श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 283 मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥ पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥ दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥ अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥ जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥ भूला काहे फिरहि अजान ॥ कउन बसतु आई तेरै संग ॥ लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥ राम नाम जपि हिरदे माहि ॥ नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥ पद्अर्थ: काहे = क्यूँ? बिललाईऐ = बिलकें, विरलाप करें। पुरब = पहले। पुरब लिखे का = पहले समय के किए कर्मों का, पूर्व बीजे का। लिखिआ = संस्कार रूपी लेख। सुभाउ = रूप बींज। अजान = हे अंजान! बसतु = चीज। रसि = रस में, स्वाद में। लोभी पतंग = हे लोभी पतंगे! पति सेती = बा-इज्जत।4। अर्थ: हे मूर्ख मन! (दुख मिलने पर) क्यूँ बिलकता है? पूर्व बीजे का फल ही खाना पड़ता है। दुख-सुख देने वाला प्रभु खुद ही है, (इसलिए) और (आसरे) छोड़ के तू उसी को याद कर। हे अंजान! क्यूँ भूला फिरता है? जो कुछ प्रभु करता है उसी को सुख समझ। हे लोभी पतंगे! तू (माया के) स्वाद में मस्त हो रहा है, (बता) कौन सी चीज तेरे साथ आई थी। हे नानक! हृदय में प्रभु का नाम जप, (इस तरह) बा-इज्जत (परलोक वाले) घर में जाएगा।4। जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥ राम नामु संतन घरि पाइआ ॥ तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥ राम नामु हिरदे महि तोलि ॥ लादि खेप संतह संगि चालु ॥ अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥ धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥ मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥ इहु वापारु विरला वापारै ॥ नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥ पद्अर्थ: वखर = सौदा। तजि = छोड़ दे। मन मोलि = मन के मूल्य से, मन के बदले, मन दे कर। तोलि = जाँच। खेप = (सं: क्षेप) व्यापार के लिए ले जाने वाला सौदा। बिखिआ = माया। जंजाल = धंधे। धंनि = मुबारक, प्रशंसनीय।5। अर्थ: (हे भाई!) जो सौदा खरीदने के लिए तू (जगत में) आया है; वह राम नाम (-रूपी सौदा) संतों के घर में मिलता है। (इसलिए) अहंकार छोड़ दे, और मन के बदले (ये सौदा) खरीद ले, और प्रभु का नाम हृदय में परख। संतों के साथ चल और राम नाम का ये सौदा लाद ले, माया के अन्य धंधे छोड़ दे। (अगर ये उद्यम करेगा तो) हरेक जीव तुझे शाबाश देगा, और प्रभु की दरगाह में भी तेरा मुँह उज्जवल होगा। (पर) ये व्यापार कोई विरला बंदा ही करता है। हे नानक! ऐसे (व्यापारी) पर से सदा सदके जाएं।5। चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥ अरपि साध कउ अपना जीउ ॥ साध की धूरि करहु इसनानु ॥ साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥ साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ अनिक बिघन ते साधू राखै ॥ हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥ ओट गही संतह दरि आइआ ॥ सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: अरपि = अर्पित कर दे, हवाले कर दे। जीउ = जिंद। धूरि = चरण धूल। कुरबानु = सदके। वडभागी = बड़े भाग्यों से। गाईऐ = गाया जा सकता है। राखै = बचा लेता है। अंम्रित रसु = नाम अमृत का स्वाद। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। तिह = उसने।6। अर्थ: (हे भाई!) साधु जनों के पैर धो-धो के (नाम जल) पी, साधु जनों पर से अपनी जिंद भी वार दे। गुरमुख मनुष्य के पैरों की ख़ाक में स्नान कर, गुरमुख से सदके हो। संत की सेवा बड़े भाग्यों से मिलती है, संत की संगत में ही प्रभु की महिमा की जा सकती है। संत अनेक मुश्किलों से (जो आत्मिक जीवन के राह में आती हैं) बचा लेता है, संत प्रभु के गुण गा के नाम-अमृत का स्वाद लेता है। (जिस मनुष्य ने) संतों का आसरा लिया है जो संतों के दर पर आ गिरा है, उसने, हे नानक! सारे सुख पा लिए हैं।6। मिरतक कउ जीवालनहार ॥ भूखे कउ देवत अधार ॥ सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥ पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥ सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥ तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥ जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥ सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥ करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥ नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥ पद्अर्थ: मिरतक = मरा हुआ, आत्मिक जिंदगी के बिना। भूखे = लालची, तृष्णा अधीन मनुष्य। अधार = आसरा। निधान = खजाने। पुरब लिखे का = पिछले समय में किए कर्मों का। लहणा = फल। पाहि = पाते हैं। होगु = होगा। रैणी = रात। करणी = आचरण।7। अर्थ: (प्रभु) मरे हुए को जिंदा करने के काबिल है, भूखे को भी आसरा देता है। सारे खजाने उस मालिक की नजर में हैं, (पर जीव) अपने पहले किये कर्मों के फल भोगते हैं। सब कुछ उस प्रभु का ही है, और वही सब कुछ करने के समर्थ है; उससे बिना ना कोई दूसरा है ना ही होगा। हे जन! सदा ही दिन रात प्रभु को याद कर, और सभी कर्मों से यही कर्म ऊँचा और स्वच्छ है। मेहर करके जिस मनुष्य को नाम बख्शता है, हे नानक! वह मनुष्य पवित्र हो जाता है।7। जा कै मनि गुर की परतीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥ जा कै हिरदै एको होइ ॥ सचु करणी सचु ता की रहत ॥ सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥ साची द्रिसटि साचा आकारु ॥ सचु वरतै साचा पासारु ॥ पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥ नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥ पद्अर्थ: परतीति = यकीन, श्रद्धा। चीति = चिक्त में। सुनीऐ = सुना जाता है। तिहु लोइ = तीनों लोकों में, त्रिलोक में, सारे जगत में। करणी = अमली जिंदगी, चाल चलन। रहत = जिंदगी का असूल। सति = सच, सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मुखि = मूह से। द्रिसटि = नजर। आकारु = स्वरूप, दृष्टमान जगत। वरतै = मौजूद है। पासारु = पसारा।8। अर्थ: जिस मनुष्य के मन में सतिगुरु की श्रद्धा बन गई है उसके चिक्त में प्रभु टिक जाता है। वह मनुष्य सारे जगत में भक्त-भक्त सुना जाता है, जिसके हृदय में एक प्रभु बसता है। उसकी असल जिंदगी और जिंदगी के असूल एक समान हैं, सच्चा प्रभु उसके दिल में है, और प्रभु का नाम ही वह मुंह से उच्चारता है। उस मनुष्य की नजर सच्चे प्रभु के रंग में रंगी हुई है, (तभी तो) सारा दिखाई देता जगत (उसको) प्रभु का रूप दिखता है, प्रभु ही (हर जगह) मौजूद (दिखता है, और) प्रभु का ही (सारा) पसारा दिखता है। जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख को सदा स्थिर रहने वाला समझा है, हे नानक! वह मनुष्य सदा उस स्थिर रहने वाले में लीन हो जाता है।8।15। सलोकु ॥ रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥ तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥ पद्अर्थ: रेख = (सं: रेखा) चिन्ह-चक्र। त्रिहु गुण ते = (माया के) तीनों गुणों से। भिन्न = अलग, निर्लिप, बेदाग। तिसहि = उसे ही। बुझाए = समझ देता है (अपने स्वरूप की)। सुप्रसंन = खुश।1। अर्थ: प्रभु का ना कोई रूप है, ना चिन्ह-चक्र और ना कोई रंग। प्रभु माया के तीन गुणों से बेदाग है। हे नानक! प्रभु अपना आप उस मनुष्य को समझाता है जिस पर खुद मेहरबान होता है।1। असटपदी ॥ अबिनासी प्रभु मन महि राखु ॥ मानुख की तू प्रीति तिआगु ॥ तिस ते परै नाही किछु कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ आपे बीना आपे दाना ॥ गहिर ग्मभीरु गहीरु सुजाना ॥ पारब्रहम परमेसुर गोबिंद ॥ क्रिपा निधान दइआल बखसंद ॥ साध तेरे की चरनी पाउ ॥ नानक कै मनि इहु अनराउ ॥१॥ पद्अर्थ: तिआगु = छोड़ दे। निरंतर = लगातार। बीना = पहिचानने वाला। दाना = समझने वाला। गहीरु = गहरा। सुजाना = सयाना। क्रिपा निधान = दया का खजाना। बखसंद = बख्शने वाला। पाउ = मैं पड़ूँ। मनि = मन में। अनुराउ = अनुराग, कसक, खींच।1। अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में अकाल पुरख को परो के रख और मनुष्य का प्यार (मोह) त्याग दे। सब जीवों के अंदर एक अकाल-पुरख ही व्यापक है, उससे बाहर और कोई जीव नहीं, कोई चीज नहीं। प्रभु बड़ा गंभीर है और गहरा है, समझदार है, वही खुद ही (जीवों के दिल की) पहचानने वाला और जानने वाला है। हे पारब्रहम प्रभु! सबसे बड़े मालिक! और जीवों के पालक! दया के खजाने! दया के घर! और बख्शनहार! नानक के मन में ये तमन्ना है कि मैं तेरे साधुओं की चरणों में पड़ूँ।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |