श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 271 आपि जपाए जपै सो नाउ ॥ आपि गावाए सु हरि गुन गाउ ॥ प्रभ किरपा ते होइ प्रगासु ॥ प्रभू दइआ ते कमल बिगासु ॥ प्रभ सुप्रसंन बसै मनि सोइ ॥ प्रभ दइआ ते मति ऊतम होइ ॥ सरब निधान प्रभ तेरी मइआ ॥ आपहु कछू न किनहू लइआ ॥ जितु जितु लावहु तितु लगहि हरि नाथ ॥ नानक इन कै कछू न हाथ ॥८॥६॥ पद्अर्थ: गावाए = गवाता है, गायन में सहायता करता है, गाने के लिए प्रेरित करता है। प्रगासु = प्रकाश। प्रभू दया = प्रभु की दया। कमल बिगासु = कमल का खिलना, हृदय रूपी कमल का खिलना। प्रसंन = खुश। सोइ = वह (प्रभु)। निधान = खजाने। माइआ = (सं: मयस्, n. pleasure, delight, satisfaction) खुशी, प्रसन्नता। आपहु = अपने आप से, अपने उद्यम से। किनहू = किसी ने भी। हरि नाथ = हे हरि! हे नाथ! इन कै हाथ = इन जीवों के हाथों में, इन जीवों के वश में।8। अर्थ: वही मनुष्य प्रभु का नाम जपता है जिससे आप जपाता है, वही मनुष्य हरि के गुण गाता है जिसे गाने के लिए प्रेरता है। प्रभु की मेहर से (मन में ज्ञान का) प्रकाश होता है; उसकी दया से हृदय रूपी कमल फूल खिलता है। वह प्रभु (उस मनुष्य के) मन में बसता है जिस पे वह प्रसन्न होता है, प्रभु की मेहर से (मनुष्य की) बुद्धि अच्छी होती है। हे प्रभु! तेरी मेहर की नजर में सारे खजाने हैं, अपने यत्न से किसी ने भी कुछ नहीं पाया (भाव, जीव की उद्यम तभी सफल होता है जब तू सीधी नजर करता है)। हे हरि! हे नाथ! जिधर तू लगाता है उधर ये जीव लगते हैं। हे नानक! इन जीवों के वश में कुछ नहीं।8।6। सलोकु ॥ अगम अगाधि पारब्रहमु सोइ ॥ जो जो कहै सु मुकता होइ ॥ सुनि मीता नानकु बिनवंता ॥ साध जना की अचरज कथा ॥१॥ पद्अर्थ: अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। अगाधि = अथाह। कहै = कहताहै, सलाहता है। मुकता = (माया के बंधनों से) आजाद। मीता = हे मित्र! नानकु बिनवंता = नानक विनती करता है। साध = वह मनुष्य जिसने अपने आप को साधा है, जिसने अपने मन को वश में किया है, गुरमुख। अचरज = हैरान करने वाली। कथा = जिक्र, बात चीत।1। नोट: ‘नानकु’ Nominative Case, Singular number, Subject to the Verb बिनवंता, करता कारक, पुलिंग, एक वचन। अर्थ: वह बेअंत प्रभु (जीव की) पहुँच से परे है और अथाह है। जो जो (मनुष्य उसको) स्मरण करते हैं वे (विकारों के जाल से) निजात पा लेते हैं। हे मित्र! सुन, नानक विनती करता है: (स्मरण करने वाले) गुरमुखों (के गुणों) का जिक्र हैरान करने वाला है (भाव, नाम जपने की इनायत से भक्त जनों में इतने गुण पैदा हो जाते हैं कि उन गुणों की बात छेड़ के आश्चर्यचकित हो जाते हैं)।1। असटपदी ॥ साध कै संगि मुख ऊजल होत ॥ साधसंगि मलु सगली खोत ॥ साध कै संगि मिटै अभिमानु ॥ साध कै संगि प्रगटै सुगिआनु ॥ साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा ॥ साधसंगि सभु होत निबेरा ॥ साध कै संगि पाए नाम रतनु ॥ साध कै संगि एक ऊपरि जतनु ॥ साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी ॥ नानक साध की सोभा प्रभ माहि समानी ॥१॥ पद्अर्थ: ऊजल = उज्जवल, साफ। मुख ऊजल होत = मुंह उज्जवल होता है, इज्जत बन आती है। सगली = सारी। खोत = नाश हो जाती है। सु गिआनु = श्रेष्ठ ज्ञान। नेरा = नजदीक, अंगसंग। निबेरा = फैसला, निबेड़ा। एक ऊपरि = एक प्रभु से मिलने के लिए। महिमा = बड़ाई। बरनै = बयान करे। प्रभ माहि समानी = प्रभु में टिकी हुई है, प्रभु की शोभा के बराबर है।1। अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से मुंह उजले होते हैं (भाव, इज्जत बनती है) (क्योंकि) साधु जनों के पास रहने से (विकारों की) सारी मैल मिट जाती है। साधुओं की संगति में अहंकार दूर होता है, और श्रेष्ठ ज्ञान प्रगट होता है (अर्थात अच्छी बुद्धि आती है)। संतों की संगति में प्रभु अंग-संग बसता प्रतीत होता है, (इस वास्ते बुरे संस्कारों या वासना का) सारा फैसला हो जाता है (भाव, बुरी तरफ जीव पड़ता ही नहीं)। गुरमुखों की संगति में मनुष्य नाम-रूपी रत्न ढूँढ लेता है, और, एक प्रभु को मिलने का यत्न करता है। साधुओं की महिमा कौन सा मनुष्य बयान कर सकता है? (क्योंकि) हे नानक! साधु जनों की शोभा प्रभु की शोभा के बराबर हो जाती है।1। साध कै संगि अगोचरु मिलै ॥ साध कै संगि सदा परफुलै ॥ साध कै संगि आवहि बसि पंचा ॥ साधसंगि अम्रित रसु भुंचा ॥ साधसंगि होइ सभ की रेन ॥ साध कै संगि मनोहर बैन ॥ साध कै संगि न कतहूं धावै ॥ साधसंगि असथिति मनु पावै ॥ साध कै संगि माइआ ते भिंन ॥ साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन ॥२॥ पद्अर्थ: गो = ज्ञानेंद्रियां, वह इंद्रिय जो बाहरी पदार्थों का परिचय इन्सान को कराती हैं। गोचा = (सं) शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच। अगोचर = वह (प्रभु) जो शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच से परे है। परफुलै = खिलता है। बसि = काबू में। पंच = पाँच (प्रसिद्ध विकार): काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। अंम्रित रसु = नाम रूपी अमृत का स्वाद। भुंचा = चखा। रेन = (चरणों की) धूल। मनोहर = मन को हरने वाले, मन को आकर्षित करने वाले। बैन = वचन, बोल। कतहूँ = किसी तरफ। धावै = दौड़ता। असथिति = (सं: स्थिति) टिकाव। भिंन = अलग, निरलेप, बेदाग।2। अर्थ: गुरमुखों की संगति में (मनुष्य को) वह प्रभु मिल जाता है जो शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच से परे है; और मनुष्य सदा खिले माथे रहता है। साधु जनों की संगति में रहने से कामादिक पाँच विकार काबू में आ जाते हैं, (क्योंकि मनुष्य) नाम रूपी अमृत का रस चख लेता है। साधु जनों की संगति करने से (मनुष्य) सब (प्राणियों) के चरणों की धूल बन जाता है और (सबसे) मीठे वचन बोलता है। संत जनों के संग रहने से (मनुष्य का) मन किसी तरफ नहीं दौड़ता है, और (प्रभु के चरणों में) टिकाव हासिल कर लेता है। हे नानक! गुरमुखों की संगति में टिकने से (मनुष्य) माया के (असर) से बेदाग रहता है और अकाल-पुरख इस पर दयावान होता है।2। साधसंगि दुसमन सभि मीत ॥ साधू कै संगि महा पुनीत ॥ साधसंगि किस सिउ नही बैरु ॥ साध कै संगि न बीगा पैरु ॥ साध कै संगि नाही को मंदा ॥ साधसंगि जाने परमानंदा ॥ साध कै संगि नाही हउ तापु ॥ साध कै संगि तजै सभु आपु ॥ आपे जानै साध बडाई ॥ नानक साध प्रभू बनि आई ॥३॥ पद्अर्थ: महा पुनीत = बहुत पवित्र। बैरु = वैर। बीगा = टेढ़ा। बीगा पैर = गलत तरफ कदम। को = कोई मनुष्य। परमानंदा = (परम-आनंदा) सब से ऊँचे सुख का मालिक। हउ = अहंकार, अपनी हस्ती का मान, सबसे अलग होने का ख्याल। आपु = स्वैभाव, अहंकार। तजै = दूर कर देता है। साध वडाई = साधु की बड़ाई। बनि आई = पक्की प्रीति बन जाती है।3। अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से सारे वैरी (भी) मित्र (दिखाई देने लग जाते हैं), (क्योंकि) साधु जनों की संगति में (मनुष्य का अपना हृदय) बहुत साफ हो जाता है। संतों की संगति में बैठने से किसी के साथ वैर नहीं रह जाता और किसी बुरी तरफ पैर नहीं चलता। भलों की संगति में कोई मनुष्य बुरा नहीं दिखता, (क्योंकि हर जगह मनुष्य) उच्च सुख के मालिक प्रभु को ही जानता है। गुरमुख की संगति करने से अहंकार रूपी ताप नहीं रह जाता, (क्योंकि) साधु की संगति में मनुष्य सारे अपनत्व त्याग देता है। साधु का बड़ापन (बड़ाई) प्रभु खुद ही जानता है, (क्योंकि) हे नानक! साधु का और प्रभु का पक्का प्यार पड़ जाता है।3। साध कै संगि न कबहू धावै ॥ साध कै संगि सदा सुखु पावै ॥ साधसंगि बसतु अगोचर लहै ॥ साधू कै संगि अजरु सहै ॥ साध कै संगि बसै थानि ऊचै ॥ साधू कै संगि महलि पहूचै ॥ साध कै संगि द्रिड़ै सभि धरम ॥ साध कै संगि केवल पारब्रहम ॥ साध कै संगि पाए नाम निधान ॥ नानक साधू कै कुरबान ॥४॥ पद्अर्थ: कबहू = कभी भी। धावै = दौड़ता, भटकता। बसतु = वस्तु, चीज। अगोचर = जिस तक शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। लहै = ढूँढ लेता है। अजरु = (वह दर्जा) जो सहन किया ना जा सके। थानि ऊचै = ऊँचे स्थान पर। महलि = महल में, प्रभु के ठिकाने पर। द्रिढ़ै = दृढ़ कर लेता है, अच्छी तरह समझ लेता है। सभि = सारे। धरम = फर्ज। निधान = खजाना। कुरबान = सदके।4। अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से मनुष्य का मन कभी भटकता नहीं, (क्योंकि) साधु जनों की संगति में (मनुष्य) सदा सुख पाता है। संत जनों की संगति में (प्रभु के) नाम रूपी अगोचर वस्तु प्राप्त हो जाती है, (और मनुष्य) ये ना संभाल पाने वाली मंजिल (दर्जा, अनूठी वस्तु) को संभाल लेता है (के काबिल हो जाता है)। गुरमुखों की संगति में रह के मनुष्य ऊँचे (आत्मिक) ठिकाने पर बसता है और अकाल-पुरख के चरणों में जुड़ा रहता है। संतों की संगति में रह के (मनुष्य) सारे धर्मों (फर्जों) को ठीक तरह समझ लेता है और सिर्फ अकाल-पुरख को (हर जगह देखता है)। साधु जनों की संगति में (मनुष्य) नाम खजाना ढूँढ लेता है; (इस वास्ते) हे नानक! (कह:) मैं साधु जनों से सदके हूँ।4। साध कै संगि सभ कुल उधारै ॥ साधसंगि साजन मीत कुट्मब निसतारै ॥ साधू कै संगि सो धनु पावै ॥ जिसु धन ते सभु को वरसावै ॥ साधसंगि धरम राइ करे सेवा ॥ साध कै संगि सोभा सुरदेवा ॥ साधू कै संगि पाप पलाइन ॥ साधसंगि अम्रित गुन गाइन ॥ साध कै संगि स्रब थान गमि ॥ नानक साध कै संगि सफल जनम ॥५॥ पद्अर्थ: उधारै = बचा लेता है। कुटंब = परिवार। निसतारै = तार लेता है। सभु को = हरेक जीव। वरसावै = (संस्कृत: वृष् A. वर्षयते = 1.To be powerful or eminent) बलवान हो जाता है, मशहूर हो जाता है। सुर = देवते। पलाइन = (संस्कृत: प्लु! A. fade away, disappear) नाश हो जाते हैं। स्रब = सर्व, सारे। गंमि = पहुँच।5। अर्थ: गुरमुखों की संगति में रह के (मनुष्य अपनी) सारी कुलें (विकारों से) बचा लेता है और (अपने) सज्जन-मित्रों व परिवार को तार लेता है। संतों की संगति में मनुष्य वह धन पा लेता है, जिस धन के मिलने से हरेक मनुष्य मशहूर हो जाता है। साधु जनों की संगति में रहने से धर्मराज (भी) सेवा करता है और (देवते भी) शोभा करते हैं। गुरमुखों की संगति में पाप दूर हो जाते हैं, (क्योंकि वहाँ) प्रभु के अमर करने वाले गुण (मनुष्य) गाते हैं। संतों की संगति में रह के सब जगह पहुँच हो जाती है (भाव, ऊँची आत्मिक अवस्था आ जाती है); हे नानक! साधु की संगति में मानव जनम का फल मिल जाता है।5। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |