श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥ तुम मात पिता हम बारिक तेरे ॥ तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥ कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥ ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥ सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥ तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥

पद्अर्थ: तुम पहि = तेरे पास। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, बख्शीश। घनेरे = बहुत। समग्री = पदार्थ। सूति = सूत्र में, मर्यादा में, हुक्म में। धारी = टिकी हुई है। तुम ते = तुम से। होइ = (जो कुछ) अस्तित्व में आया है, पैदा हुआ है। आगिआकारी = (तेरे) हुक्म को मान रहा है। कुरबानी = सदके। मिति = मर्यादा, अंदाजा। गति = हालत।8।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू मालिक है (हम जीवों की) अर्ज तेरे आगे ही है, ये जिंद और शरीर (जो तूने हमें दिया है) सब तेरी ही कृपा है।

तू हमारा माँ-बाप है, हम तेरे बच्चे हैं, तेरी मेहर (की नजर) में बेअंत सुख हैं।

कोई तेरा अंत नहीं पा सकता, (क्योंकि) तू सबसे ऊँचा भगवान है।

(जगत के) सारे पदार्थ तेरे ही हुक्म में टिके हुए हैं; तेरी रची हुई सृष्टि तेरी ही आज्ञा में चल रही है।

तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये तो तू स्वयं ही जानता है। हे नानक! (कह, हे प्रभु!) तेरे सेवक (तुझसे) सदा सदके जाते हैं।8।4।

सलोकु ॥ देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥ नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: लागहि = लगते हैं। आन = अन्य। सुआइ = स्वाद में, स्वार्थ में। कहू न = कभी नहीं। सीझई = सफल होता, कामयाब होता। पति = इज्जत।1।

अर्थ: (सारी दातें) देने वाले प्रभु को छोड़ के (जीव) अन्य स्वाद में लगते हैं; (पर) हे नानक! (ऐसा) कभी (कोई मनुष्य जीवन-यात्रा में) कामयाब नहीं होता (क्योंकि प्रभु के) नाम के बिना इज्जत नहीं रहती।1।

असटपदी ॥ दस बसतू ले पाछै पावै ॥ एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥ एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥ तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥ जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥ ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥ जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥ सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥ जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥ सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: बसतू = चीजें। ले = ले कर। पाछै पावै = संभाल लेता है। बिखोटि = बि+खोट (संस्कृत: ख्रोटि a cunning or shrewed woman, बि = without) खोट हीनता, खरा पन, एतबार। हिरि लेइ = छीन ले। मूढ़ा = मूर्ख। कहा करेइ = क्या कर सकता है? चारा = जोर, पेश। सद = सदा। सरब = सारे। ताहू मनि = उसी के मन में। वूठा = आ बसते हैं। जिसु जन = जिस मनुष्य को। थोक = पदार्थ। तिनि = उस (मनुष्य) ने।1।

अर्थ: (मनुष्य प्रभु से) दस चीजें लेकर संभाल लेता है, (पर) एक चीज की खातिर अपना एतबार गवा लेता है (क्योंकि मिली हुई चीजों के बदले शुक्रिया तो करता नहीं, जो नहीं मिली उसका गिला करता रहता है)।

(अगर प्रभु) एक चीज भी ना दे, और, दस (दी हुई) भी छीन ले, तो बताओ, ये मूर्ख क्या कर सकता है?

जिस मालिक के साथ पेश नहीं चल सकती, उसके आगे सिर निवाना ही चाहिए, (क्योंकि) जिस मनुष्य के मन में प्रभु प्यारा लगता है, सारे सुख उसी के हृदय में आ बसते हैं।

हे नानक! जिस मनुष्य से प्रभु अपना हुक्म मनाता है, (दुनिया के) सारे पदार्थ (जैसे) उसने पा लिए हैं।1।

अगनत साहु अपनी दे रासि ॥ खात पीत बरतै अनद उलासि ॥ अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥ अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥ अपनी परतीति आप ही खोवै ॥ बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥ जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥ प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥ उस ते चउगुन करै निहालु ॥ नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥

पद्अर्थ: अगनत रासि = अनगिनत (पदार्थों) की पूंजी। दे = देता है। खात पीत = खाता पीता। बरतै = बरतता है। अनद उलासि = आनंद उल्लास, चाव खुशी से। अमान = अमानत। बहुरि = दुबारा। मनि = मन में। रोसु = गुस्सा। परतीति = एतबार। खोवै = गवा लेता है। बिस्वासु = विश्वास। निहालु = प्रसन्न, खुश।2।

अर्थ: (प्रभु) शाह अनगिनत (पदार्थों की) पूंजी (जीव बन्जारे को) देता है, (जीव) खता पीता चाव व खुशी से (इन पदार्थों को) बरतता है।

(यदि) शाह अपने कोई अमानत वापस ले ले, तो (ये) अज्ञानी मन में गुस्सा करता है;

(इस तरह) अपना एतबार स्वयं ही गवा लेता है, और पुनः इसका विश्वास नहीं किया जाता।

(अगर) जिस प्रभु की (बख्शी हुई) चीज है उसके आगे (खुद ही खुशी से) रख दे, और प्रभु का हुक्म (कोई चीज छीने जाने के समय) सिर माथे मान ले, तो (प्रभु उसे) आगे से चौगुना निहाल करता है। हे नानक! मालिक सदैव मेहर करने वाला है।2।

अनिक भाति माइआ के हेत ॥ सरपर होवत जानु अनेत ॥ बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥ ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥ जो दीसै सो चालनहारु ॥ लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥ बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥ ता कउ हाथि न आवै केह ॥ मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥ करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥

पद्अर्थ: भाति = किस्म। हेत = प्यार। सरपर = अंत को, अवश्य। जानु = समझ। अनेत = ना नित्य रहने वाले, नाशवान। बिरख = वृक्ष। रंगु = प्यार। ओह = वह (छाया)। उहु = वह मनुष्य (जो छाया के साथ प्यार डालता है)। मनि = मन में। दीसै = दिखाई देता है। चालनहारु = नाशवान, चले जाने वाला। लपटि रहिओ = जुड़ रहा है, लिपटा बैठा है। तह = वहाँ, उससे (जो चलायमान है)। अंध = अंधा। अंध अंधारु = अंधों का अंधा, महा मूर्ख। बटाऊ = राही, मुसाफिर। नेह = प्यार, मुहब्बत। ता कउ = उस को। हाथि = हाथ में। न केह = कुछ भी नहीं।3।

अर्थ: माया के प्यार अनेक किस्मों के हैं (भाव, माया के अनेक सुंदर रूप मनुष्य के मन को मोहते हैं), (पर ये सारे) अंत में नाश हो जाने वाले समझिए।

(अगर कोई मनुष्य) वृक्ष की छाया से प्यार डाल बैठे, (नतीजा क्या निकलेगा?) वह छाया नाश हो जाती है, और, वह मनुष्य मन में पछताता है।

(ये सारा जगत) जो दिखाई दे रहा है नाशवान है, इस (जगत) से ये अंधों का अंधा (जीव) चिपका बैठा है।

जो (भी) मनुष्य (किसी) राही से प्यार डाल बैठता है, (अंत को) उसके हाथ पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता।

हे मन! प्रभु के नाम का प्यार (ही) सुख देने वाला है; (पर) हे नानक! (ये प्यार उस मनुष्य को नसीब होता है, जिसे) प्रभु मेहर करके खुद लगाता है।3।

मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥ मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥ मिथिआ राज जोबन धन माल ॥ मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥ मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥ मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥ मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥ मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥ असथिरु भगति साध की सरन ॥ नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥

पद्अर्थ: मिथिआ = सदा कायम ना रहने वाला, जिसका मान करना झूठा हो। कुटंबु = परिवार। सबाइआ = सारा। ममता = मल्कियत की पकड़, ये ख्याल कि ये चीज मेरी है। जोबन = जवानी। बिकराल = डरावना। हसती = हाथी। अस्व = अश्व, घोड़े। बसत्रा = कपड़े। रंग संगि = प्यार से। पेखि = देख के। हसता = हसता है। ध्रोह = दगा। आपस ऊपरि = अपने ऊपर। असथिरु = सदा कायम रहने वाली। भगति = बंदगी, भजन। जपि जपि = सदा जप के।4।

अर्थ: (जब ये) शरीर, धन और सारा परिवार नाशवान है, (तो) माया की मल्कियत और अहंकार (भाव, धन व परिवार के कारण बड़प्पन) -इन पे मान भी झूठा।

राज जवानी और धन माल सब नाशवान हैं, (इस वास्ते इनके कारण) काम (की लहर) और भयानक क्रोध ये भी व्यर्थ हैं।

रथ, हाथी, घोड़े और (सुंदर) कपड़े सदा कायम रहने वाले नहीं हें, (इस सारी) माया को प्यार से देख के (जीव) हसता है, (पर ये हसना व गुमान भी) व्यर्थ है।

दगा, मोह और अहंकार- (ये सारे ही मन की) व्यर्थ (तरंगें) हैं; अपने ऊपर गुमान करना भी झूठा (नशा) है।

सदा कायम रहने वाली (प्रभु की) भक्ति (ही है जो) गुरु की शरण पड़ कर (की जाए)। हे नानक! प्रभु के चरण (ही) सदा जप के (मनुष्य) असल जीवन जीता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh