श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनसा पूरन सरना जोग ॥ जो करि पाइआ सोई होगु ॥ हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥ तिस का मंत्रु न जानै होरु ॥ अनद रूप मंगल सद जा कै ॥ सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥ राज महि राजु जोग महि जोगी ॥ तप महि तपीसरु ग्रिहसत महि भोगी ॥ धिआइ धिआइ भगतह सुखु पाइआ ॥ नानक तिसु पुरख का किनै अंतु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, ख्वाइश। सरना जोग = शरण देने के काबिल, शरण आए की सहायता करने के काबिल। करि = हाथ पर, जीव के हाथ पर। पाइआ = डाल दिया है, लिख दिया है। होगु = होगा। नेत्र फोरु = आँख का फरकना। हरन = नाश करना। भरन = पालना। मंत्र = गहरा भेद। मंगल = खुशियां। सुनीअहि = सुने जाते हैं। तपीसुर = बड़ा तपस्वी। भोगी = भोगने वाला, गृहस्थी।2।

अर्थ: प्रभु (जीवों के) मन के फुरने पूरे करने व शरण आए की सहायता करने के समर्थ है। जो उसने (जीवों के) हाथों में लिख दिया है, वही होता है।

जिस प्रभु का आँख फरकने का समय (जगत के) पालने और नाश करने के लिए (काफी) है, उसका छुपा हुआ भेद कोई और जीव नहीं जानता।

जिस प्रभु के घर में सदा आनंद और खुशियां हैं, (जगत के) सारे पदार्थ उसके घर में (मौजूद) सुने जाते हैं।

राजाओं में प्रभु खुद ही राजा है, जोगियों में जोगी है, तपस्वियों में स्वयं ही बड़ा तपस्वी है और गृहस्तियों में भी सवयं ही गृहस्थी है।

भक्त जनों ने (उस प्रभु को) स्मरण कर-कर के सुख पा लिया है। हे नानक! किसी जीव ने उस अकाल-पुरख का अंत नहीं पाया।2।

जा की लीला की मिति नाहि ॥ सगल देव हारे अवगाहि ॥ पिता का जनमु कि जानै पूतु ॥ सगल परोई अपुनै सूति ॥ सुमति गिआनु धिआनु जिन देइ ॥ जन दास नामु धिआवहि सेइ ॥ तिहु गुण महि जा कउ भरमाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ ऊच नीच तिस के असथान ॥ जैसा जनावै तैसा नानक जान ॥३॥

पद्अर्थ: लीला = (जगत रूपी) खेल। मिति = गिनती, अंदाजा। अवगाहि = गोता लगा के, खोज खोज के। सगल = सारी (सृष्टि)। सूति = सूत्र में, धागे में (जैसे माला के मणके)। गिआनु = ऊँची समझ। धिआनु = (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़नी। जिन देइ = जिन्हें देता है। सेइ = वह ही। भरमाए = भटकाता है। ऊच असथान = सुमति ज्ञान ध्यान वाले जीव। नीच असथान = तीन गुणों में भटकने वाले जीव। जनावै = समझ देता है।3।

अर्थ: जिस प्रभु की (जगत रूपी) खेल का लेखा कोई नहीं लगा सकता, उसे खोज-खोज के सारे देवते भी थक गए हैं।

(क्योंकि) पिता का जन्म पुत्र क्या जाने? (जैसे माला के मणके) धागे में परोए हुए होते हैं, (वैसे ही) सारी रचना प्रभु ने अपने (हुक्म रूपी) धागे में परोई हुई है।

जिस लोगों को प्रभु सुमति, ऊँची समझ और तवज्जो जोड़ने की दाति देता है, वही सेवक और दास उसका नाम स्मरण करते हैं।

(पर) जिनको (माया के) तीन गुणों में भटकाता है, वह पैदा होते मरते रहते हैं और बार बार (जगत में) आते और जाते रहते हैं।

सुमति वाले ऊँचे लोगों के हृदय त्रिगुणी नीच लोगों के मन- ये सारे उस प्रभु के अपने ही ठिकाने हैं (भाव, सब में बसता है)। हे नानक! जैसी बुद्धि-मति देता है, वैसी ही समझ वाला जीव बन जाता है।3।

नाना रूप नाना जा के रंग ॥ नाना भेख करहि इक रंग ॥ नाना बिधि कीनो बिसथारु ॥ प्रभु अबिनासी एकंकारु ॥ नाना चलित करे खिन माहि ॥ पूरि रहिओ पूरनु सभ ठाइ ॥ नाना बिधि करि बनत बनाई ॥ अपनी कीमति आपे पाई ॥ सभ घट तिस के सभ तिस के ठाउ ॥ जपि जपि जीवै नानक हरि नाउ ॥४॥

पद्अर्थ: नाना = कई किस्म के। इक रंग = एक ही किस्म का, एक रंग वालां। करहि = तू करता है। नाना बिधि = कई तरीकों से। चलित = चमत्कार, तमाशे।4।

अर्थ: हे प्रभु! तू, जिस के कई रूप और रंग हैं, कई वेष धारण करता है (और फिर भी) एक ही तरह का है।

प्रभु नाश-रहित है, और सब जगह एक खुद ही खुद है, उसने जगत का पसारा कई तरीकों से किया है।

कई तमाशे प्रभु पलक में कर देता है, वह पूरन पुरख सब जगह व्यापक है।

जगत की रचना प्रभु ने कई तरीकों से रची है, अपनी (महिमा का) मूल्य वह खुद ही जानता है।

सारे शरीर उस प्रभु के ही हैं, सारी जगहें उसी की ही हैं। हे नानक! (उस का दास) उस का नाम जप-जप के जीता है।4।

नाम के धारे सगले जंत ॥ नाम के धारे खंड ब्रहमंड ॥ नाम के धारे सिम्रिति बेद पुरान ॥ नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥ नाम के धारे आगास पाताल ॥ नाम के धारे सगल आकार ॥ नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥ नाम कै संगि उधरे सुनि स्रवन ॥ करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ॥ नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ॥५॥

पद्अर्थ: नाम = अकाल-पुरख। धारे = टिकाए हुए, आसरे। ब्रहमंड = (सं: ब्रह्मांड = The egg of Brahman, the primordial egg from which the universe sprang, the world, universe) सृष्टि, जगत। खंड = हिस्से, टुकड़े। आगास = आकाश। आकार = स्वरूप,शरीर। पुरीआ = शहर, शरीर, 14 लोक। भवन = (सं: भुवन = A world, the number of world is either three, as in त्रिभुवन, or fourteen) लोक, जगत। स्रवन = कानों से। चउथे पद महि = माया के तीन गुणों को लांघ के ऊपरी सतह पर, माया के असर से ऊपर की अवस्था।5।

अर्थ: सारे जीव-जंतु अकाल-पुरख के आसरे हैं, जगत के सारे (हिस्से) भी प्रभु के टिकाए हुए हैं।

वेद, पुराण, स्मृतियां प्रभु के आधार पर हैं, ज्ञान की बातें सुननी और तवज्जो जोड़नी भी अकाल-पुरख के आसरे ही हैं।

सारे आकाश-पाताल प्रभु-आसरे हैं, सारे शरीर ही प्रभु के आधार पर हैं।

तीनों भवन और चौदह लोक अकाल-पुरख के टिकाए हुए हैं, जीव प्रभु में जुड़ के और उसका नाम कानों से सुन के विकारों से बचते हैं।

जिस को मेहर करके अपने नाम में जोड़ता है, हे नानक! वह मनुष्य (माया के असर से ऊपर) चौथे तल पर पहुँच कर उच्च अवस्था प्राप्त करता है।5।

नोट: शब्द ‘नाम’ का अर्थ ‘अकाल-पुरख’ है, और ‘अकाल-पुरख का नाम’ भी।

रूपु सति जा का सति असथानु ॥ पुरखु सति केवल परधानु ॥ करतूति सति सति जा की बाणी ॥ सति पुरख सभ माहि समाणी ॥ सति करमु जा की रचना सति ॥ मूलु सति सति उतपति ॥ सति करणी निरमल निरमली ॥ जिसहि बुझाए तिसहि सभ भली ॥ सति नामु प्रभ का सुखदाई ॥ बिस्वासु सति नानक गुर ते पाई ॥६॥

पद्अर्थ: सति = 1.सदा स्थिर रहने वाला, 2.संपूर्ण, मुकम्मल, जो अधूरा नहीं, ना खोए जाने वाला, अटल। परधानु = जाना माना, सब के सिर पर। करतूति = काम। उतपति = पैदायश, रचना। निरमल निरमली = निर्मल से निर्मल, महा पवित्र। भली = सुखदाई। बिस्वास = विश्वास, श्रद्धा। करमु = बख्शिश। करणी = काम, रजा।6।

अर्थ: जिस प्रभु का रूप और ठिकाना सदा स्थिर रहने वाले हैं, केवल वही सर्व-व्यापक प्रभु सब के सिर पर है।

जिस सदा अटल अकाल-पुरख की वाणी सब जीवों में रमी हुई है (भाव, जो प्रभु सब जीवों में बोल रहा है) उसके काम भी अटल हैं।

जिस प्रभु की रचना सम्पूर्ण है (भाव, अधूरा नहीं), जो (सबका) मूल (रूप) सदा स्थिर है, जिसका पैदा होना भी संपूर्ण है, उसकी बख्शिश सदा कायम है।

प्रभु की महा पवित्र रजा है, जिस जीव को (रजा की) समझ देता है, उस को (वह रजा) पूरन तौर पर सुखदाई (लगती है)।

प्रभु का सदा स्थिर रहने वाला नाम सुख दाता है। हे नानक! (जीव को) ये अटल सिदक सतिगुरु से मिलता है।6।

सति बचन साधू उपदेस ॥ सति ते जन जा कै रिदै प्रवेस ॥ सति निरति बूझै जे कोइ ॥ नामु जपत ता की गति होइ ॥ आपि सति कीआ सभु सति ॥ आपे जानै अपनी मिति गति ॥ जिस की स्रिसटि सु करणैहारु ॥ अवर न बूझि करत बीचारु ॥ करते की मिति न जानै कीआ ॥ नानक जो तिसु भावै सो वरतीआ ॥७॥

पद्अर्थ: निरति = (सं: निरति strong attachment, fondness, devotion) प्यार। मिति = गिनती, अंदाजा। गति = पहुँच, अवस्था। कीआ = पैदा किया हुआ जीव। वरतीआ = वरतता है, विद्यमान है।7।

अर्थ: गुरु के उपदेश अटल वचन हैं, जिनके हृदय में (इस उपदेश का) प्रवेश होता है, वह भी अटल (भाव, जनम-मरन से रहित) हो जाते हैं।

अगर किसी मनुष्य को सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के प्यार की सूझ आ जाए, तो नाम जप के वह उच्च अवस्था हासिल कर लेता है।

प्रभु खुद सदा कायम रहने वाला है, उसका पैदा किया हुआ जगत भी सच-मुच अस्तित्व वाला है (भाव, मिथ्या नहीं है) प्रभु अपनी अवस्था और मर्यादा स्वयं ही जानता है।

जिस प्रभु का ये जगत है वह खुद इसे बनाने वाला है, किसी और को इस जगत का ख्याल रखने वाला (भी) ना समझो।

कर्तार (की प्रतिभा) का अंदाजा उसका पैदा किया हुआ आदमी नहीं लगा सकता। हे नानक! वही कुछ होता है जो उस प्रभु को भाता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh