = झगड़े आदि का स्वाभाव।1। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) अमृत बेला में उठ के प्रभु का नाम जप (इतना ही नहीं) दिन रात हर वक्त याद कर। कोई चिन्ता-फिक्र तेरे पर जोर नहीं डाल सकेगा, तेरे अंदर से वैर-विरोध झगड़े वाला स्वभाव ही मिट जाएगा।1। पउड़ी ॥ झझा झूरनु मिटै तुमारो ॥ राम नाम सिउ करि बिउहारो ॥ झूरत झूरत साकत मूआ ॥ जा कै रिदै होत भाउ बीआ ॥ झरहि कसमल पाप तेरे मनूआ ॥ अम्रित कथा संतसंगि सुनूआ ॥ झरहि काम क्रोध द्रुसटाई ॥ नानक जा कउ क्रिपा गुसाई ॥२५॥ पउड़ी: साकत = माया ग्रसित जीव, ईश्वर से टूटा हुआ। बीआ = दूसरा। कसंमल = पाप, कसमल। मनूआ = मन के। द्रुसटाई = दुष्ट, बुरे ख्याल। गुसाई = धरती का पति, प्रभु।25। अर्थ: (हे वणजारे जीव!) परमात्मा के नाम का व्यापार कर, तेरा (हर किस्म का) चिन्ता-फिक्र मिट जाएगा। प्रभु से विछुड़ा हुआ आदमी चिन्ता-फिक्र में ही आत्मिक मौत मरता रहता है, क्योंकि उसके हृदय में (परमात्मा को बिसार के) माया का प्यार बना होता है। हे भाई! सत्संग में जा के परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली महिमा सुनने से, तेरे मन में से सारे पाप विकार झड़ जाएंगे। हे नानक! जिस मनुष्य पर सृष्टि का मालिक प्रभु मेहर करता है (उसके अंदर नाम बसता है, और) उसके काम-क्रोध आदि सारे वैरीयों का नाश हो जाता है।25। सलोकु ॥ ञतन करहु तुम अनिक बिधि रहनु न पावहु मीत ॥ जीवत रहहु हरि हरि भजहु नानक नाम परीति ॥१॥ पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! ञतन = जतन, यत्न। जीवत रहहु = आत्मिक जीवन हासिल करोगे।1। अर्थ: हे मित्र! (बेशक) अनेक तरह के यत्न तुम करके देखो, (यहां सदा के लिए) टिके नहीं रह सकते। हे नानक! (कह:) यदि प्रभु के नाम से प्यार डालोगे, अगर सदैव हरि नाम सिमरोगे, तो आत्मिक जीवन मिलेगा।1। पवड़ी ॥ ञंञा ञाणहु द्रिड़ु सही बिनसि जात एह हेत ॥ गणती गणउ न गणि सकउ ऊठि सिधारे केत ॥ ञो पेखउ सो बिनसतउ का सिउ करीऐ संगु ॥ ञाणहु इआ बिधि सही चित झूठउ माइआ रंगु ॥ ञाणत सोई संतु सुइ भ्रम ते कीचित भिंन ॥ अंध कूप ते तिह कढहु जिह होवहु सुप्रसंन ॥ ञा कै हाथि समरथ ते कारन करनै जोग ॥ नानक तिह उसतति करउ ञाहू कीओ संजोग ॥२६॥ पद्अर्थ: पवड़ी = हेत = मोह। ञाणहु = जानो, समझ लो। केत = कितने? गणउ = मैं गिनूँ। सकउ = सकूँ। न गणि सकउ = मैं गिन नही सकता। ञो = जो कुछ। पेखउ = मैं देखता हूँ। का सिउ = किस से? संगु = साथ। सही = ठीक। चित = हे चिक्त! कूप ते = कूएं में से। तिह = उस (मनुष्य) को। भ्रम ते = भटकना से। भिंन = भिन्न, अलग। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कै हाथि = के हाथ में। ते कारन = वह सारे सबब।26। अर्थ: पवड़ी- (हे भाई!) बात अच्छी तरह समझ लो कि ये दुनिया वाले मोह नाश हो जाएंगे। कितने (जीव जगत से) चले गए हैं, ये गिनती ना मैं करता हूं, ना कर सकता हूँ। जो कुछ मैं (आँखों से) देख रहा हूँ, वह नाशवान है, (फिर) पक्की प्रीति किस के साथ डाली जाए? हे मेरे चिक्त! ये दरुस्त जान कि माया के साथ प्यार झूठा है। (हे प्रभु!) जिस मनुष्य पर तू मेहरवान होता है, उसे मोह के अंध-कूप में से तू निकाल लेता है। ऐसे मनुष्य माया वाली भटकना से बच जाते हैं। ऐसा आदमी ही संत है, वह ही सही जीवन को समझता है। हे नानक! (कह:) मैं उस प्रभु की महिमा करता हूँ, जो (मेहर करके महिमा करने का ये) सबब मेरे वास्ते बनाता है, जिसके हाथ में ही ये करने की स्मर्था है, और जो सारे सबब बनाने के काबिल भी है (यही एक तरीका है, ‘माया रंग’ से बचे रहने का)।26। सलोकु ॥ टूटे बंधन जनम मरन साध सेव सुखु पाइ ॥ नानक मनहु न बीसरै गुण निधि गोबिद राइ ॥१॥ अर्थ: हे नानक! गुणों का खजाना गोबिंद जिस मनुष्य के मन से भूलता नहीं है, उसके वह मोह के बंधन टूट जाते हैं जो जनम मरन के चक्कर में डालते हैं, वह मनुष्य गुरु की सेवा करके आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। पउड़ी ॥ टहल करहु तउ एक की जा ते ब्रिथा न कोइ ॥ मनि तनि मुखि हीऐ बसै जो चाहहु सो होइ ॥ टहल महल ता कउ मिलै जा कउ साध क्रिपाल ॥ साधू संगति तउ बसै जउ आपन होहि दइआल ॥ टोहे टाहे बहु भवन बिनु नावै सुखु नाहि ॥ टलहि जाम के दूत तिह जु साधू संगि समाहि ॥ बारि बारि जाउ संत सदके ॥ नानक पाप बिनासे कदि के ॥२७॥ पद्अर्थ: पउड़ी: ब्रिथा = खाली। हीऐ = हिरदै में। महल = अवसर, सबब। साध = गुरु। साध = गुरु। अपन = प्रभु खुद ही। टोहे टाहे = देखे भाले हैं। भवन = ठिकाने, आसरे, घर। तिह = उन लोगों ने। कदि के = चिर दे, कई जन्मों के किए हुए।27। अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा की सेवा भक्ति करो जिसके दर से कोई (जाचक) खाली नहीं जाता। अगर तुम्हारे मन में तन में, मुंह में, हृदय में प्रभु बस जाए, तो मुंह मांगा पदार्थ मिलेगा। पर इस सेवा-भक्ति का मौका उसी को मिलता है, जिस पर गुरु दयाल हो। और गुरु की संगति में मनुष्य तब टिकता है, अगर प्रभु स्वयं कृपा करे। हमने सभी जगहें तलाश के देख ली हैं, प्रभु के भजन के बिना आत्मिक सुख कहीं भी नहीं। जो लोग गुरु की हजूरी में स्वयं को लीन कर लेते हैं, उनसे तो यमदूत भी एक किनारे हो जाते हैं (उन्हें तो मौत का डर भी छू नहीं सकता)। हे नानक! (कह:) मैं बारंबार गुरु से कुर्बान जाता हूँ। जो मनुष्य गुरु के दर पर आ गिरता है, उसके कई जन्मों के किए बुरे कर्म के संस्कार नाश हो जाते हैं।27। सलोकु ॥ ठाक न होती तिनहु दरि जिह होवहु सुप्रसंन ॥ जो जन प्रभि अपुने करे नानक ते धनि धंनि ॥१॥ पद्अर्थ: ठाकि = रोक। दरि = प्रभु के दर पर। प्रभि = प्रभु ने। धनि धंनि = बड़े भाग्यों वाले।1। अर्थ: (हे प्रभु!) जिस पर तू मेहर करता है, उनके राह में तेरे दर पर पहुँचने पर कोई रोक नहीं पैदा होती (कोई विकार उन्हें प्रभु चरणों में जुड़ने से रोक नहीं सकता)। हे नानक! (कह:) वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें प्रभु ने अपने बना लिया है।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |