श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 282 नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥ आपन चलितु आप ही करै ॥ आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥ आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥ आपे आपि सगल महि आपि ॥ अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥ अबिनासी नाही किछु खंड ॥ धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥ अलख अभेव पुरख परताप ॥ आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥ पद्अर्थ: चलितु = तमाशा, खेल। आवनु जावनु = जनम मरन। द्रिसटि = दिखता जगत, अस्थूल संसार। अनद्रिसटि = ना दिखता संसार, सूक्ष्म जगत। आगिआकारी = हुक्म में चलने वाली। धारी = टिकाई है। जुगति = तरीकों से। उथापि = नाश करता है। खंड = टुकड़ा, नाश। धारण धारि रहिओ ब्रहमंड = ब्रहमंड (की) धारण धार रहिओ। अलख = जो बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। त = तो।6। अर्थ: ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है; (ये जनम मरन का तो) प्रभु स्वयं ही खेल कर रहा है। पैदा होना, मरना, दिखाई देता और ना दिखाई देता- ये सारा संसार प्रभु ने अपने हुक्म में चलने वाला बना दिया है। सारे जीवों में केवल खुद ही है, अनेक ढंगों से (जगत को) बना बना के नाश भी कर देता है। प्रभु स्वयं अविनाशी है; उस का कुछ नाश नहीं होता, सारे ब्रहमंड की रचना भी स्वयं ही रच रहा है। उस व्यापक प्रभु के प्रताप का भेद नहीं पाया जा सकता, बयान नहीं हो सकता; हे नानक! अगर वह स्वयं अपना जाप कराए तो ही जीव जाप करते हैं।6। जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥ सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥ प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥ प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥ आपे मेलि लए किरपाल ॥ गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥ उन की सेवा सोई लागै ॥ जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥ नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥ नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥ पद्अर्थ: जिन = जिस मनुष्यों ने। तिन मंत = उनके उपदेशों से। सगल उधारन = सभी को बचाने वाले। दूख बिसारन = दुखों का नाश करने वाले। जपि = जप के। निहाल = (फूलों की तरह) खिले हुए। करहि = तू करता है। बडभागै = बड़ी किस्मत वाले को। बिसरामु = ठिकाना, दुखों से विश्राम। मानु = समझ, जान ले।7। अर्थ: जिस लोंगों ने प्रभु को पहिचान लिया, वह शोभा वाले हो गए; सारा जगत उनके उपदेशों से (विकारों से) बचता है। हरि के भक्त सब (जीवों) को बचाने के लायक हैं, (सब के) दुख दूर करने के समर्थ होते हैं। (सेवकों को) कृपालु प्रभु खुद (अपने साथ) मिला लेता है, सतिगुरु का शब्द ज पके वह (फूल जैसे) खिल उठते हैं। वही मनुष्य उन (सेवकों) की सेवा में लगता है, जिस भाग्यशाली पर, (हे प्रभु!) तू खुद मेहर करता है। (वह सेवक) नाम जपके अडोल अवस्था हासिल करते हैं; हे नानक! उन लोगों को बहुत ऊँचे मनुष्य समझो।7। जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥ सदा सदा बसै हरि संगि ॥ सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥ करणैहारु पछाणै सोइ ॥ प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥ जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥ ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥ आपस कउ आपि दीनो मानु ॥ नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥ पद्अर्थ: रंगि = मौज में, रजा में। सहज सुभाइ = स्वाभाविक ही, सोये हुए ही। जन = सेवकों को। मीठ लगाना = मीठा लगता है। द्रिसटाना = दिखाई देता है। उपजे = पैदा होए। ओइ = प्रभु के वह सेवक। सुख निधान = सुखों के खजाने। उनहू = उन्हें ही। बनि आए = फबती है। आपस कउ = अपने आप को।8। अर्थ: (प्रभु का सेवक) सदा ही प्रभु की हजूरी में बसता है और जो कुछ करता है, प्रभु की रजा में (रह के) करता है। सहज ही जो कुछ होता है उसे प्रभु की रजा जानता है, और सब कुछ करने वाला प्रभु को ही समझता है। (प्रभु के) सेवकों को प्रभु का किया हुआ मीठा लगता है, (क्योंकि) प्रभु जैसा (सर्व-व्यापक) है वैसा ही उन्हें नजर आता है। जिस प्रभु से वे सेवक पैदा हुए हैं, उसी में लीन रहते हैं, वे सुखों का खजाना हो जाते हैं ओर ये दर्जा फबता भी उन्हीं को ही है। हे नानक! प्रभु और प्रभु के सेवकों को एक रूप समझो, (संवकों को सम्मान दे के) प्रभु अपने आप को खुद सम्मान देता है (क्योंकि सेवक का सम्मान प्रभु का ही सम्मान है)।8।14। सलोकु ॥ सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥ जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥ पद्अर्थ: कला = ताकत,शक्ति। भरपूर = भरा हुआ। बिरथा = (सं: व्यथा = pain) दुख, दर्द। जा कै सिमरनि = जिस के स्मरण से। उधरीऐ = (विकारों से) बच जाते हैं।1। अर्थ: प्रभु सारी शक्तियों के साथ पूर्ण है, (सब जीवों के) दुख-दर्द जानता है। हे नानक! जिस (ऐसे प्रभु) के स्मरण से (विकारों से) बच सकते हैं, उससे (सदा) सदके जाएं।1। असटपदी ॥ टूटी गाढनहार गुोपाल ॥ सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥ सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥ तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥ रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥ अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥ आपन कीआ कछू न होइ ॥ जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥ तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥ गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥ पद्अर्थ: चिंता = फिक्र। बिरथा = खाली, नाउम्मीद। आपन कीआ = मनुष्य के अपने बल पर किया हुआ। सउ = सौ बार। लोचै = चाहे। गति = मुक्ति, बढ़िया आत्मिक हालत।1। नोट: 'गुोपाल' में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं प्रयोग की गई हैं असली शब्द ‘गोपाल’ है। पर छंद की चाल तभी पूरी रह सकती है अगर ‘गुरु’ मात्रा ‘ो’ की जगह ‘लघु’ मात्रा ‘ु’ प्रयोग की जाए। सो, पाठ में शब्द ‘गुपाल’ पढ़ना है। अर्थ: सारे जीवों की पालना करने वाला गोपाल प्रभु खुद है, (जीवों के दिल की) टूटी हुई (तार) को (अपने साथ) गाँठने वाला (भी स्वयं ही) है। जिस प्रभु को अपने मन में सभी की (रोजी का) फिक्र है, उस (के दर) से कोई जीव ना-उम्मीद नहीं (आता)। हे मेरे मन! सदा प्रभु को जप, वह नाश-रहित और अपने जैसा आप ही है। अगर कोई प्राणी सौ बार चाहे तो भी प्राणी का अपने प्रयत्नों से किया हुआ कोई भी काम सिरे नहीं चढ़ता। हे नानक! एक प्रभु का नाम जप, तो गति होगी। उस प्रभु के बिना और कोई चीज तेरे (असल) काम की नहीं है।1। रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥ प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥ धनवंता होइ किआ को गरबै ॥ जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥ अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥ प्रभ की कला बिना कह धावै ॥ जे को होइ बहै दातारु ॥ तिसु देनहारु जानै गावारु ॥ जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥ नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥ पद्अर्थ: मोहै नाही = मोह ना करे, मस्त ना हो, मान ना करे। सगल घट = सारे शरीरों में। गरबै = अहंकार करे। जा = जब। दरबै = धन। सूरा = शूरवीर, बहादुर। कहावै = कहलवाए। कह = कहाँ? धावै = दौड़े। होइ बहै = बन बैठे। गावारु = गवार, मूर्ख। हउ रोगु = अहंकार रूपी बिमारी। अरोगु = निरोग।2। अर्थ: रूप वाला हो के कोई प्राणी (रूप का) गुमान ना करे, (क्योंकि) सारे शरीरों में प्रभु की ही ज्योति सुशोभित है। धनवान हो के क्या कोई मनुष्य अहंकार करे, जबकि सारा धन उस प्रभु का ही बख्शा हुआ है? अगर कोई मनुष्य (अपने आप को) बड़ा शूरवीर कहलवाए (तो रक्ती भर ये तो सोच ले कि) प्रभु की (दी हुई) ताकत के बिना कहाँ दौड़ सकता है। अगर कोई बंदा (धनाढ हो के) दाता बन बैठे, तो वह मूर्ख उस प्रभु को पहिचाने जो (सब जीवों को) देने के समर्थ है। हे नानक! वह मनुष्य सदा निरोग है जिसका अहंकार रूपी रोग गुरु की कृपा से दूर होता है।2। जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥ तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥ जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥ प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥ जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥ गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥ जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥ तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥ तिन संतन की बाछउ धूरि ॥ नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥ पद्अर्थ: मंदर = घर। थामै = थामता है, सहारा दिए रखता है। मनहि = मन में। असथंमनु = स्तम्भ, खम्भा, सहारा। पाखाण = पत्थर। नाव = बेड़ी। लगतु = लगा हुआ। अंधकार = अंधेरा। दीपक = दीया। परगासु = प्रकाश। गुर दरसनु = गुरु का दर्शन। देखि = देख के। मनि = मन में। बिगासु = खिलाव। उदिआन = जंगल। मारगु = रास्ता। बाछउ = चाहता हूँ। धूरि = धूल। लोचा = ख्वाइश। पूरी = पूरी कर।3। अर्थ: जैसे घर (की छत) को खंभा सहारा देता है, वैसे ही गुरु का शब्द मन का सहारा है। जैसे पत्थर नाव में चढ़ के (नदी वगैरा से) पार लांघ जाता है, वैसे ही गुरु के चरण लगा हुआ आदमी (संसार समुंदर) तैर जाता है। जैसे दीपक अंधकार (दूर कर के) रौशनी कर देता है, वैसे ही गुरु का दीदार करके मन में खिलाव (पैदा) हो जाता है। जैसे (किसी) घने जंगल में (भटके हुए को) राह मिल जाए, वैसे ही साधु की संगति में बैठने से (अकाल पुरख की) ज्योति (मनुष्य के अंदर) प्रगट होती है। मैं उन संतों के चरणों की धूल मांगता हूँ। हे प्रभु! नानक की ये ख्वाइश पूरी कर।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |