श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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साध कै संगि नही कछु घाल ॥ दरसनु भेटत होत निहाल ॥ साध कै संगि कलूखत हरै ॥ साध कै संगि नरक परहरै ॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला ॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला ॥ जो इछै सोई फलु पावै ॥ साध कै संगि न बिरथा जावै ॥ पारब्रहमु साध रिद बसै ॥ नानक उधरै साध सुनि रसै ॥६॥

पद्अर्थ: घाल = मेहनत, तप आदि बर्दाश्त करने। होत = हो जाते हैं। निहाल = प्रसन्न। कलूखत = पाप, विकार। हरै = दूर कर लेता है। परहरै = परे हटा लेता है। ईहा = इस जनम में, इस लोक में। ऊहा = परलोक में। सुहेला = सुखी। बिछुरत = (प्रभु से) विछुड़े हुए का। इछै = चाहता है। बिरथा = व्यर्थ, खाली। रिद = हृदय। साध रसै = साधू की रसना से, जीभ से।6।

अर्थ: साधु जनों की संगति में रहने से तप आदि में तपने की आवश्यक्ता नहीं रहती, (क्योंकि उनके) दर्शन ही करके हृदय खिला रहता है।

गुरमुखों की संगति में (मनुष्य अपने) पाप नाश कर लेता है, (और इस तरह) नर्कों से बच जाता है।

संतों की संगति में रह के (मनुष्य) बे-मुराद हो के नहीं जाता, (बल्कि) जो इच्छा करता है, वही फल पाता है।

संतों की संगत में रह के आदमी इस लोक में भी और परलोक में भी सुखी हो जाता है। और प्रभु से अलग हुआ (फिर) उसी में समा जाता है।

अकाल-पुरख संत जनों के हृदय में बसता है; हे नानक! (मनुष्य) साधु जनों की रसना से (उपदेश) सुन के (विकारों से) बच जाता है।6।

साध कै संगि सुनउ हरि नाउ ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै ॥ साधसंगि सरपर निसतरै ॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा ॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा ॥ साधसंगि भए आगिआकारी ॥ साधसंगि गति भई हमारी ॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग ॥ नानक साध भेटे संजोग ॥७॥

पद्अर्थ: सुनउ = मैं सुनूँ। गाउ = मैं गाऊँ। बिसरै = भूल जाए। सरपर = जरूर। घटि घटि = हरेक शरीर में। आगिआकारी = प्रभु की आज्ञा मानने वाला। गति = अच्छी हालत। भेटे = मिलते हैं। संजोग = भाग्यों से।7।

अर्थ: मैं गुरमुखों की संगति में रह के प्रभु का नाम सुनूँ और प्रभु के गुण गाऊँ (ये मेरी कामना है)।

संतों की संगति में रहने से प्रभु मन से भूलता नहीं, साधु जनों की संगति में मनुष्य जरूर (विकारों से) बच निकलता है।

भलों की संगति में रहने से प्रभु प्यारा लगने लग जाता है और वह हरेक शरीर में दिखाई देने लग जाता है।

साधुओं की संगति करने से (हम) प्रभु के आज्ञाकारी हो जाते हैं और हमारी आत्मिक अवस्था सुधर जाती है।

संत जनों की सुहबत में (विकार आदि) सारे रोग मिट जाते हैं; हे नानक! (बड़े) भाग्यों से साधु जन मिलते हैं।7।

साध की महिमा बेद न जानहि ॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि ॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि ॥ साध की उपमा रही भरपूरि ॥ साध की सोभा का नाही अंत ॥ साध की सोभा सदा बेअंत ॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची ॥ साध की सोभा मूच ते मूची ॥ साध की सोभा साध बनि आई ॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई ॥८॥७॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। न जानहि = नहीं जानते। जेता = जितना। तेता = उतना। बखिआनहि = बयान करते हैं। उपमा = समानता। रही भरपूरि = हर जगह व्यापक है। मूच = बड़ी। साध बनि आई = साधु को ही फबती है। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।8।

अर्थ: साधु की बड़ाई वेद (भी) नहीं जानते, वो तो जितना सुनते हैं, उतना ही बयान करते हैं (पर साधु की महिमा बयान से परे है)।

साधु की समानता तीन गुणों से परे है (भाव, जगत की रचना में कोई ऐसी हस्ती नहीं जिसे साधु जैसा कहा जा सके; हां) साधु की समानता उस प्रभु से ही हो सकती है जो सर्व व्यापक है।

साधु की शोभा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, सदा (इसको) बेअंत ही (कहा जा सकता) है।

साधु की शोभा और सब की शोभा से बहुत ऊँची है और बहुत बड़ी है।

साधु की शोभा साधु को ही फबती है (क्योंकि) हे नानक! (कह:) हे भाई! साधु और प्रभु में (कोई) फर्क नहीं है।8।7।

सलोकु ॥ मनि साचा मुखि साचा सोइ ॥ अवरु न पेखै एकसु बिनु कोइ ॥ नानक इह लछण ब्रहम गिआनी होइ ॥१॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला अकाल-पुरख। मुखि = मुंह में। अवरु कोइ = कोई और। पेखै = देखता है। एकसु बिनु = एक प्रभु के बिना। इह लछण = इन लक्षणों के कारन, इन गुणों करके। ब्रहमगिआनी = अकाल-पुरख के ज्ञान वाला। गिआन = जान पहिचान, गहरी सांझ।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य के) मन में सदा स्थिर रहने वाला प्रभु (बसता है), (जो) मुंह से (भी) उसी प्रभु को (जपता है), (जो मनुष्य) एक अकाल-पुरख के बिना (कहीं भी) किसी और को नहीं देखता, हे नानक! (वह मनुष्य) इन गुणों के कारण ब्रहमज्ञानी हो जाता है।1।

असटपदी ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरलेप ॥ जैसे जल महि कमल अलेप ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरदोख ॥ जैसे सूरु सरब कउ सोख ॥ ब्रहम गिआनी कै द्रिसटि समानि ॥ जैसे राज रंक कउ लागै तुलि पवान ॥ ब्रहम गिआनी कै धीरजु एक ॥ जिउ बसुधा कोऊ खोदै कोऊ चंदन लेप ॥ ब्रहम गिआनी का इहै गुनाउ ॥ नानक जिउ पावक का सहज सुभाउ ॥१॥

पद्अर्थ: निरलेप = बेदाग। अलेप = (कीचड़ से) साफ। निरदोख = दोष रहित, पापों से बरी। सूरु = सूर्य। सोख = (संस्कृत में = शोषण) सुखाने वाला। द्रिसटि = नजर। समानि = एक जैसी। रंक = कंगाल। तुलि = बराबर। पवान = पवन, हवा। एक = एक तार। बसुधा = धरती। लेप = पोचै, लेपन। गुनाउ = गुण। पावक = आग। सहज = कुदरती।1।

अर्थ: ब्रहमज्ञानी (मनुष्य विकारों की तरफ से) सदा बेदाग (रहते हैं) जैसे पानी में (उगे हुए) कमल फूल (कीचड़ से) साफ होते हैं।

जैसे सूरज सारे (रसों) को सुखा देता है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी (मनुष्य) (सारे पापों को जला देते हैं) पापों से बचे रहते हैं।

जैसे हवा राजे व कंगाल को एक जैसी ही लगती है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी के अंदर (सबकी तरफ) एक जैसी नजर (के साथ देखने का स्वभाव होता) है।

(कोई भला कहे चाहे बुरा, पर) ब्रहमज्ञानी मनुष्यों में एक तार हौसला (सदा कायम रहता) है, जैसे धरती को कोई तो खोदता है कोई चंदन से लेप करता है (पर धरती को कोई परवाह नहीं)।

हे नानक! जैसे आग का कुदरती स्वभाव है (हरेक चीज की मैल जला देनी) (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य का (भी) यही गुण है।1।

ब्रहम गिआनी निरमल ते निरमला ॥ जैसे मैलु न लागै जला ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि होइ प्रगासु ॥ जैसे धर ऊपरि आकासु ॥ ब्रहम गिआनी कै मित्र सत्रु समानि ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही अभिमान ॥ ब्रहम गिआनी ऊच ते ऊचा ॥ मनि अपनै है सभ ते नीचा ॥ ब्रहम गिआनी से जन भए ॥ नानक जिन प्रभु आपि करेइ ॥२॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। प्रगासु = रौशनी, ज्ञान। धर = धरती। सत्रु = वैरी। जिन = जिन्हें। करेइ = करता है, बनाता है।2।

अर्थ: जैसे पानी को कभी मैल नहीं रह सकती (भाप बन के फिर साफ का साफ, वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य (विकारों की मैल से सदा बचा रहके) महा निर्मल है।

जैसे धरती पर आकाश (हर जगह व्यापक है, वैसे ही) ब्रहमानी के मन में (ये) रौशनी हो जाती है (कि प्रभु हर जगह मौजूद है)।

ब्रहमज्ञानी के लिए सज्जन व वैरी एक जैसा है (क्योंकि) उसके अंदर अहंकार नहीं है (किसी के अच्छे-बुरे सलूक का हर्ष-शोक नहीं)।

ब्रहमज्ञानी (आत्मिक अवस्था में) सबसे ऊँचा है, (पर) अपने मन में (अपने आप को) सबसे नीचा (जानता है)।

हे नानक! वही मनुष्य ब्रहमज्ञानी बनते हैं जिन्हें प्रभु खुद बनाता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh