श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु सचु है सचु सचा गोसाई ॥ तुधुनो सभ धिआइदी सभ लगै तेरी पाई ॥ तेरी सिफति सुआलिउ सरूप है जिनि कीती तिसु पारि लघाई ॥ गुरमुखा नो फलु पाइदा सचि नामि समाई ॥ वडे मेरे साहिबा वडी तेरी वडिआई ॥१॥

पद्अर्थ: सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। गोसाई = धरती का पति। पाई = पैरों पे, चरणों पर। सुआलिओ = सुंदरी (सुआलिउ = संदर, सोहाना)। नामि = नाम में।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू सदा स्थिर रहने वाला मालिक है और पृथ्वी का सच्चा साई है, सारी सृष्टि तेरा ध्यान है और सब जीव-जंतु तेरे आगे सिर निवाते हैं। तेरी महिमा करना एक सोहाना सुंदर कार्य है। जिसने किया है, उसको (संसार-सागर से) पार उतारता है। हे प्रभु! जो जीव सतिगुरु के सन्मुख रहते हैं; तू उनकी मेहनत (महिमा करने की मेहनत) सफल करता है, तेरे सच्चे नाम में वह लीन हो जाते हैं। हे मेरे मालिक! (प्रभु! जैसा) तू खुद है (वैसी ही) तेरी बड़ाई (भी) बड़ी (भाव, बड़े गुण पैदा करने वाली) है।1।

सलोक मः ४ ॥ विणु नावै होरु सलाहणा सभु बोलणु फिका सादु ॥ मनमुख अहंकारु सलाहदे हउमै ममता वादु ॥ जिन सालाहनि से मरहि खपि जावै सभु अपवादु ॥ जन नानक गुरमुखि उबरे जपि हरि हरि परमानादु ॥१॥

पद्अर्थ: सादु = स्वाद, चस्का। फिका सादु = व्यर्थ चस्का। सलाहदे = अच्छा समझते हैं। ममता = अपनत्व। वादु = झगड़ा, झबेला, लंबी बातें। अपवादु = झगड़ा, कड़वा झगड़ा। परमानादु = परम आनंद हरि।1।

अर्थ: हरि के नाम के बिना किसी और की महिमा करनी - ये बोलने का सारा (उद्यम) बे-स्वादा काम है (भाव, इसमें असली आनंद नहीं है)। मनमुख जीव अहंकार, अहंम और अपनत्व की बातों को पसंद करते हैं, भाव, इनके आधार पर किसी मनुष्य की निंदा करते हैं और इनका सारा झगड़ा (भाव, स्तुति-निंदा की बातों का सिलसिला) व्यर्थ जाता है। हे नानक! सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य पूर्ण आनंद स्वरूप प्रभु का स्मरण करके (दूसरे मनुष्यों की स्तुति निंदा के चस्के से) बच निकलते हैं।1।

मः ४ ॥ सतिगुर हरि प्रभु दसि नामु धिआई मनि हरी ॥ नानक नामु पवितु हरि मुखि बोली सभि दुख परहरी ॥२॥

पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! धिआई = मैं ध्याऊँ। मनि = मन में। मुखि = मुंह से। परहरी = मैं दूर करूँ।2।

अर्थ: हे सतिगुरु! मुझे प्रभु की बातें सुना (जिससे) मैं हृदय में प्रभु का नाम स्मरण कर सकूँ। हे नानक! प्रभु का नाम पवित्र है (इसलिए मन चाहता है कि मैं भी) मुँह से उच्चारण करके (अपने) सारे दुख दूर कर लूँ।2।

पउड़ी ॥ तू आपे आपि निरंकारु है निरंजन हरि राइआ ॥ जिनी तू इक मनि सचु धिआइआ तिन का सभु दुखु गवाइआ ॥ तेरा सरीकु को नाही जिस नो लवै लाइ सुणाइआ ॥ तुधु जेवडु दाता तूहै निरंजना तूहै सचु मेरै मनि भाइआ ॥ सचे मेरे साहिबा सचे सचु नाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: निरंकारु = आकार रहित। निरंजन = हे माया के प्रभाव से रहित हरि! लवै लाइ = बराबरी दे के। सचु = सदा स्थिर रहने वाली। नाइआ = नाम, बड़ाई।2।

अर्थ: हे रौशनी देने वाले माया से रहित प्रभु! तू स्वयं ही स्वयं निरंकार है। हे सच्चे साई! जिन्होंने एकाग्र हो के तेरा स्मरण किया है, उनका तूने सब दुख दूर कर दिया है। (संसार में) तेरा शरीक कोई नहीं जिसे बराबरी दे के (तेरे जैसा) कहें। हे माया से रहित सच्चे हरि! तेरे जितना तू स्वयं ही दाता है, तू ही मेरे मन को प्यारा लगता है। हे मेरे सच्चे साहिब! तेरी बडिआई (महिमा) सदा कायम रहने वाली है।2।

सलोक मः ४ ॥ मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥ नानक रोगु गवाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥

अर्थ: जिनके मन में अहंकार का रोग है, वे मन के मुरीद विकारी लोग भ्रम में भूले हुए हैं। हे नानक! ये अहंम् का रोग सतिगुरु को मिल के और सत्संग में रह कर दूर कर।1।

मः ४ ॥ मनु तनु रता रंग सिउ गुरमुखि हरि गुणतासु ॥ जन नानक हरि सरणागती हरि मेले गुर साबासि ॥२॥

पद्अर्थ: रंग सिउ = प्रेम से। गुणतासु = गुणों का खजाना हरि। गुर साबासि = गुरु की ओर से शाबाशी, गुरु की थापी।2।

अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन और शरीर गुण-निधान हरि के प्रेम से रंगा रहता है। हे नानक! जिस जन को सतिगुरु की शाबशी मिलती है, प्रभु की शरण पड़े उस मनुष्य को प्रभु (अपने साथ) मेल लेता है।2।

पउड़ी ॥ तू करता पुरखु अगमु है किसु नालि तू वड़ीऐ ॥ तुधु जेवडु होइ सु आखीऐ तुधु जेहा तूहै पड़ीऐ ॥ तू घटि घटि इकु वरतदा गुरमुखि परगड़ीऐ ॥ तू सचा सभस दा खसमु है सभ दू तू चड़ीऐ ॥ तू करहि सु सचे होइसी ता काइतु कड़ीऐ ॥३॥

पद्अर्थ: पुरखु = सब में व्यापक। वड़ीऐ = तुलना दें। काइतु = क्यूँ? कढ़ीऐ = चिन्ता करें।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू (सारी सृष्टि को) रचने वाला है, (सृष्टि में) व्यापक है (और फिर भी) पहुँच से परे है। किसी के साथ तेरी तुलना नहीं की जा सकती। किस का नाम लें? तेरे जितना और कोई नहीं, तुझे ही तेरे जितना कह सकते हैं। (हे हरि!) तू हरेक शरीर में व्यापक है, (पर ये बात) उनपे प्रगट (होती है) जो सतिगुरु के सन्मुख (होते हैं)। (हे प्रभु!) तू सदा स्थिर रहने वाला सब का मालिक है और सबसे सुंदर (श्रेष्ठ) है। हे सच्चे (हरि!) (अगर हमें ये निश्चय हो जाए कि) जो तू करता है वही होता है, तो हम चिन्ता क्यों करें?।3।

सलोक मः ४ ॥ मै मनि तनि प्रेमु पिरम का अठे पहर लगंनि ॥ जन नानक किरपा धारि प्रभ सतिगुर सुखि वसंनि ॥१॥

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। धारि = धारी है।1।

नोट: शब्द ‘लगंनि’ और ‘वसंनि’ वर्तमान काल, अन्य-पुरुष, बहुवचन में हैं। ‘वसंनि’ का अर्थ ‘मैं बसता रहूँ’ करना गलत है (देखें गुरबाणी व्याकरण)।

अर्थ: (मन चाहता है कि) आठों पहर लग जाएं (भाव, गुजर जाएं) (पर) मेरे हृदय और शरीर में प्यारे का प्यार (लगा रहे, भाव, ना खत्म हो) (क्योंकि) हे नानक! (जिस) मनुष्यों पर हरि (ऐसी) कृपा करता है वह सतिगुरु के (बख्शे हुए) सुख में (सदा) बसते हैं।1।

मः ४ ॥ जिन अंदरि प्रीति पिरम की जिउ बोलनि तिवै सोहंनि ॥ नानक हरि आपे जाणदा जिनि लाई प्रीति पिरंनि ॥२॥

नोट: पिछला शलोक और ये शलोक दानों ही महले चौथे के हैं, शब्द ‘लगंनि’, ‘वसंनि’ और ‘सोहंनि’ एक ही किस्म के हैं।

पद्अर्थ: सोहंनि = शोभा देते हैं। पिरंम की = प्यारे की। जिनि = जिस ने। पिरंनि = पिर ने, पति ने। जिनि पिरंनि = जिस पिर ने।2।

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।

अर्थ: जिस के हृदय में प्रभु का प्यार है, वह जैसे बोलते हैं, वैसे ही शोभा देते हैं (भाव, उनका बोला हुआ मीठा लगता है) (ये एक आश्चर्यजनक चमत्कार है)। हे नानक! (इस भेद की जीव को समझ नहीं आ सकती) जिस पर (प्रभु) ने ये प्यार लगाया है वह खुद ही जानता है।2।

पउड़ी ॥ तू करता आपि अभुलु है भुलण विचि नाही ॥ तू करहि सु सचे भला है गुर सबदि बुझाही ॥ तू करण कारण समरथु है दूजा को नाही ॥ तू साहिबु अगमु दइआलु है सभि तुधु धिआही ॥ सभि जीअ तेरे तू सभस दा तू सभ छडाही ॥४॥

पद्अर्थ: बुझाही = तू समझ देता है। करण = जगत। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। छडाही = दुखों-चिंताओं से तू छुड़ाता है (देखें पउड़ी नं: 2,3 में ‘दुख ते काड़ा’)।4।

अर्थ: हे (सृष्टि के) रचनहार! तू खुद अचूक है, भूलता नहीं (गलती नहीं करता)। हे सच्चे! सतिगुरु के शब्द के द्वारा तू ये समझाता है कि जो तू करता है सो ठीक करता है। हे हरि! तेरा कोई शरीक नहीं और सृष्टि के इस सारे परपंच का मूल तू खुद ही है और सामर्थ्य वाला है। तू दया करने वाला मालिक है (पर) तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती; सब जीव-जंतु तुझे स्मरण करते हैं। सब जीव तेरे (रचे हुए) हैं, तू सब का (मालिक) है, तू सभी को (दुखों और चिंताओं से) स्वयं छुड़वाता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh