श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 270 जिह प्रसादि आरोग कंचन देही ॥ लिव लावहु तिसु राम सनेही ॥ जिह प्रसादि तेरा ओला रहत ॥ मन सुखु पावहि हरि हरि जसु कहत ॥ जिह प्रसादि तेरे सगल छिद्र ढाके ॥ मन सरनी परु ठाकुर प्रभ ता कै ॥ जिह प्रसादि तुझु को न पहूचै ॥ मन सासि सासि सिमरहु प्रभ ऊचे ॥ जिह प्रसादि पाई द्रुलभ देह ॥ नानक ता की भगति करेह ॥३॥ पद्अर्थ: आरोग = रोग रहित, निरोग। कंचन देही = सोने जैसा शरीर। सनेही = प्यार करने वाला, स्नेह करने वाला। ओला = पर्दा। पहूचै = पहुँचता है, बराबरी करता। सासि सासि = दम-ब-दम। द्रुलभ = दुर्लभ, जो बड़ी मुश्किल से मिले। करेह = कर।3। अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से सोने जैसा तेरा रोग-रहित जिस्म है, उस प्यारे राम से लगन जोड़। जिसकी मेहर से तेरा पर्दा बना रहता है, हे मन! जिसकी दया से तेरे सारे ऐब ढके रहते हैं, हे मन! उस प्रभु ठाकुर की शरण पड़। जिस की कृपा से कोई तेरी बराबरी नहीं कर सकता, हे मन! उस उच्च प्रभु को सांस सांस याद कर। हे नानक! जिसकी कृपा से तुझे ये मानव शरीर मिला है जो बड़ा मुश्किल से मिलता है, उस प्रभु की भक्ति कर।3। जिह प्रसादि आभूखन पहिरीजै ॥ मन तिसु सिमरत किउ आलसु कीजै ॥ जिह प्रसादि अस्व हसति असवारी ॥ मन तिसु प्रभ कउ कबहू न बिसारी ॥ जिह प्रसादि बाग मिलख धना ॥ राखु परोइ प्रभु अपुने मना ॥ जिनि तेरी मन बनत बनाई ॥ ऊठत बैठत सद तिसहि धिआई ॥ तिसहि धिआइ जो एक अलखै ॥ ईहा ऊहा नानक तेरी रखै ॥४॥ पद्अर्थ: आभूखन = गहने, जेवर। पहिरीजै = पहनते हैं। अस्व = अश्व, घोड़े। हसति = हाथी। मिलख = जमीन। जिनि = जिस (प्रभु) ने। बनत = बनावट। तेरी बनत बनाई = तेरी बनतर बनाई है, तुझे सजाया है। सद = सदा। अलख = जो लखा नहीं जा सकता, जो बयान नहीं किया जा सकता। ईहा = यहाँ, इस लोक में। ऊहा = वहाँ, परलोक में। रखै = तेरी लज्जा रखता है।4। अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से गहने पहनते हैं, हे मन! उसे स्मरण करते हुए आलस क्यूँ किया जाए? जिसकी मेहर से घोड़े और हाथियों की सवारी करता है, हे मन! उस प्रभु को कभी ना विसारना। जिसकी दया से बाग-जमीनें व धन (तुझे नसीब हैं) उस प्रभु को अपने मन में परो के रख। हे मन! जिस (प्रभु) ने तुझे सजाया है, उठते बैठते (भाव, हर समय) उसी को सदा स्मरण कर। हे नानक! उस प्रभु को स्मरण कर, जो एक है, और बेअंत है। लोक और परलोक में (वही) तेरी लज्जा रखने वाला है।4। जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥ मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥ जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥ तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥ जिह प्रसादि तेरा सुंदर रूपु ॥ सो प्रभु सिमरहु सदा अनूपु ॥ जिह प्रसादि तेरी नीकी जाति ॥ सो प्रभु सिमरि सदा दिन राति ॥ जिह प्रसादि तेरी पति रहै ॥ गुर प्रसादि नानक जसु कहै ॥५॥ पद्अर्थ: करहि = तू करता है। आचार = (सं: आचार) रस्म रिवाज। बिउहारी = (सं: व्यवहारिन्) व्यवहार करने वाला, (रस्म रिवाज) करने वाला। अनूप = अन+ऊप, उपमा रहित, जिस जैसा कौई नही। नीकी = अच्छी। पति = इज्जत। कहै = कहता है।5। अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से बहुत दान-पुण्य करता है, हे मन! आठों पहर उसे याद कर। जिसकी मेहर तू रीतें-रस्में करने के लायक हुआ है, उस प्रभु को श्वास-श्वास याद कर। जिसकी दया से तेरी सुंदर शकल है, उस सुंदर मालिक को सदा स्मरण कर। जिस प्रभु की कृपा से तूझे अच्छी (मनुष्य) जाति मिली है, उसे सदा दिन रात याद कर। जिसकी मेहर से तेरी इज्जत (जगत में) बनी हुई है (उस का नाम स्मरण कर)। गुरु की इनायत लेकर (भाग्यशाली मनुष्य) उसकी महिमा करता है।5। जिह प्रसादि सुनहि करन नाद ॥ जिह प्रसादि पेखहि बिसमाद ॥ जिह प्रसादि बोलहि अम्रित रसना ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजे बसना ॥ जिह प्रसादि हसत कर चलहि ॥ जिह प्रसादि स्मपूरन फलहि ॥ जिह प्रसादि परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजि समावहि ॥ ऐसा प्रभु तिआगि अवर कत लागहु ॥ गुर प्रसादि नानक मनि जागहु ॥६॥ पद्अर्थ: सुनहि = तू सुनता है। करन = कानों से। नाद = (रसीली) आवाज। पेखहि = तू देखता है। बिसमाद = आश्चर्यजनक (नजारे)। अंम्रित = मीठे बोल। रसना = जीभ (से)। सहजे = स्वाभाविक ही। हसत = हाथ। कर = हाथ। चलहि = चलते हैं, काम देते हैं। संपूरन = पूर्ण तौर पे, हरेक कार्य-व्यवहार में, हर तरफ। फलहि = फलता है, कामयाब होता है। सहजि = अडोल अवस्था में, बेफिक्री में। समावहि = तू टिका बैठा है। अवर कत = और कहाँ? मनि = मन में। जागहु = जागृत होवो, होशियार होवो।6। अर्थ: जिसकी कृपा से तू (अपने) कानों से आवाज सुनता है (भाव, तुझे सुनने की ताकत मिली है), जिसकी मेहर से आश्चर्यजनक नजारे देखता है; जिसकी इनायत पा के जीभ से मीठे बोल बोलता है; जिसकी कृपा से स्वाभाविक ही सुखी बस रहा है; जिसकी दया से तेरे हाथ (आदि सारे अंग) काम कर रहे हैं, जिसकी मेहर से तू हरेक कार्य-व्यवहार में कामयाब होता है; जिसकी बख्शिश से तुझे ऊँचा दर्जा मिलता है, और तू सुख और बे-फिक्री में मस्त है; ऐसे प्रभु को विसार के तू और किस तरफ लग रहा है? हे नानक! गुरु की इनायत ले के मन में जागृत हो।6। जिह प्रसादि तूं प्रगटु संसारि ॥ तिसु प्रभ कउ मूलि न मनहु बिसारि ॥ जिह प्रसादि तेरा परतापु ॥ रे मन मूड़ तू ता कउ जापु ॥ जिह प्रसादि तेरे कारज पूरे ॥ तिसहि जानु मन सदा हजूरे ॥ जिह प्रसादि तूं पावहि साचु ॥ रे मन मेरे तूं ता सिउ राचु ॥ जिह प्रसादि सभ की गति होइ ॥ नानक जापु जपै जपु सोइ ॥७॥ पद्अर्थ: जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। प्रगटु = प्रसिद्ध, मशहूर, शोभा वाला। संसारि = संसार में। मनहु = मन से। मूढ़ = मूर्ख। ता कउ = उसे। जापु = याद कर। कारज = काम। पूरे = मुकम्मल। जानु = समझ ले। हजूरे = अंग संग। राचु = पच, व्यस्त, जुड़ा रह। सोइ = वही मनुष्य। सभ की = हरेक जीव की। गति = (सं: गति, access, entrance) पहुँच।7। अर्थ: जिस प्रभु की कृपा से तू जगत में शोभा वाला है उसे कभी भी मन से ना भुला। जिसकी मेहर से तुझे आदर-सम्मान मिला हुआ है, हे मूर्ख मन! तू उस प्रभु को जप। जिस की कृपा से तेरे (सारे) काम सिरे चढ़ते हैं, हे मन! तू उस (प्रभु) को सदा अंग-संग जान। जिसकी इनायत से तुझे सत्य प्राप्त होता है, हे मेरे मन! तू उस (प्रभु) के साथ जुड़ा रह। जिस (परमात्मा) की दया से हरेक (जीव) की (उस तक) पहुँच हो जाती है, (उसे जप)। हे नानक! (जिसको ये दाति मिलती है) वह (हरि-) जाप ही जपता है।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |