श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 266 बहुतु सिआणप जम का भउ बिआपै ॥ अनिक जतन करि त्रिसन ना ध्रापै ॥ भेख अनेक अगनि नही बुझै ॥ कोटि उपाव दरगह नही सिझै ॥ छूटसि नाही ऊभ पइआलि ॥ मोहि बिआपहि माइआ जालि ॥ अवर करतूति सगली जमु डानै ॥ गोविंद भजन बिनु तिलु नही मानै ॥ हरि का नामु जपत दुखु जाइ ॥ नानक बोलै सहजि सुभाइ ॥४॥ पद्अर्थ: सिआणप = चतुराई। भउ = डर। बिआपै = व्यापता है, जोर डाल लेता है। करि = कर के, करने से। त्रिसन = प्यास, लालच। न ध्रापै = नहीं तृप्त होती, भूख नहीं मिटती। भेख = धार्मिक पोशाक। अगनि = आग, लालच की आग। कोटि = करोड़ों। उपाव = उपाय, तरीके, वसीले। सिझै = कामयाब होता। छूटसि नाही = बच नहीं सकता। ऊभ = ऊपर, आकाश में। पइआल = पाताल में। ऊभ पइआल = चाहे आकाश पे चढ़ जाए, चाहे पाताल में छुप जाए। मोहि = मोह में। बिआपहि = फस जाते हैं। जालि = जाल में। डानै = दण्ड लगाता है। तिलु = तिल मात्र भी। मानै = मानता है। सहजि = अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम।4। अर्थ: (जीव की) बहुत चतुराई (के कारण) जमों का डर (जीव को) आ दबाता है (क्योंकि चतुराई के) अनेक यत्न करने से (माया की) प्यास नहीं बुझती। अनेक (धार्मिक) भेख करने से (तृष्णा की) आग नहीं बुझती, (ऐसे) करोड़ों तरीके (बरतने से प्रभु की) दरगाह में सही स्वीकार नहीं होते। (इन यत्नों से) जीव चाहे आकाश पे चढ़ जाए, चाहे पाताल में छुप जाए, (माया से) बच नहीं सकता, (बल्कि) जीव माया के जाल में व मोह में फंसते हैं। (नाम के बिना) और सारी करतूतों को यमराज दण्ड लगाता है, प्रभु के भजन के बिना रक्ती भर भी नहीं पतीजता। हे नानक! (जो मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम से (हरि नाम) उच्चारता है (उसका दुख प्रभु का नाम जपते ही दूर हो जाता है)।4। चारि पदारथ जे को मागै ॥ साध जना की सेवा लागै ॥ जे को आपुना दूखु मिटावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद गावै ॥ जे को अपुनी सोभा लोरै ॥ साधसंगि इह हउमै छोरै ॥ जे को जनम मरण ते डरै ॥ साध जना की सरनी परै ॥ जिसु जन कउ प्रभ दरस पिआसा ॥ नानक ता कै बलि बलि जासा ॥५॥ पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। को = कोई मनुष्य। रिदै = हृदय में। सद = सदा। लोरै = चाहे। साध संगि = भले लोगों की संगत में (रह के)। छोरै = छोड़ दे। प्रभ दरस पिआसा = प्रभु के दर्शन की चाह। ता कै = उस से। जासा = जाऊँ। बलि जासा = सदके जाऊँ।5। अर्थ: अगर कोई मनुष्य (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) चार पदार्थों का अभिलाशी हो, (तो उसे चाहिए कि) गुरमुखों की सेवा में लगे। अगर कोई मनुष्य अपना दुख मिटाना चाहे तो प्रभु का नाम सदा हृदय में स्मरण करे। अगर कोई मनुष्य अपनी शोभा चाहता हो तो सत्संगि में (रह के) इस अहंकार का त्याग करे। अगर कोई मनुष्य जनम मरन के चक्कर से डरता हो, तो वह संतों की चरणीं लगे। हे नानक! (कह कि) जिस मनुष्य को प्रभु के दीदार की चाहत है, मैं उससे सदा सदके जाऊँ। सगल पुरख महि पुरखु प्रधानु ॥ साधसंगि जा का मिटै अभिमानु ॥ आपस कउ जो जाणै नीचा ॥ सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा ॥ जा का मनु होइ सगल की रीना ॥ हरि हरि नामु तिनि घटि घटि चीना ॥ मन अपुने ते बुरा मिटाना ॥ पेखै सगल स्रिसटि साजना ॥ सूख दूख जन सम द्रिसटेता ॥ नानक पाप पुंन नही लेपा ॥६॥ पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। सगल = सारे। पुरख = मनुष्य। आपस कउ = अपने आप को। नीचा = नीचा, बुरा। सोऊ = उसी मनुष्य को। गनीऐ = जानें, समझें। रीना = धूल, चरणों की धूल। नामु = सर्व व्यापक ताकत। तिनि = उस (मनुष्य ने)। घटि घटि = हरेक शरीर में। चीना = पहिचान लिया है। बुरा = बुराई। पेखै = देखता है। सम = बराबर, एक जैसा। द्रिसटेता = देखने वाला। लेपा = असर, प्रभाव। जन = (वे) मनुष्य।6। अर्थ: सत्संग में (रह के) जिस मनुष्य का अहंकार मिट जाता है (वह) मनुष्य सारे मनुष्यों में बड़ा है। जो मनुष्य अपने आप को (सब से) बुरे कामों वाला मानता है, उसे सभी से बढ़िया समझना चाहिए। जिस मनुष्य का मन सबके चरणों की धूल होता है (भाव, जो सबसे गरीबी-भाव बरतता है) उस मनुष्य ने हरेक शरीर में प्रभु की सत्ता पहिचान ली है। जिसने अपने मन में से बुराई मिटा दी है, वह सारी सृष्टि (के जीवों को अपना) मित्र देखता है। हे नानक! (ऐसे) मनुष्य सुखों और दुखों को एक जैसा समझते हैं, (तभी तो) पाप और पुण्य का उनपे असर नहीं होता (भाव, ना कोई बुरा कर्म उनके मन को फसा सकता है, और ना ही स्वर्ग आदि का लालच करके या दुख-कष्ट से डरके वे पुण्य-कर्म करते हैं, उनका स्वभाव ही नेकी करना बन जाता है)।6। निरधन कउ धनु तेरो नाउ ॥ निथावे कउ नाउ तेरा थाउ ॥ निमाने कउ प्रभ तेरो मानु ॥ सगल घटा कउ देवहु दानु ॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ अपनी गति मिति जानहु आपे ॥ आपन संगि आपि प्रभ राते ॥ तुम्हरी उसतति तुम ते होइ ॥ नानक अवरु न जानसि कोइ ॥७॥ पद्अर्थ: निरधन = धन हीन, कंगाल। कउ = को, वास्ते। निथावे कउ = निआसरे को। थाउ = आसरा। निमाना = जिसे कहीं मान आदर ना मिले, दीन। घट = शरीर, प्राणी। देवहु = तू देता है। अंतरजामी = अंदर की जानने वाला, दिल की बूझने वाला। गति = हालत, अवस्था। प्रभ = हे प्रभु! राते = मगन, मस्त। उसतति = शोभा, महिमा। तुम ते = तुझसे। कोइ = कोई और।7। अर्थ: (हे प्रभु!) कंगाल के लिए तेरा नाम ही धन है, निआसरे को तेरा आसरा है। निमाणे के वास्ते तेरा (नाम), हे प्रभु! आदर मान है,? तू सारे जीवों को दातें देता है। हे स्वामी! हे सारे प्राणियों के दिल की जानने वाले! तू खुद ही सब कुछ करता है, और स्वयं ही कराता है। हे प्रभु! तू अपनी हालत और अपनी (बड़ाई) की मर्यादा आप ही जानता है; तू अपने आप में खुद ही मगन है। हे नानक! (कह कि, हे प्रभु!) तेरी महिमा (बड़ाई) तुझसे ही (बयान) हो सकती है, कोई और तेरी महिमा नहीं जानता।7। सरब धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि को नामु जपि निरमल करमु ॥ सगल क्रिआ महि ऊतम किरिआ ॥ साधसंगि दुरमति मलु हिरिआ ॥ सगल उदम महि उदमु भला ॥ हरि का नामु जपहु जीअ सदा ॥ सगल बानी महि अम्रित बानी ॥ हरि को जसु सुनि रसन बखानी ॥ सगल थान ते ओहु ऊतम थानु ॥ नानक जिह घटि वसै हरि नामु ॥८॥३॥ पद्अर्थ: स्रेसट = श्रेष्ठ, सबसे अच्छा। निरमल = पवित्र, शुद्ध। करमु = कर्म, आचरण। क्रिया = धार्मिक रस्म। दुरमति = बुरी मति। हिरिआ = दूर की। जीअ = हे जी! हे मन! अम्रित = अमृत, अमर करने वाली। रसन = जीभ। बखानी = उचार, बोल। जिह घट = जिस घट में, जिस शरीर में, जिस हृदय में।8। अर्थ: (हे मन!) प्रभु का नाम जप (और) पवित्र आचरण (बना) - ये धर्म सारे धर्मों से बढ़िया है। सत्संग में (रहके) बुरी मति (रूपी) मैल दूर की जाए-ये काम और सारे धार्मिक रस्मों से उत्तम है। हे मन! सदा प्रभु का नाम जप- ये उद्यम (और) सारे उद्यमों से भला है। प्रभु का यश (कानों से) सुन (और) जीभ से बोल- (प्रभु के यश की ये) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी और सब बाणियों से सुंदर है। हे नानक! जिस हृदय में प्रभु का नाम बसता है, वह (हृदय-रूपी) जगह और सभी जगहों (तीर्थों) स्थानों से पवित्र है।8।3। सलोकु ॥ निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥ जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥ पद्अर्थ: निरगुनीआर = हे निरगुण जीव! हे गुणहीन जीव! इआनीआ = हे अंजान! समालि = याद रख, याद कर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कीआ = पैदा किया। तिसु = उसे। चिति = चिक्त में। निबही = निभता है, साथ निभाता है।1। अर्थ: हे अंजान! हे गुणहीन (मनुष्य)! उस मालिक को सदा याद कर। हे नानक! जिस ने तुझे पैदा किया है, उसे चिक्त में (परो के) रख, वही (तेरा) साथ निभाएगा।1। असटपदी ॥ रमईआ के गुन चेति परानी ॥ कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥ जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥ गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥ भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥ बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥ मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥ इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥ बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥ पद्अर्थ: रमईआ = सुंदर राम। चेति = याद कर। परानी = हे जीव! द्रिसटानी = दिखा दिया। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तूं = तुझे। साजि = पैदा करके। सवारि = सजा के। गरभ अगनि = पेट की आग। उबारिआ = बचाइआ। बार = बालक। बिवसथा = उम्र, हालत। पिआरै = पिलाता है। भरि जोबन = जवानी के भर में, भरी जवानी में। सूध = सूझ। बिरधि = बुढा। उपरि = ऊपर, सेवा करने को। सैन = सज्जन, मित्र। मुखि = मुंह में। अपिआउ = (संस्कृत: आप्य to grow fat. (cause) To make fat or comfortable, आप्यायनं) अच्छे भोजन। बैठ कउ = बैठे को। दैन = देते हैं।1। अर्थ: हे जीव! सुंदर राम के गुण याद कर, (देख) किस आदि से (तुझे) कितना (सुंदर बना के उसने) दिखाया है। जिस प्रभु ने बना सँवार के सुंदर किया है, जिसने तुझे पेट की आग में (भी) बचाया; जो बाल उम्र में तुझे दूध पिलाता है, भरी जवानी में भोजन व सुखों की सूझ (देता है); (जब तू) बुड्ढा हो जाता है (तो) सेवा करने को साक-सज्जन (तैयार कर देता है) जो बैठे हुए को मुंह में बढ़िया भोजन देते हैं, (उस प्रभ को चेते कर)। (पर) हे नानक! (कह, हे प्रभु!) ये गुणहीन जीव (तेरा) कोई उपकार नहीं समझता, (अगर) तू खुद मेहर करे, तो (ये जन्म उद्देश्य में) सफल हो।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |