श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ उरि धारै जो अंतरि नामु ॥ सरब मै पेखै भगवानु ॥ निमख निमख ठाकुर नमसकारै ॥ नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥

पद्अर्थ: उरि = हृदय में। अंतरि = अंदर, मन में। धारै = टिकाए। मै = (सं: ‘मय’) ‘मै’ व्याकरण का एक ‘पिछेक्तर’ है, जिसका भाव है ‘मिला हुआ, भरा हुआ, व्यापक’। सरब मै = सभी में व्यापक। निमख = आँख की फड़कना। अपरसु = अछोह (सं: अस्पर्श) जो किसी के साथ ना छूए।1।

अर्थ: जो मनुष्य सदा अपने हृदय में अकाल-पुरख का नाम टिकाए रखता है, और भगवान को सभी में व्यापक देखता है, जो पल पल अपने प्रभु को नमस्कार करता है; हे नानक! वह (असली) अछोह है और वह सब जीवों को (संसार समुंदर से) तार लेता है।1।

नोट: हिंदू मत में कई मनुष्य बड़ी स्वच्छता रखने के ऐसे भरमि में पड़ जाते हैं कि किसी और के साथ छूते भी नहीं, पर गुरमति अनुसार असली स्वच्छ वह मनुष्य है जो हर समय प्रभु का नाम हृदय में परोए रखता है।

असटपदी ॥ मिथिआ नाही रसना परस ॥ मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥ पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥ साध की टहल संतसंगि हेत ॥ करन न सुनै काहू की निंदा ॥ सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥ गुर प्रसादि बिखिआ परहरै ॥ मन की बासना मन ते टरै ॥ इंद्री जित पंच दोख ते रहत ॥ नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥

पद्अर्थ: मिथिआ = झूठ। परस = छोह। प्रीति निरंजन दरस = अंजन (कालिख-) रहित प्रभु के दर्शन की प्रीति। त्रिअ रूपु = स्त्री का रूप। हेत = प्यार। करन = कानों से। काहू की = किसी की भी। बिखिआ = माइआ। परहरै = त्याग दे। बासना = वासना, फुरना। टरै = टल जाए। इंद्री जित = इंन्द्रियों को जीतने वाला। दोख = विकार। पंच दोख = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकारं। कोटि = करोड़। मधे = में। को = कोई विरला।1।

अर्थ: जो मनुष्य जीभ से झूठ को छूने नहीं देता, मन में अकाल-पुरख के दीदार की तमन्ना रखता है;

जो पराई स्त्री के हुस्न को अपनी आँखों से नहीं देखता, भले मनुष्यों की टहल (सेवा करता है) और संत जनों की संगति में प्रीति (रखता है);

जो कानों से किसी की भी निंदा नहीं सुनता, (बल्कि) सभी से अपने आप को बुरा समझता है;

जो गुरु की मेहर के सदका माइआ (का प्रभाव) परे हटा देता है, और जिसके मन की वासना मन से टल जाती है;

जो अपनी ज्ञान-इंद्रिय को वश में रख के कामादिक पाँचों विकारों से बचा रहता है, हे नानक! करोड़ों में से कोई ऐसा विरला मनुष्य ‘अपरस’ (कहा जा सकता है)।1।

बैसनो सो जिसु ऊपरि सुप्रसंन ॥ बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥ करम करत होवै निहकरम ॥ तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥ काहू फल की इछा नही बाछै ॥ केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥ मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ॥ नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥

पद्अर्थ: बैसनो = (संस्कृत: वैष्णव) विष्णु का पुजारी। बिसन = (सं. विष्णु, The second deity of the Sacred Hindu Triad, entrusted with the preservation of the world, which duty he is represented to have duly discharged by his various incarnations; The word is thus popularly derived; यस्माद्विश्वमिदं सर्वं तस्य शक्त्य: महात्मना॥ तस्मादेवोच्यते विष्णुर्विशधातो: प्रवेशनात्॥)।

जगत = पालक। निहकरम = कर्म रहित, किए हुए कर्मों के फलों की इच्छा ना रखता हुआ। बाछै = चाहता है। द्रिढै = पक्का करता है, अच्छी तरह मन में टिकाता है।2।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की माया के असर से बेदाग है, और, जिस पर प्रभु खुद प्रसन्न होता है, वह है असली वैष्णव।

उस वैष्णव का धर्म (भी) पवित्र है जो (धर्म के) काम करता हुआ इन कामों के फल की इच्छा नहीं रखता।

जो मनुष्य निरा भक्ति व कीर्तन में मस्त रहता है, और किसी भी फल की ख्वाइश नहीं करता;

जिसके मन तन में प्रभु का स्मरण बस रहा है, जो सब जीवों पे दया करता है,

जो खुद (प्रभु के नाम को) अपने मन में टिकाता है व और लोगों को नाम जपाता है, हे नानक! वह वैष्णव उच्च स्थान हासिल करता है।2।

भगउती भगवंत भगति का रंगु ॥ सगल तिआगै दुसट का संगु ॥ मन ते बिनसै सगला भरमु ॥ करि पूजै सगल पारब्रहमु ॥ साधसंगि पापा मलु खोवै ॥ तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥ भगवंत की टहल करै नित नीति ॥ मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥ हरि के चरन हिरदै बसावै ॥ नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥

पद्अर्थ: भगउती = (सं: भगवत्) भगवान का उपासक, पवित्र आत्मा। करि सगल = हर जगह व्यापक जान के। अरपै = सदके करता है, अर्पण करता है।3।

अर्थ: भगवान का (असली) उपासक (वह है जिसके हृदय में) भगवान की भक्ति का प्यार है और जो सब बुरे काम करने वालों का संग त्याग देता है।

जिसके मन में से हर तरह का वहम मिट जाता है, जो अकाल-पुरख को हर जगह मौजूद जान के पूजता है।

उस भगवती की मति उत्तम होती है, जो गुरमुखों की संगति में रह के पापों की मैल (मन से) दूर करता है।

जो नित्य भगवान का स्मरण करता है, जो प्रभु के प्यार में अपना मन व तन कुर्बान कर देता है;

जो प्रभु के चरण (सदा अपने) हृदय में बसाता है। हे नानक! ऐसा भगवती भगवान को पा लेता है।3।

सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥ राम नामु आतम महि सोधै ॥ राम नाम सारु रसु पीवै ॥ उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥ हरि की कथा हिरदै बसावै ॥ सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥ बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूल ॥ सूखम महि जानै असथूलु ॥ चहु वरना कउ दे उपदेसु ॥ नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥

पद्अर्थ: परबोधै = जगाता है। आतम महि = अपने आप में, अपनी आत्मा में। सोधै = पड़ताल करता है, जांचता है। सारु = श्रेष्ठ, अच्छा, मीठा। उपदेसि = उपदेश से। जीवै = जीता है, रूहानी जिंदगी हासिल करता है। मूल = आरम्भ। पुरान = व्यास ऋषि के लिखे हुई 18 धर्म पुस्तकें। सूखम = सूक्षम, अदृश्य। असथूल = स्थूल, दृष्टमान जगत, आँखों से दिखता संसार। अदेसु = प्रणाम, नमस्कार।4।

अर्थ: (असली) पण्डित वह है जो अपने मन को शिक्षा देता है, और प्रभु के नाम को अपने मन में तलाशता है।

उस पण्डित के उपदेश से (सारा) संसार रूहानी जिंदगी हासिल करता है, जो प्रभु नाम का मीठा स्वाद चखता है।

वह पंडित दुबारा जनम (मरन) में नहीं आता, जो अकाल-पुरख (की महिमा) की बातें अपने हृदय में बसाता है।

जो वेद पुराण स्मृतियां (आदि सब धर्म-पुस्तकों) के मूल (प्रभु को) समझता है, जो यह जानता है कि ये सारा दृश्यमान संसार अदृश्य प्रभु के ही आसरे है।

जो (ब्राहमण,क्षत्रीय,वैश्य व शूद्र) चारों ही जातियों को शिक्षा देता है, हे नानक! (कह) उस पंडित के सामने हम सदा सिर निवाते हैं (नत्मस्तक होते हैं)।4।

बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥ चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥ जो जो जपै तिस की गति होइ ॥ साधसंगि पावै जनु कोइ ॥ करि किरपा अंतरि उर धारै ॥ पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥ सरब रोग का अउखदु नामु ॥ कलिआण रूप मंगल गुण गाम ॥ काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ॥ नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥

पद्अर्थ: बीज मंत्रु = (सब मंत्रों का) मूल मंत्र। को = का। अंतरि उर = उरि उंतरि, हृदय में। मुघध = मुगध, मूर्ख। प्रेत = (संस्कृत: प्रेत = 1.The departed spirit, the spirit before obsequial rites are performed, 2- A ghost, evil spirit) बुरी रूह। अउखदु = दवाई। कलिआण = सुख। मंगल = अच्छे भाग्य। गाम = गायन। काहू धरमि = किसी भी धर्म द्वारा, किसी भी धार्मिक रस्म रिवाज के करने से। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। करमि = मेहर अनुसार।5।

अर्थ: (ब्राहमण,क्षत्रीय,वैश्य व शूद्र) चारों ही जातियों में से कोई भी मनुष्य (प्रभु का) नाम जप (के देख ले), नाम (और सब मंत्रों का) मूल मंत्र है और सब का ज्ञान (दाता) है।

जो जो मनुष्य नाम जपता है उसकी जिंदगी ऊँची हो जाती है, (पर) कोई विरला मनुष्य ही साधु-संगत में (रह के) (इसे) हासिल करता है।

पशु, बुरी रूह, मूर्ख, पत्थर (-दिल) (कोई भी हो सब) को (नाम) तार देता है (अगर प्रभु) मेहर करके (उसके) हृदय में (नाम) टिका दे।

प्रभु का नाम सारे रोगों की दवाई है, प्रभु के गुण गाने सौभाग्य व सुख का रूप है।

(पर ये नाम और) किसी ढंग से अथवा किसी धार्मिक रस्म-रिवाज के करने से नहीं मिलता; हे नानक! (ये नाम) उस मनुष्य को मिलता है जिस (के माथे पर) धुर से (प्रभु की) मेहर मुताबक लिखा जाता है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh