श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 300 पउड़ी ॥ अमावस आतम सुखी भए संतोखु दीआ गुरदेव ॥ मनु तनु सीतलु सांति सहज लागा प्रभ की सेव ॥ टूटे बंधन बहु बिकार सफल पूरन ता के काम ॥ दुरमति मिटी हउमै छुटी सिमरत हरि को नाम ॥ सरनि गही पारब्रहम की मिटिआ आवा गवन ॥ आपि तरिआ कुट्मब सिउ गुण गुबिंद प्रभ रवन ॥ हरि की टहल कमावणी जपीऐ प्रभ का नामु ॥ गुर पूरे ते पाइआ नानक सुख बिस्रामु ॥१५॥ पउड़ी: अमावसि = मसिआ, जिस रात चाँद बिल्कुल नहीं दिखता। सीतल = ठंडा। सहज = आत्मिक अडोलता। ता के = उस के। दुरमति = बुरी मति। को = का। गही = पकड़ी। आवा गवन = आना-जाना, जनम मरण। कुटंब सिउ = परिवार समेत। रवन = स्मरण (से)। ते = से। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना परमातमा।15। अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जिस मनुष्य को सतिगुरु ने संतोख बख्शा, उसकी आत्मा सुखी हो गई। (गुरु की कृपा से) वह परमात्मा की सेवा-भक्ति में लगा (जिस करके) उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया।, उसके अंदर शांति और आत्मिक अडोलता पैदा हो गई। (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से अनेक विकारों (के संस्कारों के) बंधन टूट जाते हैं (जो मनुष्य स्मरण करता है) उसके सारे कारज रास आ जाते हैं, उसकी खोटी मति खत्म हो जाती है और उसे अहंकार से मुकती मिल जाती है। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने पारब्रहम परमेश्वर का आसरा लिया, उसका जनम-मरण (का चक्र) समाप्त हो जाता है। गोबिंद प्रभु के गुण गाने की इनायत से वह मनुष्य अपने परिवार समेत (संसार-समुंदर से) पार लांध जाता है। (हे भाई!) परमात्मा की सेवा भक्ति करनी चाहिए, परमात्मा का नाम जपना चाहिए। हे नानक! सारे सुखों का मूल वह प्रभु पूरे गुरु की कृपा से मिल जाता है।15। सलोकु ॥ पूरनु कबहु न डोलता पूरा कीआ प्रभ आपि ॥ दिनु दिनु चड़ै सवाइआ नानक होत न घाटि ॥१६॥ सलोकु: पूरन = कमी रहित जीवन वाला। प्रभ आपि = प्रभु ने आप। दिनु दिनु = दिनो दिन। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता है, आत्मिक जीवन में चमकता है। घाटि = (आत्मिक जीवन में) कमी।16। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: सलोकु: हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा ने खुद पूर्ण जीवन वाला बना दिया वह पूरन मनुष्य कभी (माया के आसरे तले आ के) नहीं डोलता, उसका आत्मिक जीवन दिनो-दिन ज्यादा चमकता है, उसके आत्मिक जीवन में कभी कमी नहीं आती।16। पउड़ी ॥ पूरनमा पूरन प्रभ एकु करण कारण समरथु ॥ जीअ जंत दइआल पुरखु सभ ऊपरि जा का हथु ॥ गुण निधान गोबिंद गुर कीआ जा का होइ ॥ अंतरजामी प्रभु सुजानु अलख निरंजन सोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरो सभ बिधि जानणहार ॥ संत सहाई सरनि जोगु आठ पहर नमसकार ॥ अकथ कथा नह बूझीऐ सिमरहु हरि के चरन ॥ पतित उधारन अनाथ नाथ नानक प्रभ की सरन ॥१६॥ पउड़ी: पूरनमा = पूरनमाशी, जिस रात चाँद पूरा होता है। करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सब ताकतों का मालिक। जा का = जिस का। निधान = खजाना। गुर = बड़ा। अंतरजामी = (हरेक के) अंदर की जानने वाला। सुजानु = सियाना। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। निरंजन = (निर+अंजन, अंजन = माया की कालिख) माया रहित प्रभु। सभ बिधि = हरेक ढंग। सरनि जोगु = शरण आए की सहायता करने के लायक। अकथ = जिसको बयान ना किया जा सके। पतित = (विकारों में) गिरे हुए।16। अर्थ: पउड़ी: सिर्फ परमात्मा ही सारे गुणों से भरपूर है, सारे जगत का मूल हैऔर सारी ताकतों का मालिक है। वह सर्व-व्यापक प्रभु सब जीवों पर दयावान रहता है, सब जीवों पर उस (की सहायता) का हाथ है। वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारी सृष्टि का पालक है, सबसे बड़ा है, सब कुछ उसी का किया घटित होता है। प्रभु सबके दिल की जानने वाला है, समझदार है, उसका संपूर्ण स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह माया के प्रभाव से परे है। (हे भाई!) वह पारब्रहम सबसे बड़ा मालिक है (जीवों के भले का) हरेक ढंग जानने वाला है, संतों का रक्षक है, शरण आए की सहायता करने के लायक है - उस परमात्मा को आठों पहर नमस्कार कर। हे नानक! परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते, उसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धर। वह परमात्मा (विकारों में) गिरे लोगों को (विकारों से) बचाने वाला है, वह निखसमों का खसम है (अनाथों का नाथ है), उसका आसरा ले।16। सलोकु ॥ दुख बिनसे सहसा गइओ सरनि गही हरि राइ ॥ मनि चिंदे फल पाइआ नानक हरि गुन गाइ ॥१७॥ सलोकु: बिनसे = नाश हो गए। सहसा = सहम। गही = पकड़ी। हरि राइ = प्रभु पातशाह। मनि = मन में। चिंदे = चितवे हुए। नानक = हे नानक! गाइ = गा के।17। अर्थ: अर्थ- हे नानक! (जिस मनुष्य ने) प्रभु पातशाह का आसरा लिया, (उसके) सारे दुख नाश हो गए, (उसके अंदर से हरेक किस्म का) सहम दूर हो गया। परमातमा के गुण गा के (उसने अपने) मन में चितवे हुए सारे ही फल हासिल कर लिए।17। पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै कोई करै बीचारु ॥ को उपदेसै को द्रिड़ै तिस का होइ उधारु ॥ किलबिख काटै होइ निरमला जनम जनम मलु जाइ ॥ हलति पलति मुखु ऊजला नह पोहै तिसु माइ ॥ पद्अर्थ: कोई = जो कोई मनुष्य। को = जो कोई मनुष्य। बीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। उपदेसै = और लोगों को उपदेश करता है। द्रिढ़ै = (अपने मन में) पक्का करता है। नोट: ‘तिस का’ में शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण नहीं लगी है। पद्अर्थ: उधारु = (पापों, किलविखों से) बचाव। किलविख = पाप। काटै = काट लेता है। निरमला = पवित्र (जीवन वाला)। मलु = (किए विकारों की) मैल। जाइ = दूर हो जाती है। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = रौशन। पोहै = अपना जोर नहीं डाल सकती। माइ = माया। अर्थ: अर्थ- जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुण) गाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की महिमा) सुनता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुणों को अपने) मन में बसाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की महिमा करने का और लोगों को) उपदेश देता है (और खुद भी उस महिमा को अपने मन में) पक्की तरह टिकाता है, उस मनुष्य का विकारों से बचाव हो जाता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) विकार काट लेता है। उसका जीवन पवित्र हो जाता है, अनेको जन्मों (के किए हुए विकारों) की मैल (उसके अंदर से) दूर हो जाती है। इस लोक में (भी उसका) मुंह रौशन रहता है (क्योंकि) माया उसपे अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। सो सुरता सो बैसनो सो गिआनी धनवंतु ॥ सो सूरा कुलवंतु सोइ जिनि भजिआ भगवंतु ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु बैसु उधरै सिमरि चंडाल ॥ जिनि जानिओ प्रभु आपना नानक तिसहि रवाल ॥१७॥ पद्अर्थ: सुरता = जिसने प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ी हुई है। बैसनो = स्वच्छ आचरण वाला भक्त। गिआनी = परमात्मा से गहरी सांझ पाने वाला। सूरा = (विकारों का मुकाबला कर सकने वाला) शूरबीर। कुलवंतु = ऊँचे कुल वाला। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भगवंतु = भगवान। सूदु = शूद्र। उधरै = (विकारों से) बच जाता है। सिमरि = स्मरण करके। जानिओ = गहरी सांझ डाली। तिसहि रवाल = उसकी चरण धूल (मांगता है)। अर्थ: अर्थ- (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने भगवान का भजन किया है, वही उच्च कुल वाला है, वह (विकारों का टाकरा करने वाला असल) शूरवीर है; वह (असल) धनवान है; वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ वाला है; वह ऊँचे आचरन वाला है; वह प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखने वाला है। (हे भाई! कोई) क्षत्रिय (हो, कोई) ब्राहमण (हो, कोई) शूद्र (हो, कोई) वैश (हो, कोई) चण्डाल (हो, किसी भी वर्ण का हो, परमात्मा का नाम) स्मरण करके (वह विकारों से) बच जाता है। जिस (भी मनुष्य) ने अपने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है, नानक उसके चरणों की धूल (मांगता है)।17। गउड़ी की वार महला ४ वार का भाव पउड़ी-वार (1) परमात्मा की महिमा करना एक सोहाना सुंदर काम है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के यह कार करता है, वह प्रभु के नाम में लीन रहके संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। (2) जो मनुष्य एक-मन हो के नाम स्मरण करते हैं, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं। (3) गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा का नाम स्मरण करने से मनुष्य को ये यकीन बनता जाता है कि प्रभु सिर पर रक्षक है, सब कुछ उसी की रजा में हो रहा है। इस श्रद्धा के बनने से मनुष्य के चिन्ता-फिक्र, झोरे नाश हो जाते हैं। (4) गुरु के शब्द द्वारा प्रभु का स्मरण करने से ये समझ आ जाती हैकि सब कुछ करने के समर्थ परमात्मा, जगत का प्रबंध चलाने में कोई कमी नहीं छोड़ता, जो कुछ करता है जीवों के भले के लिए करता है। इस तरह बंदगी करने वाले के सारे दुख और झोरे मिट जाते हैं। (5) सतिगुरु के बताए राह पर चल कर जैसे-जैसे मनुष्य प्रभु की महिमा करता है, प्रभु उसे मन में प्यारा लगने लगता है, और इस प्यार की कसक से वह स्वयं को प्रभु में लीन कर लेता है। (6) नाम जपने की इनायत से मनुष्य को मौत का डर नहीं रह जाता, और उसका माथा सदा आनंद भाव में खिला रहता है, पर जिसके अंदर निरी माया की ही लगन है उसके मन में झूठ-कपट होने के कारण उसका चेहरा भ्रष्टा रहता है। (7) गुरु की शरण पड़ के प्रभु की महिमा करने से मनुष्य के पिछले अवगुण सहज ही दूर हो जाते हैं, कोई खास प्रयत्न नहीं करने पड़ते। (8) जिस मनुष्य पर गुरु मेहर करता है, उसे परमात्मा मिलता है, क्योंकि पाँचों कामादिकों को वश करने के करण गुरु और परमात्मा एक रूप हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ने की जगह अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, उन भ्रष्ट हुओं को सदा धिक्कारें ही पड़ती हैं। (9) पूरे सतिगुरु की वाणी तो ‘सत्य स्वरूप’ है, इस वाणी का आसरा ले के ‘सत्य स्वरूप’ ही बन जाना है। पर अंदर से और तथा बाहर से कुछ और मनुष्य गुरु की रीस (नकल) करके ‘कच्चा-पक्का’ बोलते हैं, उनका पाज खुल जाता है, क्योंकि वे तो माया की खातिर ही झखें मारते हैं। (10) और, जो मनुष्य प्रभु को विसार के और तरफ माया आदि में चिक्त जोड़ते हैं वे झूठ के व्यापारी हैं। उनका कोई आधार नहीं, वे मूर्ख ख्वार ही होते हैं। (11) बड़े दुर्लभ हैं वो जो एक-मन हो के नाम स्मरण करते हैं, उनका आसरा ले के और भी तैर जाते हैं। पर जिन्हें निरा खाने-पीने-पहनने का चस्का है, वे कोढ़ के मारे हुए सामने तो मीठीं बातें करते हैं, पर पीछे से दबा के निंदा करते हैं, ऐसे खोटे बंदे रब से दूर बिछुड़े पड़े हैं। (12) प्रभु की बंदगी करने वाले संत-जन तो सारे जगत में शोभा पाते हैं। पर जो मूर्ख उनसे वैर बना लेते हैं, वह कभी सुखी नहीं होते, निर्वैर से वैर करते हैं, अहंकार और ईष्या की आग में जलते हैं। ऐसे लोग शुरू से ही कटे हुए वृक्ष की तरह हैं जिसकी टहनियां खुद ही सूख जाती हैं। इन गुर-निंदको के अंदर भी कोई गुण पनप नहीं सकता। (13) जिंदगी के सफर में जिस मनुष्यों के पास परमात्मा के महिमा वाली वाणी-रूप राहदारी है, उनके राह में कामादिक विकार बाधा नहीं डाल सकते, क्योंकि उन्हें परमात्मा की ताकत पर भरोसा होता है, पर ये दाति सतिगुरु से ही मिलती है। (14) यह जगत, जैसे, व्यापार की मण्डी है। परमात्मा-शाहूकार ने जीवों को यहाँ व्यापार करने भेजा है। जो मनुष्य प्रभु के नाम व महिमा का व्यापार करते हैं वह सही स्वीकार हो के उसके पास पहुँच जाते हैं। पर ये व्यापार सतिगुरु का आसरा ले के ही हो सकता है। (15) पर यह ‘नाम’-व्यापार कहीं बाहर जंगलों में जाकर नहीं करना, ये मूर्खों वाली भटकना है। ये मानव-शरीर, जैसे, एक किला है और इसके अंदर ही, जैसे बाजार बने पड़े हैं। मन को गुरु की सहायता से अंदर की ओर ही मोड़ के परमात्मा के नाम और महिमा रूपी हीरे-मोतियों का व्यापार करना है। (16) यह मानव-शरीर ही ‘धर्म’ कमाने की जगह है; इस में मानो, बेश-कीमती लाल छुपे हुए हैं। जो मनुष्य सतिगुरु की शरणी पड़ता है, उसे ये लाल ढूँढने की समझ आ जाती है। फिर ज्यों-ज्यों वह नाम स्मरण करता हैउसे हर जगह ताने-पेटे की तरह बुना हुआ परोया हुआ परमात्मा दिखता है। (17) गुरु की शरण पड़ने से, गुरु का दीदार करने से, मन में हौसला पैदा हो के मनुष्य कामादिक डाकुओं से मुकाबला करने के लायक हो जाता है, क्योंकि गुरु स्वयं अपने अंदर से इन कामादिकों को खत्म करके परमात्मा का रूप हो चुका है। गुरु के सन्मुख हो के ही यह बाजी जीती जा सकती है। (18) सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल के जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, उसके मन में स्मरण के आनंद का इतना गहरा असर पड़ता है कि दुनिया वाले सारे स्वाद इस के सामने फीके पड़ जाते हैंए सो वह उन रसों की तरफ मुंह ही नहीं करता। वैसे इस आत्मिक आनंद का स्वरूप शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, गूँगे की मिठाई खाने वाली ही बात है। (19) जो मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, प्रभु स्वयं रक्षक बन के उन्हें विकारों से बचाता है। क्योंकि ‘तू तू’ करते-करते वे अपनी ‘मैं’ को ‘तू’ में ही समा देते हैं। पर बंदगी से टूटे हुए मस्त मनुष्य भटकते हैं और शराबियों की तरह ऊल-जलूल बोलते हैं। (20) ज्यों-ज्यों महिमा में मन भीगता है, नाम जपने की ओर ज्यादा कशिश बनती जाती है, यहाँ तक कि दुनियावी रस इंद्रियों को अपनी ओर खींच ही नहीं पाते, ऐसे मनुष्य लोक-परलोक दोनों जगह ‘शाबाशी’ पाते हैं। (21) स्मरण करते-करते उनका परमात्मा से इतना प्यार बन जाता है कि वह सोए जागते हर समय उसकी याद में मस्त रहते हैं, ये प्यार कभी भी फीका नहीं पड़ता। इसमें शक नहीं कि ऐसे ऊँचे प्यार वाले लोग होते दुर्लभ (विरले) ही हैं। (22) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के स्मरण व परमात्मा की तलाश करता है, उसे अपने अंदर से ही प्रभु मिल जाता है, उस को मौत का डर भी खत्म हो जाता है, क्योंकि वह अपना आप परमात्मा के साथ एक-मेक कर लेता है। (23) जैसे-जैसे मनुष्य गुरु के बताए राह पर चल के प्रभु की महिमा करता है त्यों-त्यों उसे प्रभु का बड़प्पन प्रत्यक्ष तौर पर उसकी बनाई हुई कुदरत में दिखने लगता है। इसका नतीजा ये निकलता है कि उस मनुष्य की तृष्णा मिट जाती है। (24) सब जीवों के अंदर, माया के प्रभाव के कारण, चिन्ता आदि के फुरने उठते रहते हैं। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के स्मरण करते हैं उन्हें हर जगह प्रभु के किए चोज दिखाई देते हैं, इस लिए माया का कोई आडंबर उन्हें प्रभु की याद से डुला नहीं सकता। (25) जो मनुष्य गुरु का उपदेश ध्यान से सुन के गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसके पाप विकार दूरहो जाते हैं, उसका चेहरा खिल उठता है। ये रास्ता निराला ही प्रतीत होता है पर यह सच है कि सतिगुरु की ही दी हुई शिक्षा सुन के मन परमात्मा के प्यार में भीग सकता है। (26) पर जिस मनुष्यों का मन माया में पतीजा हुआ है, उनके पास आने का स्वाद नहीं आता,क्योंकि सच और झूठ का मेल नहीं हो सकता। झूठ के बंजारे झूठ के व्यापारियों के पास ही जाना पसंद करते हैं। (27) चोर रात के अंधेरे में ये समझ के कि अब कोई नहीं देखता चोरी करने चल पड़ते हैं, सेंध लगाते हैं, पराई स्त्रीयों की तरफ विकारों भरी नजरों से देखते हैं, पर उनके ये विकार परमात्मा से नहीं छुप सकते। आखिर वे निहित नियमों के अनुसार विकारी लोग दुखी होते हैं और पछताते हैं। (28) विकारों की ठोकर खा के, जिंदगी की सही राह से टूटा हुआ मनुष्य बेअंत पाप करता फिरता है, दूसरों की निंदा में पड़ के सदा लड़ता रहता हैं इस नर्क की आग़ से उसे बचाए कौन? (29) जिस मनुष्य को गुरु परमात्मा का नाम बख्शता है, उसकी सारी चिंताएं व कामादिक विकार नाश हो जाते है क्योंकि प्रभु का नाम ही जिंदगी का सही आसरा है। (30) विकारी पापी मनुष्य बंदगी करने वाले का कोई नुकसान नहीं कर सकता, बल्कि अपने मंद कर्मों के कारण खुद दुखी होता है। (31) प्रभु की बंदगी करने वाले संतजन तो सारे जगत में शोभा पाते हैं, पर जो मनुष्य उनसे वैर बना लेते हैं वह कभी सुखी नहीं होते, निर्वैर से वैर करते हैं, अहंकार और ईरखा की आग में जलते हैं। ऐसे मनुष्य जड़ से कटे हुए वृक्ष की तरह हैं, जिसकी टहनियां खुद-ब-खुद सूख जाती हैं। इन दोखियों के अंदर कोई गुण पनप नहीं सकता। (32) मनमुख मायाधारी पराई निंदा आदि में उम्र गुजार देता है, अहंकार के कारण आस-पडोस में कोई ना कोई झगड़ा खड़ा किए रखता है। आखिर, ये नमकहराम लोक-परलोक दोनों गवा के यहाँ से जाता है। (33) मनमुख के भी क्या वश? ये जिंद और शरीर सब कुछ प्रभु ने खुद दिया है। जिस मनुष्य को प्रभु अपनी तरफ लगाना चाहता है, उसके अंदरके बुरे संस्कार खुद ही दूर करके उसको सतिगुरु की सेवा में लगाता है। जीव की कोई अपनी समझदारी, चतुराई काम नहीं आती। जगत के बेअंत विकारों से बचने के लिए एक प्रभु की टेक ही समर्थ है। नोट: पउड़ी नं: 26 के भाव को और ज्यादा समझाने के लिए गुरु अरजन साहिब ने यहाँ पाँच पउड़ियां (27 से 31 तक) अपनी ओर से जोड़ दी हैं। समूचा भाव: (1 से 7 तक) इनसान को जीवन में कई दुखों-कष्टों से सामना करना पड़ता है, कई चिन्ता-फिक्रें होती हैं, मौत आदि का सहम पड़ा रहता है, पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर महिमा की सुंदर कार करने लग जाता है, उसे ये यकीन हो जाता है कि प्रभु सिर पे रक्षक है और सब कुछ उसकी रजा में हो रहा है; दूसरा, उसे समझ आ जाती है कि जगत का प्रबंध चलाने में परमात्मा कोई कमी नहीं छोड़ रहा; जीवों के भले के लिए करता है; तीसरा, याद की इनायत से प्रभु मन में प्यारा लगने लगता है, नतीजा ये निकलता है कि कोई दुख, कोई चिन्ता, कोई सहम छू नहीं सकता, सारे अवगुण भी सहज ही नाश हो जाते हैं। (8 से 12 तक) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ने की जगह अपने आप को बड़ा कहलाते हैं, गुरु की नकल करते हैं, मुंह के मीठे व मन के खोटे गुर-निंदक भी हैं, उनका पाज खुल जाता है और उन्हें धिक्कारें ही पड़ती हैं, वो गरज़मंद कोढ़ी अहंकार व ईरखा की आग में जलते रहते हैं, कोई गुण उनके अंदर पनप नहीं सकता। (13 से 17 तक) पराए देश में सफर में जाने से पहले मनुष्य के पास राहदारी का होना ज़रूरी है नहीं तो कदम-कदम पे बाधाएं आएंगी। जिंदगी के सफर में भी जिस मनुष्य व्यापारी के पास ‘गुरु शब्द’ की राहदारी है, कामादिक मसूलिए उसके राह में कोई रुकावट नहीं डाल सकते, पर ये नाम-व्यापार शरीर-किले के अंदर ही करना है, जंगलों में भटकने की जरूरत नहीं; शरीर ही धर्म कमाने की जगह है। इस में गुझे लाल छुपे हुए हैं। गुरु की शरण पड़ के एक तो इस लाल के व्यापार की विधि आ जाती है, दूसरा, इनको लूटने वाले कामादिक डाकुओं का मुकाबला करने का हौसला पैदा हो जाता है। (18 से 25 तक) ज्यों-ज्यों स्मरण के आनंद का मन पर गहरा असर पड़ता है, ‘तू तू’ करते हुए मनुष्य की ‘मैं मैं’ ‘तू’ में समाप्त हो जाती है। नाम जपने की तरफ इतनी ज्यादा खींच पैदा हो जाती है कि दुनियावी रस इंद्रियों को खींच नहीं पाते। परमात्मा के साथ कुछ ऐसा प्यार पैदा हो जाता है कि सोते जागते उसी की याद प्यारी लगती है। फिर तो अंदर बसता भी वही दिखता है और बाहर कुदरत में भी उसी का जलवा नजर आता है। तब, जैसे चित्रकार को उसकी अपनी बनाई तस्वीर मोह नहीं सकती, वैसे प्रभु के साथ एक-मेक हुए बंदे को माया के सुंदर नखरे आकर्षित नहीं कर सकते। पर ये सारी इनायत गुरु की शरण पड़ने से ही मिलती है। (26 से 33 तक) जिस अभागी को माया का चस्का पड़ जाए, वह गुरु की शरण आने की जगह, पर-धन, पर-तन और पराई निंदा आदि पापों में पड़ के, जैसे, नर्क की आग में जलता है। यहाँ तक गलत रास्ते पर पड़ जाता है कि भलों और निर्वैर पुरखों से भी ईरखा करता है। जड़ से ही कटे हुए वृक्ष की तरह उसके अंदर कोई गुण पनप नहीं सकता। पर जीव की अपनी कोई समझदारी चतुराई काम नहीं देती। प्रभु जिस पर मेहर करता है उसे सतिगुरु के चरणों में ला के विकारों से बचा लेता है। मुख्य भाव: संसार-समुंदर में अनेक दुख और विकार हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करता है, वह इनमें से सही सलामत पार लांघ जाता है, पर जो मनुष्य अपने बड़ेपन में रहता है, वह सत्संग में आने की जगह गुरमुखों की निंदा करता है, और इस तरह उसके अंदर भले गुण पनप नहीं सकते। गउड़ी की वार महला ४ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआलु है जिस नो समतु सभु कोइ ॥ एक द्रिसटि करि देखदा मन भावनी ते सिधि होइ ॥ सतिगुर विचि अम्रितु है हरि उतमु हरि पदु सोइ ॥ नानक किरपा ते हरि धिआईऐ गुरमुखि पावै कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: समतु = एक जैसा। द्रिसटि = नजर। भावनी = श्रद्धा। सिधि = सफलता। हरि पदु = हरि के साथ मिलाप।1। अर्थ: सतिगुरु सब जीवों पर मेहर करने वाला है, उसके लिए हरेक जीव एक समान है। वह सब की ओर एक निगाह से देखता है, पर (जीव को अपने उद्यम की) सफलता अपने मन की भावना के कारण होती है (भाव, जैसी मन की भावना तैसी मुराद मिलती है)। सतिगुरु के पास हरि के श्रेष्ठ नाम का अमृत है। (पर) हे नानक! यही हरि-नाम, जीव (प्रभु की) कृपा से स्मरण करता है, सतिगुरु से सन्मुख हो के कोई (भाग्यशाली) ही हासिल कर सकता है।1। मः ४ ॥ हउमै माइआ सभ बिखु है नित जगि तोटा संसारि ॥ लाहा हरि धनु खटिआ गुरमुखि सबदु वीचारि ॥ हउमै मैलु बिखु उतरै हरि अम्रितु हरि उर धारि ॥ सभि कारज तिन के सिधि हहि जिन गुरमुखि किरपा धारि ॥ नानक जो धुरि मिले से मिलि रहे हरि मेले सिरजणहारि ॥२॥ पद्अर्थ: बिखु = जहिर। उर = हृदय। सिध = सफल (सिधि = सफलता)। सिरजणहारि = विधाता ने।2। अर्थ: माया से उपजा हुआ अहंकार बिलकुल जहर (का काम करता) है, इसके पीछे लगने से सदा जगत में घाटा है। प्रभु के नाम धन का लाभ सतिगुरु के सन्मुख रहके शब्द के विचार के द्वारा कमाया (जा सकता है), और अहंकार की मैल (रूपी) जहर, प्रभु का अमृत नाम हृदय में धारन करने से उतर जाती है। (ये नाम की दाति प्रभु के हाथ में है), जिस गुरमुखों पर वह कृपा करता है, उनके सारे काम सफल हो जाते हैं। (उन्हें मानव जनम के असल व्यापार में घाटा नहीं पड़ता), (पर) हे नानक! प्रभु को वही मिले हैं, जो दरगाह से मिले हैं, और जिन्हें विधाता हरि ने स्वयं मिलाया है।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |