श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ एको एकु बखानीऐ बिरला जाणै स्वादु ॥ गुण गोबिंद न जाणीऐ नानक सभु बिसमादु ॥११॥

सलोकु: एको एकु = सिर्फ एक परमात्मा। बखानीऐ = बयान करना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। स्वाद = आनंद। गुण = गुणों (के बयान करने) से। न जाणीऐ = (पूरन तौर पर) नहीं जाना जा सकता, सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। बिसमादु = आश्चर्य।11।

अर्थ: सलोकु: (हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा की ही महिमा करनी चाहिए (महिमा में ही आत्मिक आनंद है पर) इस आत्मिक आनंद को कोई दुर्लभ मनुष्य ही पाता है। (परमात्मा के गुण गायन करने से आत्मिक आनंद तो मिलता है; पर) गुणों (के बयान करने) से परमात्मा का सही स्वरूप नहीं समझा जा सकता (क्योंकि) हे नानक! वह तो सारा आश्चर्य रूप है।11।

पउड़ी ॥ एकादसी निकटि पेखहु हरि रामु ॥ इंद्री बसि करि सुणहु हरि नामु ॥ मनि संतोखु सरब जीअ दइआ ॥ इन बिधि बरतु स्मपूरन भइआ ॥ धावत मनु राखै इक ठाइ ॥ मनु तनु सुधु जपत हरि नाइ ॥ सभ महि पूरि रहे पारब्रहम ॥ नानक हरि कीरतनु करि अटल एहु धरम ॥११॥

पउड़ी: एकादसी = (एक और दस) ग्यारहवीं तिथि (इस तिथि पर अनेक हिन्दू स्त्रीयां-मर्द व्रत रखते हैं, सारा दिन अन्न नहीं खाते)। निकटि = नजदीक। पेखहु = देखो। बसि करि = काबू में करके। मनि = मन में। सरब जीआ = सारे जीवों पर। इन बिधि = इस तरीके से। धावत = विकारों की ओर दौड़ता है। ठाइ = जगह में। सुधु = पवित्र। नाइ = नाम में (जुड़ने से)। अटल = जिसका फल कभी टलता नहीं, जिसका फल जरूर मिलता है।11।

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) परमात्मा को (सदा अपने) नजदीक (बसता) देखो, अपनी इंद्रियों को काबू में रख के परमात्मा का नाम सुना करो- यही है एकादशी (का व्रत।) (जो मनुष्य अपने) मन में संतोष (धारण करता है और) सब जीवों के साथ दया-प्यार वाला सलूक करता है, इस तरीके से (जीवन गुजारते हुए उसका) व्रत सफल हो जाता है (भाव, यही है असल व्रत)। (इस तरह के व्रत से वह मनुष्य विकारों की तरफ) दौड़ते (अपने) मन को एक ठिकाने पे टिकाए रखता है, परमात्मा का (नाम) जपते हुए (परमात्मा के) नाम में (जुड़ने से) उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है।

हे नानक! जो प्रभु सारे जगत में हर जगह व्यापक है, उस प्रभु की महिमा करता रह, यह ऐसा धर्म है जिसका फल जरूर मिलता है।11।

सलोकु ॥ दुरमति हरी सेवा करी भेटे साध क्रिपाल ॥ नानक प्रभ सिउ मिलि रहे बिनसे सगल जंजाल ॥१२॥

सलोकु: दुरमति = खोटी मति। हरी = दूर कर ली। भेटे = मिले। साध = गुरु। क्रिपाल = कृपा+आलय, दया का घर। सिउ = साथ। जंजाल = माया के मोह में फंसाने वाले बंधन।12।

अर्थ: सलोकु: जो भाग्यशाली मनुष्य दया-के-धर गुरु से मिल लिए और जिन्होंने गुरु के द्वारा बताई हुई सेवा की, उन्होंने (अपने अंदर से) खोटी मति दूर कर ली। हे नानक! जो लोग परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं, उनके (माया के मोह के) सारे बंधन नाश हो जाते हैं।12।

पउड़ी ॥ दुआदसी दानु नामु इसनानु ॥ हरि की भगति करहु तजि मानु ॥ हरि अम्रित पान करहु साधसंगि ॥ मन त्रिपतासै कीरतन प्रभ रंगि ॥ कोमल बाणी सभ कउ संतोखै ॥ पंच भू आतमा हरि नाम रसि पोखै ॥ गुर पूरे ते एह निहचउ पाईऐ ॥ नानक राम रमत फिरि जोनि न आईऐ ॥१२॥

पउड़ी: दुआदसी = (दो और दस) बारहवीं तिथि। दानु = सेवा (धन आदि से)। इसनान = (मन और शरीर की) पवित्रता। तजि = छोड़ के। मानु = अहंकार। पान करहु = पीवो। संगि = संगति में। त्रिपतासै = तृप्त हो जाता है, संतुष्ट हो जाता है। रंगि = प्रेम रंग में। कोमल = नरम, मीठी। संतोखै = आत्मिक आनंद देती है। पंच भू = पंच तत्व। पंच भू आत्मा = पाँचों तत्वों के सतो अंश से बना हुआ मन। रसि = रस में। पोखै = प्रफुल्लित होता है। निहचउ = यकीनी तौर पर। रमत = स्मरण करते हुए।12।

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई! ख़लकति की) सेवा करो, परमात्मा का नाम जपो, और, जीवन पवित्र रखो। (मन में से) अहंकार त्याग के परमात्मा की भक्ति करते रहो। साधु-संगत में मिल के आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु का नाम रस पीते रहो। परमात्मा के प्रेम रंग में रंग के परमात्मा की महिमा करने से मन (दुनिया के पदार्थों से विकारों से) तृप्त रहता है। (महिमा की) मीठी वाणी हरेक (इंद्रिय) को आत्मिक आनंद देती है, महिमा की इनायत से मन पाँच तत्वों के ‘सतो’ अंश की घाड़त में घड़ा जा के परमात्मा के नाम-रस में प्रफुल्लित होता है।

हे नानक! पूरे गुरु से ये दाति यकीनी तौर पर मिल जाती है। और, परमात्मा का नाम स्मरण करने से फिर जोनियों में नहीं आते।12।

सलोकु ॥ तीनि गुणा महि बिआपिआ पूरन होत न काम ॥ पतित उधारणु मनि बसै नानक छूटै नाम ॥१३॥

सलोकु: तीनि = तीन। तीनि गुणा महि = (माया के रजो तमो सतो) तीन गुणों में। बिआपिआ = दबा हुआ। काम = कामना, वासना। पतित उधारणु = (विकारों में) गिरे हुओं को (विकारों से) बचाने वाला। मनि = मन में। छुटै = (माया के पंजे से) बचता है।13।

अर्थ: सलोकु: जगत माया के तीन गुणों के दबाव में आया रहता है (इस वास्ते कभी भी इसकी) वासनाएं पूरी नहीं होती। हे नानक! वह मनुष्य (इस माया के पंजे में से) बच निकलता है जिसके मन में परमात्मा का नाम बस जाता है जिसके मन में वह परमात्मा आ बसता है जो विकारों में गिरे हुए मनुष्यों को विकारों में से बचाने की सामर्थ्य वाला है।13।

पउड़ी ॥ त्रउदसी तीनि ताप संसार ॥ आवत जात नरक अवतार ॥ हरि हरि भजनु न मन महि आइओ ॥ सुख सागर प्रभु निमख न गाइओ ॥ हरख सोग का देह करि बाधिओ ॥ दीरघ रोगु माइआ आसाधिओ ॥ दिनहि बिकार करत स्रमु पाइओ ॥ नैनी नीद सुपन बरड़ाइओ ॥ हरि बिसरत होवत एह हाल ॥ सरनि नानक प्रभ पुरख दइआल ॥१३॥

पउड़ी: त्रउदसी = (त्रय और दस) तेरहवीं तिथि। तीनि ताप = तीन किस्म के दुख। अवतार = जनम। सुख सागर = सुखों का समुंदर। निमख = आँख झपकने जितना समय। हरख = खुशी। सोग = ग़मी। देहु = पिंड,शरीर। करि = कर के, बना के। बाधिओ = बाँधा है, बसाया हुआ है। असाधिओ = असाध, काबू में ना आ सकने वाला। दिनहि = दिन में। स्रमु = थकावट। नैनी = आँखों में।13।

अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जगत को तीन किस्म के दुख चिपके रहते हैं (जिसके कारण ये) जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है, दुखों में ही पैदा होता है। (तीन तापों के कारण मनुष्य के) मन में परमात्मा का भजन नहीं टिकता, पलक झपकने के जितने के समय के वास्ते भी मनुष्य सुखों-के-समुंदर प्रभु की महिमा नहीं करता। मनुष्य अपने आप को खुशी-ग़मी का पिण्ड बना के बसाए बैठा है, इसे माया (के मोह) का ऐसा लंबा रोग चिपका हुआ है जो काबू में नहीं आ सकता। (तीनों तापों के असर में मनुष्य) सारा दिन व्यर्थ काम करता-करता थक जाता है, (रात को जब) आँखों में नींद (आती है तब) सपनों में भी (दिन वाली दौड़-भाग की) बातें करता है। परमात्मा को भुला देने के कारण मनुष्य का ये हाल होता है।

हे नानक! (कह: अगर इस दुखदाई हालत से बचना है, तो) दया के श्रोत अकाल-पुरख प्रभु की शरण पड़।13।

सलोकु ॥ चारि कुंट चउदह भवन सगल बिआपत राम ॥ नानक ऊन न देखीऐ पूरन ता के काम ॥१४॥

सलोकु: कुंट = कूट, तरफ। चउदह भवन = सात आकाश और सात पाताल। सगल = सभी में। बिआपत = मौजूद है, बस रहा है। ऊन = घाट, कमी। ता के = उस (परमात्मा) के।14।

अर्थ: सलोकु: चारों तरफ और चौदह लोक - सब में ही परमात्मा बस रहा है। हे नानक! (उस परमात्मा के भण्डारों में) कोई कमी नहीं देखी जाती, उसके किए सारे ही काम सफल होते हैं।14।

पउड़ी ॥ चउदहि चारि कुंट प्रभ आप ॥ सगल भवन पूरन परताप ॥ दसे दिसा रविआ प्रभु एकु ॥ धरनि अकास सभ महि प्रभ पेखु ॥ जल थल बन परबत पाताल ॥ परमेस्वर तह बसहि दइआल ॥ सूखम असथूल सगल भगवान ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु पछान ॥१४॥

पउड़ी: चउदहि = चउ+दह, चार दस, चौदहवीं तिथि। परताप = तेज, ताकत। दसे दिसा = चार तरफ, चार कोने, ऊपर और नीचे। धरनि = धरती। पेखु = देखो। थल = धरती। बन = जंगल। परबत = पहाड़। तह = वहाँ, उनमें। सूखम = सूक्ष्म, अदृष्ट। असथूल = दिखता संसार। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।14।

अर्थ: पउड़ी: चारों दिशाओं में परमात्मा स्वयं बस रहा है, सारे भवनों में उसका तेज-प्रताप चमकता है। सिर्फ एक प्रभु ही दसों दिशाओं में बसता है। (हे भाई!) धरती-आकाश सब में बसता परमात्मा देखो। पानी, धरती, जंगल, पहाड़, पाताल - इन सभी में ही दया-के-घर प्रभु जी बस रहे हैं। अदृश्य और दृष्टमान सारे ही जगत में भगवान मौजूद है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चलता है वह परमात्मा को (सब जगह बसता) पहिचान लेता है।14।

सलोकु ॥ आतमु जीता गुरमती गुण गाए गोबिंद ॥ संत प्रसादी भै मिटे नानक बिनसी चिंद ॥१५॥

सलोकु: आतमु = अपने आप को। गुरमती = गुरु की शिक्षा से। संत प्रसादी = गुरु की कृपा से, संत के प्रसादि से। भै = डर, खतरे। चिंद = चिन्ता, फिक्र।15।

नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।

अर्थ: सलोकु: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की शिक्षा पर चल के अपने आप को (अपने मन को) बस में किया और परमात्मा की महिमा की, गुरु की कृपा से उसके सारे डर दूर हो गए और हरेक किस्म की चिन्ता-फिक्र का नाश हो गया।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh