श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तता ता सिउ प्रीति करि गुण निधि गोबिद राइ ॥ फल पावहि मन बाछते तपति तुहारी जाइ ॥ त्रास मिटै जम पंथ की जासु बसै मनि नाउ ॥ गति पावहि मति होइ प्रगास महली पावहि ठाउ ॥ ताहू संगि न धनु चलै ग्रिह जोबन नह राज ॥ संतसंगि सिमरत रहहु इहै तुहारै काज ॥ ताता कछू न होई है जउ ताप निवारै आप ॥ प्रतिपालै नानक हमहि आपहि माई बाप ॥३२॥

पद्अर्थ: निधि = खजाना। तपति = जलना, तपश। त्रास = डर। पंथ = रास्ता। जासुमनि = जिसके मन में। महली = प्रभु के घर में। ठाउ = स्थान। ताह संगि = तेरे साथ। ताता = जलन, कष्ट। आपहि = खुद ही।32।

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) उस गोबिंद राय के साथ प्यार डाल जो सारे गुणों का खजाना है, मन-इच्छित फल हासिल करेगा, तेरे मन की (तृष्णा की आग) तपश दूर हो जाएगी। जिस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम बस पड़े, उसका जमों के रास्ते का डर मिट जाता है (मौत का सहम खत्म हो जाता है)।

(हे भाई! नाम की इनायत से) उच्च आत्मिक अवस्था हासिल करेगा, तेरी बुद्धि रौशन हो जाएगी, प्रभु चरणों में तेरी तवज्जो टिकी रहेगी। (माया वाली) भटकना छोड़, धन-जवानी-राज किसी चीज ने भी तेरे साथ नहीं जाना; सत्संग में रहके प्रभु का नाम स्मरण किया कर। बस! यही अंत में तेरे काम आएगा। (प्रभु का हो के रह) जब प्रभु स्वयं दुख-कष्ट दूर करने वाला (सिर पर) हो तो कोई मानसिक कष्ट नहीं रह सकता।

हे नानक! (कह:) प्रभु खुद माता-पिता की तरह हमारी पालना करता है।32।

सलोकु ॥ थाके बहु बिधि घालते त्रिपति न त्रिसना लाथ ॥ संचि संचि साकत मूए नानक माइआ न साथ ॥१॥

पद्अर्थ: संचि = इकट्ठी करके। साकत = माया ग्रसित जीव।1।

अर्थ: हे नानक! माया-ग्रसित जीव माया की खातिर कई तरह की दौड़-भाग करते हैं, पर संतुष्ट नहीं होते, तृष्णा खत्म नहीं होती, माया जोड़-जोड़ के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, माया भी साथ नहीं निभती।1।

पउड़ी ॥ थथा थिरु कोऊ नही काइ पसारहु पाव ॥ अनिक बंच बल छल करहु माइआ एक उपाव ॥ थैली संचहु स्रमु करहु थाकि परहु गावार ॥ मन कै कामि न आवई अंते अउसर बार ॥ थिति पावहु गोबिद भजहु संतह की सिख लेहु ॥ प्रीति करहु सद एक सिउ इआ साचा असनेहु ॥ कारन करन करावनो सभ बिधि एकै हाथ ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि नानक जंत अनाथ ॥३३॥

पउड़ी: बंच = ठगी। बल छल = छल कपट, फरेब। स्रम = श्रम, मेहनत। गावार = हे मूर्ख! अउसर = अवसर, समय। थिति = शांति, टिकाव। सिख = शिक्षा। असनेहु = नेह, स्नेह, प्यार (दो पंजाबी रूप = ‘नेहु’ और ‘असनेहु’; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।33।

अर्थ: पउड़ी: हे मूर्ख! किसी ने भी यहाँ सदा बैठे नहीं रहना, क्यूँ पैर पसार रहा है? (क्यूँ माया के पसारे पसार रहा है?) तू सिर्फ माया वास्ते ही कई पापड़ वेल रहा है, अनेक ठगी-फरेब कर रहा है।

हे मूर्ख! तू धन जोड़ रहा है, (धन की खातिर) दौड़-भाग करता है, और थक-टूट जाता है, पर अंत के समय ये धन तेरी जिंद के काम नहीं आएगा।

(हे भाई!) गुरमुखों की शिक्षा ध्यान से सुन, परमात्मा का भजन कर, आत्मिक शान्ति (तभी) मिलेगी। सदा सिर्फ परमात्मा से (दिल से) प्रीति बना, यही प्यार सदा कायम रहने वाला है।

(पर) हे नानक! (कह: हे प्रभु!) ये जीव बिचारे (माया के मुकाबले में बेबस) हैं, जिधर तू इन्हें लगाता है, उधर ही लगते हैं, हरेक सबब तेरे हाथ में है, तू ही सब कुछ कर सकता है, (और जीव से) करवा सकता है।33।

सलोकु ॥ दासह एकु निहारिआ सभु कछु देवनहार ॥ सासि सासि सिमरत रहहि नानक दरस अधार ॥१॥

पद्अर्थ: दासहि = दासों ने। निहारिआ = देखा है। अधार = आसरा।1।

अर्थ: हे नानक! प्रभु के सेवकों ने ये देख लिया है (ये निश्चय कर लिया है) कि हरेक दाति प्रभु खुद ही देने वाला है (इस वास्ते वह माया की टेक रखने की बजाय) प्रभु के दीदार को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना के श्वास-श्वास उसे याद करते हैं।1।

पउड़ी ॥ ददा दाता एकु है सभ कउ देवनहार ॥ देंदे तोटि न आवई अगनत भरे भंडार ॥ दैनहारु सद जीवनहारा ॥ मन मूरख किउ ताहि बिसारा ॥ दोसु नही काहू कउ मीता ॥ माइआ मोह बंधु प्रभि कीता ॥ दरद निवारहि जा के आपे ॥ नानक ते ते गुरमुखि ध्रापे ॥३४॥

पद्अर्थ: अगनत = अ+गनत, जो गिने ना जा सकें। दैनहारु = दातार। ताहि = उसे। मीता = हे मित्र! प्रभि = प्रभु ने। बंधु = बाँध, रोक। ध्रापे = तृप्त हो जाते हैं। ते ते = वह वह लोग।34।

अर्थ: पउड़ी। एक प्रभु ही (ऐसा) दाता है जो सब जीवों को रिजक पहुँचाने के समर्थ है, उसके बेअंत खजाने भरे पड़े हैं, बाँटते हुए खजानों में कमी नहीं आती।

हे मूर्ख मन! तू सदा दातार को क्यूँ भुलाता है जो सदा तेरे सिर पर मौजूद है?

पर हे मित्र! किसी जीव को ये दोष भी नहीं दिया जा सकता (कि माया के मोह में फंस के तू दातार को क्यूं बिसर रहा है, दरअसल बात ये है कि जीव के आत्मिक जीवन की राह में) प्रभु ने खुद ही माया के मोह के बाँध बना रखे हैं।

हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जिस लोगों के दिल में से तू खुद ही (माया के मोह की) चुभन दूर करता है, वह गुरु की शरण में पड़ कर माया की ओर से तृप्त हो जाते हैं (तृष्णा समाप्त कर लेते हैं)।34।

सलोकु ॥ धर जीअरे इक टेक तू लाहि बिडानी आस ॥ नानक नामु धिआईऐ कारजु आवै रासि ॥१॥

पद्अर्थ: जीअरे = हे जिंदे! लाहि = दूर कर। बिडानी = बेगानी।1।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! सिर्फ परमात्मा का आसरा ले, उस के बगैर किसी और (की सहायता) की उम्मीद छोड़ दे। हे नानक! सदा प्रभु की याद मन में बसानी चाहिए, हरेक काम सफल हो जाता है।1।

पउड़ी ॥ धधा धावत तउ मिटै संतसंगि होइ बासु ॥ धुर ते किरपा करहु आपि तउ होइ मनहि परगासु ॥ धनु साचा तेऊ सच साहा ॥ हरि हरि पूंजी नाम बिसाहा ॥ धीरजु जसु सोभा तिह बनिआ ॥ हरि हरि नामु स्रवन जिह सुनिआ ॥ गुरमुखि जिह घटि रहे समाई ॥ नानक तिह जन मिली वडाई ॥३५॥

पद्अर्थ: धावत = (माया की खातिर) दौड़ना। तउ = तब। बासु = बसेरा। धुर ते = धुर से, अपने दर से। मनहि = मन में। परगासु = प्रकाश, सही जीवन की सूझ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। तेऊ = वही लोग। विसाहा = पसारा, व्यापार किया। धीरजु = गंभीरता, जिगरा। तिह = उनका। स्रवन = श्रवण, कानों से। जिह घटि = जिनके हृदय में।३५।

अर्थ: पउड़ी: यदि संतों की संगत में उठना-बैठना हो जाए, तो (माया की खातिर मन की बेसब्री वाली) भटकना मिट जाती है। (पर ये कोई आसान खेल नहीं। हे प्रभु!) जिस जीव पर तू अपने दर से मेहर करता है, उसके मन में जीवन की सही सूझ पड़ती है (और उसकी भटकना समाप्त होती है)। (उसे ये ज्ञान होता है) कि असल सच्चे शाहूकार वे हैं (जिनके पास) सदा स्थिर रहने वाला नाम-धन है, जो हरि-नाम की पूंजी का व्यापार करते हैं। जो लोग हरि नाम (ध्यान से) कानों से सुनते हैं, उनके अंदर गंभीरता आती है, वे आदर सत्कार कमाते हैं।

हे नानक! गुरु के द्वारा जिनके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, उन्हें (लोक-परलोक में) मान-सम्मान प्राप्त होता है।35।

सलोकु ॥ नानक नामु नामु जपु जपिआ अंतरि बाहरि रंगि ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नरकु नाहि साधसंगि ॥१॥

पद्अर्थ: नामु नामु = प्रभु का नाम ही नाम। अंतरि बाहरि = अंदर बाहर, काम काज करते हुए, हर वक्त। रंगि = प्यार में। गुरि = गुरु को। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया। नरकु = दुख-कष्ट।1।

अर्थ: हे नानक! जिस लोगों ने काम काज करते हुए प्यार से प्रभु का नाम ही जपा है (कभी भी भूले नहीं) उन्हें पूरे गुरु ने परमात्मा अपने नजदीक दिखा दिया है, गुरु की संगति में रह के उन्हें घोर दुख नहीं होता।1।

पउड़ी ॥ नंना नरकि परहि ते नाही ॥ जा कै मनि तनि नामु बसाही ॥ नामु निधानु गुरमुखि जो जपते ॥ बिखु माइआ महि ना ओइ खपते ॥ नंनाकारु न होता ता कहु ॥ नामु मंत्रु गुरि दीनो जा कहु ॥ निधि निधान हरि अम्रित पूरे ॥ तह बाजे नानक अनहद तूरे ॥३६॥

पउड़ी: नरकि = नर्क में, घोर दुख में। ते = वह लोग। परहि = पड़ते हैं। निधानु = (सब गुणों का) खजाना। बिखु = विष, जहर, मौत का मूल। नंनकार = ना, इन्कार, रुकावट। मंत्रु = उपदेश। जा कहु = जिनको। निधि = खजाना। निधान = खजाने। पूरे = भरे हुए। तह = वहाँ, उस हृदय में। बाजे = बजते हैं। अनहद = (हन्: to strike, चोट लगानी, किसी साज को उंगलियों से बजाना) बिना बजाए, एक रस। तूरे = बाजे।36।

अर्थ: पउड़ी: जिनके मन में तन में प्रभु का नाम बसा रहता है वे घोर दुखों के गड्ढे में नहीं पड़ते। जो लोग गुरु के द्वारा प्रभु नाम को सब पदार्थों का खजाना जान के जपते हैं, वह (फिर) आत्मिक मौत मरने वाली माया (के मोह) में (दौड़-भाग करते) नहीं खपते। जिन्हें गुरु ने नाम मंत्र दे दिया, उनके जीवन-सफर में (माया) कोई रोक नहीं डाल सकती।

हे नानक! जो हृदय शुभ-गुणों के खजाने हरि-नाम अंमृत से भरे रहते हैं, उनके अंदर एक ऐसा आनंद बना रहता है जैसे एक-रस सब किस्मों के बाजे एक साथ मिल के बज रहे हों।36।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh