श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 256 पउड़ी ॥ ठठा मनूआ ठाहहि नाही ॥ जो सगल तिआगि एकहि लपटाही ॥ ठहकि ठहकि माइआ संगि मूए ॥ उआ कै कुसल न कतहू हूए ॥ ठांढि परी संतह संगि बसिआ ॥ अम्रित नामु तहा जीअ रसिआ ॥ ठाकुर अपुने जो जनु भाइआ ॥ नानक उआ का मनु सीतलाइआ ॥२८॥ पउड़ी: ठाहहि = दुखाते। ठहकि ठहकि = खप खप के, खहि खहि के, दूसरों के साथ वैर विरोध बना बना के। जीअ रसिआ = जिंद में रच जाता है। भाइआ = प्यारा लगा।28। अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य (माया के) सारे (मोह) त्याग के सिर्फ प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हें, वह (फिर मायावी पदार्थों की खातिर दूसरों से) वैर-विरोध बना बना के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, उनके अंदर कभी आत्मिक आनंद नहीं आ सकता। जो मनुष्य गुरमुखों की संगति में निवास रखता है, उसके मन में शीतलता बनी रहती है, प्रभु का आत्मिक अमरता देने वाला नाम उसकी जिंद में रच जाता है। हे नानक! जो मनुष्य प्यारे परमात्मा को अच्छा लगने लग जाता है, उसका मन (माया की तृष्णा रूपी आग में से बच के) सदा शांत रहता है।28। सलोकु ॥ डंडउति बंदन अनिक बार सरब कला समरथ ॥ डोलन ते राखहु प्रभू नानक दे करि हथ ॥१॥ पद्अर्थ: दे करि = दे के। कला = ताकत। ते = से।1। अर्थ: हे नानक! (ऐसे अरदास कर-) हे सारी ताकतें रखने वाले प्रभु! मैं अनेक बार तुझे नमस्कार करता हूँ। मुझे माया के मोह में फिसलने से अपना हाथ दे के बचा ले।1। पउड़ी ॥ डडा डेरा इहु नही जह डेरा तह जानु ॥ उआ डेरा का संजमो गुर कै सबदि पछानु ॥ इआ डेरा कउ स्रमु करि घालै ॥ जा का तसू नही संगि चालै ॥ उआ डेरा की सो मिति जानै ॥ जा कउ द्रिसटि पूरन भगवानै ॥ डेरा निहचलु सचु साधसंग पाइआ ॥ नानक ते जन नह डोलाइआ ॥२९॥ पउड़ी: डेरा = सदा टिके रहने के लिए जगह। जानु = पहचान। संजम = (टिके रहने की) जुगति। सबदि = शब्द द्वारा। स्रम = श्रम, मेहनत। घालै = यत्न करता है, घालना घालने वाला। तसू = रक्ती भर भी। मिति = मर्यादा, रीति।29। अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) ये संसार तेरे सदा टिके रहने वाली जगह नहीं है, उस ठिकाने को पहिचान, जो असल पक्की रिहायश वाला घर है। गुरु के शब्द में जुड़ के ये सूझ हासिल कर कि उस घर में सदा टिके रहने की क्या जुगति है। मनुष्य इस दुनियावी डेरे की खातिर बड़ी मेहनत करके कोशिशें करता है, पर (मौत आने पर) इनमें से कुछ भी रक्ती भर भी इसके साथ नहीं जाता। उस सदीवी ठिकाने की रीत-मर्यादा की सिर्फ उस मनुष्य को समझ पड़ती है, जिस पर पूरन प्रभु की मेहर की नजर होती है। हे नानक! साधु-संगत में आ के जो मनुष्य सदीवी अटल आत्मिक आनंद वाला ठिकाना ढूँढ लेते हैं, उनका मन (इस नाशवान संसार के घरों आदि खातिर) नहीं डोलता। सलोकु ॥ ढाहन लागे धरम राइ किनहि न घालिओ बंध ॥ नानक उबरे जपि हरी साधसंगि सनबंध ॥१॥ पद्अर्थ: धरमराइ ढाह = (आत्मिक जीवन के महल को) धर्मराज की ढाह, आत्मिक जीवन की इमारत को विकारों को बाढ़ की लपेट। किनहि = किसी भी विकार ने। बंध न घालिओ = आत्मिक जीवन के रास्ते में रोक नही डाली। सनबंध = संबंध, नाता, प्रीति।1। अर्थ: हे नानक! जिस लोगों ने साधु-संगत में नाता जोड़ा, वह हरि का नाम जप के (विकारों के हड़ में से) बच निकले। उन (के आत्मिक जीवन की इमारत) को विकारों के बाढ़ से नुकसान नहीं होता। कोई भी विकार उनके जीवन-राह में रोक नहीं डाल सकता।1। पउड़ी ॥ ढढा ढूढत कह फिरहु ढूढनु इआ मन माहि ॥ संगि तुहारै प्रभु बसै बनु बनु कहा फिराहि ॥ ढेरी ढाहहु साधसंगि अह्मबुधि बिकराल ॥ सुखु पावहु सहजे बसहु दरसनु देखि निहाल ॥ ढेरी जामै जमि मरै गरभ जोनि दुख पाइ ॥ मोह मगन लपटत रहै हउ हउ आवै जाइ ॥ ढहत ढहत अब ढहि परे साध जना सरनाइ ॥ दुख के फाहे काटिआ नानक लीए समाइ ॥३०॥ पउड़ी: बिकराल = डरावनी। सहजे = सहिज, अडोल अवस्था में। निहाल = प्रसन्न। जापै = पैदा होती है, बनी रहती है। जमि = पैदा हो के।30। अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) प्रभु तुम्हारे साथ (हृदय में) बस रहा है, तुम उसे जंगल जंगल कहाँ ढूँढते फिरते हो? ओर कहाँ तलाशते फिरते हो? खोज इस मन में ही (करनी है)। साधु संगत में (पहुँच के) भयानक अहंकार वाली मति की बनी हुई ढेरी को गिरा दो (इस तरह अंदर ही प्रभु का दर्शन हो जाएगा, प्रभु का) दर्शन करके आत्मा खिल उठेगी, आत्मिक आनंद मिलेगा, अडोल अवस्था में टिक जाओगे। जब तक अंदर अहंकार का ढेर बना रहता है, आदमी पैदा होता मरता है, जूनियों के चक्कर में दुख भोगता है, मोह में मस्त हो के (माया के साथ) चिपका रहता है, अहं के कारन जनम मरन में पड़ा रहता है। हे नानक! जो लोग इस जनम में साधु जनों की शरण आ पड़ते हैं, उनकी (मोह से उपजी) दुखों की फाहियां (जंजीरें) काटी जाती हैं, उन्हें प्रभु अपने चरणों में जोड़ लेता है।30। सलोकु ॥ जह साधू गोबिद भजनु कीरतनु नानक नीत ॥ णा हउ णा तूं णह छुटहि निकटि न जाईअहु दूत ॥१॥ पद्अर्थ: दूत = हे मेरे दूतो! (बताया गया है कि धर्मराज अपने दूतों से कह रहा है)।1। अर्थ: (धर्मराज कहता है:) हे मेरे दूतो! जहाँ साधु जन परमात्मा का भजन कर रहे हों, जहाँ नित्य कीर्तन हो रहा हो, तुम उस जगह के पास ना जाना। (अगर तुम वहां चले गए तो इस खुनामी से) ना मैं बचूँगा, ना तुम बचोगे।1। पउड़ी ॥ णाणा रण ते सीझीऐ आतम जीतै कोइ ॥ हउमै अन सिउ लरि मरै सो सोभा दू होइ ॥ मणी मिटाइ जीवत मरै गुर पूरे उपदेस ॥ मनूआ जीतै हरि मिलै तिह सूरतण वेस ॥ णा को जाणै आपणो एकहि टेक अधार ॥ रैणि दिणसु सिमरत रहै सो प्रभु पुरखु अपार ॥ रेण सगल इआ मनु करै एऊ करम कमाइ ॥ हुकमै बूझै सदा सुखु नानक लिखिआ पाइ ॥३१॥ पउड़ी: रण ते = जगत की रण भूमि से। सीझिऐ = जीतते हैं। आतम = अपने आप को। अन = द्वैत। मरै = स्वैभाव की ओर से मरे। सोभादु = दोनों बाहों से तलवार चलाने वाला सूरमा। मणी = अहंकार। सूरतण = शूरवीरता, बहादुरी। टेक = ओट। रैणि = रात। रेण = चरण धूल। एऊ = यही, ऐसे ही।31। अर्थ: पउड़ी: इस जगत रण-भूमि में अहंकार से हो रही जंग से तभी कामयाब हो सकते हैं, अगर मनुष्य अपने आप को जीत ले। जो मनुष्य अहंकार व द्वैत से मुकाबला करके अहंकार की ओर से मर जाता है, वही बड़ा शूरबीर है। जो मनुष्य गुरु की शिक्षा ले के अहंकार को खत्म कर लेता है, संसारिक वासना से अजेय हो जाता है, अपने मन को अपने वश में कर लेता है, वह मनुष्य परमात्मा को मिल जाता है (संसारिक रणभूमि में) उसी की पोशाक शूरवीरों वाली समझो। हे नानक! जो मनुष्य एक परमात्मा का ही आसरा-सहारा लेता है, किसी और को अपना आसरा नहीं समझता, सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु को दिन रात हर वक्त स्मरण करता रहता है, अपने इस मन को सभी की चरण-धूल बनाता है -जो मनुष्य ये कर्म कमाता है, वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है, सदा आत्मिक आनंद पाता है, पिछले किए कर्मों के लेख उसके माथे पर प्रगट हो जाते हैं।31। सलोकु ॥ तनु मनु धनु अरपउ तिसै प्रभू मिलावै मोहि ॥ नानक भ्रम भउ काटीऐ चूकै जम की जोह ॥१॥ पद्अर्थ: अरपउ = मैं अर्पित कर दूँ। मोहि = मुझे। जोह = देखनी, दृष्टि।1। अर्थ: हे नानक! (कह:) जो मनुष्य मुझे ईश्वर से मिला दे, मैं उसके आगे अपना तन-मन-धन सब कुछ भेट कर दूँ। (क्योंकि प्रभु को मिल के) मन की भटकना और सहम दूर हो जाते हैं, जम की नजर भी खत्म हो जाती है, (मौत का सहम भी खत्म हो जाता है)।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |