श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 267 जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥ सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥ जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥ सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥ जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥ सगल समग्री संगि साथि बसा ॥ दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥ तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥ ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥ नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥ पद्अर्थ: जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। धर = धरती। सुखि = सुख से। बसहि = तू बसता है। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। हसहि = तू हसता है। सीतल = ठंडा। पवनु = हवा। पावकु = आग। सगल = सारे। समग्री = पदार्थ। हसत = हाथ। पाव = पैर। करन = कान। नेत्र = आँखें। रसना = जीभ। तिसहि = उस (प्रभु) को। तिआगि = छोड़ के, विसार के। रचना = व्यस्त है, मगन है। दोख = बुरे कर्म। मूढ़ = मूर्ख जीव। बिआपे = फसे हुए हैं।2। अर्थ: (हे जीव!) जिस (प्रभु) की कृपा से तू धरती पर सुखी बसता है, पुत्र भाई स्त्री के साथ हसता है; जिसकी मेहर से तू ठंडा पानी पीता है, सुख देने वाली हवा व अमुल्य आग (इस्तेमाल करता है); जिसकी कृपा से सारे रस भोगता है, सारे पदार्थों के साथ तू रहता है (भाव, सारे पदार्थ बरतने के लिए तुझे मिलते हैं); (जिस ने) तुझे हाथ पैर कान नाक जीभ दिए हैं, उस (प्रभु) को विसार के (हे जीव!) तू औरों के साथ मगन है। (ये) मूर्ख अंधे जीव (भलाई भुला देने वाले) ऐसे अवगुणों में फंसे हुए हैं। हे नानक! (इन जीवों के लिए प्रार्थना कर, और कह) - हे प्रभु! (इन्हें) स्वयं (इन अवगुणों में से) निकाल ले।2। आदि अंति जो राखनहारु ॥ तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥ जा की सेवा नव निधि पावै ॥ ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥ जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥ ता कउ अंधा जानत दूरे ॥ जा की टहल पावै दरगह मानु ॥ तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥ सदा सदा इहु भूलनहारु ॥ नानक राखनहारु अपारु ॥३॥ पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से (भाव, जन्म के समय से)। अंति = आखीर तक (भाव, मरने तक)। गवारु = मूर्ख मनुष्य। जा की = जिस (प्रभु) की। नव निधि = नौ खजाने। ता सिउ = उससे। मूढ़ा = मूर्ख। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। ता कउ = उस को। तिसहि = उस (प्रभु) को। मुगध = मूर्ख। इहु = ये (जीव)। अपारु = बेअंत।3। अर्थ: मूर्ख मनुष्य उस प्रभु से प्यार नहीं करता, जो (इसके) जनम से ले कर मरने के समय तक (इसकी) सक्षा करने वाला है। मूर्ख जीव उस प्रभु के साथ चिक्त नहीं जोड़ता, जिसकी सेवा करने से (इसे सृष्टि के) नौ ही खजाने मिल जाते हैं। अंधा मनुष्य उस ठाकुर को (कहीं) दूर (बैठा) समझता है, जो हर समय इसके अंग-संग है। मूर्ख और अंजान जीव उस प्रभु को विसार बैठता है, जिसकी टहल करने से इसे (प्रभु की) दरगाह में आदर मिलता है। (पर कौन कौन सा अवगुण चितारें?) ये जीव (तो) सदा ही भूलें करता रहता है; हे नानक! रक्षा करने वाला प्रभु बेअंत है (वह इस जीव के अवगुणों की तरफ नहीं देखता)।3। रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥ साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥ जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥ जो होवनु सो दूरि परानै ॥ छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥ संगि सहाई तिसु परहरै ॥ चंदन लेपु उतारै धोइ ॥ गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥ अंध कूप महि पतित बिकराल ॥ नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥ पद्अर्थ: रचै = व्यस्त रहता है, खुश रहता है। छोडि = छोड़ के। मचै = जलता है, आकड़ता है। जो = जो (धन पदार्थ)। सु = उसे। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। होवनु = होवनहार, जरूर होना है (भाव, मौत)। परानै = पहिचानता है, समझता है। तिस का = उस का, उस की खातिर। स्रम = मेहनत, श्रम। सहाई = सहायता करने वाला। परहरै = छोड़ देता है। उतारै = उतार देता है। गरधग प्रीति = गधे का प्यार। भसम = राख। कूप = कूआँ। पतित = गिरा हुआ। बिकराल = डरावना। बिकराल कूप महि = भयानक कूएं में। प्रभ = हे प्रभु!।4। अर्थ: (माया धारी जीव) (नाम-) रत्न छोड़ के (माया रूपी) कौड़ी से खुश रहता है। सच्चे (प्रभु) को छोड़ के नाशवान (पदार्थों) के साथ जलता रहता है। जो (माया) छोड़ जानी है, उसे सदा अटल समझता है; जो (मौत) जरूर घटित होनी है, उसे (कहीं) दूर (बैठी) ख्याल करता है। उस (धन पदार्थ) की खातिर (नित्य) मुशक्कत करता (फिरता) है जो (आखिर में) छोड़ जानी है; जो (प्रभु) (इस) के साथ रक्षक है उसे विसार बैठा है। गधे का प्यार (सदा) राख से (ही) होता है, चंदन का लेप धो के उतार देता है। (जीव माया के) अंधेरे भयानक कूएं में गिरे पड़े हैं; हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे दयालु प्रभु! (इन्हें स्वयं इस कूएं में से) निकाल ले।4। करतूति पसू की मानस जाति ॥ लोक पचारा करै दिनु राति ॥ बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥ छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥ बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥ अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥ अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥ गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥ जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥ नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥ पद्अर्थ: मानस = मनुष्य की। पचारा = (संस्कृत: ऊपचार) दिखावा। अंतरि = मन में। कछु करै = (चाहे) कोई (प्रयत्न) करे। बिआपै = जोर डाल रहा है। सुआनु = कुक्ता। अगनि = (तृष्णा की) आग। गलि = गले में। अथाह = जिसकी गहराई का पता ना लग सके। जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। सहजि = सहज में, उस अवस्था में जहाँ मन डोलता नहीं। समाति = समा जाता है, टिक जाता है।5। अर्थ: जाति मनुष्य की है (भाव, मनुष्य श्रेणी में पैदा हुआ है) पर काम पशुओं वाले हैं, (वैसे) दिन रात लोगों के लिए दिखावा कर रहा है। बाहर (शरीर पर) धार्मिक पोशाक है पर मन में माया की मैल है, (बाहर के भेस से) छुपाने का यनत करने से (मन की मैल) छुपती नहीं। बाहर (दिखावे के लिए) (तीर्थ) स्नान व ज्ञान की बातें करता है, समाधियां भी लगाता है, पर मन में लोभ (रूपी) कुक्ता अपना जोर डाल रहा है। मन में (तृष्णा की) आग है, बाहर शरीर राख (से लिबड़ा हुआ है); (यदि) गले में (विकारों के) पत्थर (हों तो) अथाह (संसार समुंदर को जीव) कैसे तैरे? जिस जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु आ बसता है, हे नानक! वही अडोल अवस्था में टिके रहते हैं।5। सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥ करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥ कहा बुझारति बूझै डोरा ॥ निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥ कहा बिसनपद गावै गुंग ॥ जतन करै तउ भी सुर भंग ॥ कह पिंगुल परबत पर भवन ॥ नही होत ऊहा उसु गवन ॥ करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥ नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥ पद्अर्थ: सुनि = सुन के। मारगु = रास्ता। पावै = ढूँढ ले। करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ ले। ओड़ि = आखिर तक। बुझारति = पहेली। डोरा = बहरा। निसि = रात। भोरा = दिन। भंग = टूटी हुई। पिंगुल = लूला। परभवन = प्रभवन, यहां वहां घूमना। उस = उसकी। गवन = पहुँच। करुणा = तरस। करुणा मै = दया करने वाला। दीनु = निमाणा (जीव)।6। (नोट: संस्कृत ‘मय’, पंजाबी ‘मै’ is an affix used to indicate ‘made of, consisting of, full of’)। अर्थ: अंधा मनुष्य (निरा) सुन के कैसे राह ढूँढ ले? (हे प्रभु! स्वयं इसका) हाथ पकड़ लो (ता कि ये) आखिर तक (प्रीति) निबाह सके। बहरा मनुष्य (निरी) बुझारत को क्या समझे? (बुझारत से) कहें (ये) रात है तो वह समझ लेता है (ये) दिन (है)। गूँगा कैसे विष्णु-पद गा सके? (कई) प्रयत्न (भी) करे तो भी उसकी सुर टूटी रहती है। लंगड़ा कैसे पहाड़ों पे चढ़ सकता है? वहां उसकी पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक! (इस हालत में केवल अरदास कर और कह) हे कर्तार! हे दया के सागर! (ये) निमाणा दास विनती करता है, तेरी मेहर से (ही) तैर सकता है।6। संगि सहाई सु आवै न चीति ॥ जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥ बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥ अनद केल माइआ रंगि रसै ॥ द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥ कालु न आवै मूड़े चीति ॥ बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥ झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥ इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥ नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥ पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। बैराई = वैरी। बलूआ = रेत। ग्रिह = घर। भीतरि = में। रंगि = रंग में, मस्ती में। केल = खेल मस्ती। द्रिढ़ु = पक्का। मनहि = मन में। प्रतीति = यकीन। मूढ़े चिति = मूर्ख के चिक्त में। कालु = मौत। बिरोध = विरोध। ध्रोह = दगा, ठगी। इआहू जुगति = इस तरीके से। बिहाने = गुजर गए हैं। आपन करम = अपनी मेहर।7। अर्थ: जो प्रभु (इस मूर्ख का) संगी-साथी है, उस को (ये) याद नहीं करता, (पर) जो वैरी है उससे प्यार कर रहा है। रेत के घर में बसता है (भाव, रेत के कणों की भांति उम्र छिन छिन कर के किर रही है), (फिर भी) माया की मस्ती में आनंद मौजें मना रहा है। (अपने आप को) अमर समझे बैठा है, मन में (यही) यकीन बना हुआ है; पर मूर्ख के चिक्त में (कभी) मौत (का ख्याल भी) नहीं आता। वैर विरोध, काम, गुस्सा, मोह, झूठ, बुरे कर्म, खूब लालच और दगा- इसी राह पर पड़ के (इसके) कई जनम गुजर गए हैं। हे नानक! (इस बिचारे जीव के लिए प्रभु-दर पर प्रार्थना कर और कह:) अपनी मेहर करके (इसे) बचा लो।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |