श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिना सतिगुर का आखिआ सुखावै नाही तिना मुह भलेरे फिरहि दयि गाले ॥ जिन अंदरि प्रीति नही हरि केरी से किचरकु वेराईअनि मनमुख बेताले ॥

पद्अर्थ: भलेरे = बुरे, भ्रष्ट। दयि = पति द्वारा। किचरकु = कब तक? वेराईअनि = धैर्य बाँधा जा सकता है।

अर्थ: जिस मनुष्यों को सतिगुरु के वचन अच्छे नहीं लगते उनके मुँह भ्रष्ट हुए हुये हैं, वे प्रभु पति द्वारा धिक्कारे फिरते हैं। जिनके हृदय में प्रभु का प्यार नहीं, उन्हें कब तक धीरज दिया जा सकता है?

वह मन के मुरीद लोग भूतों की तरह ही भटकते हैं।

सतिगुर नो मिलै सु आपणा मनु थाइ रखै ओहु आपि वरतै आपणी वथु नाले ॥ जन नानक इकना गुरु मेलि सुखु देवै इकि आपे वखि कढै ठगवाले ॥१॥

पद्अर्थ: थाइ = जगह पर। वथु = चीज। नाले = और, इसके साथ ही, तथा। इकि = कई जीव। ठगवाले = ठगी करने वाले।1।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु को मिलता है वह (एक तो) अपने मन को (विकारों से बचा के) ठिकाने रखता है, साथ ही अपनी वस्तु को वह स्वयं ही इस्तेमाल करता है (भाव, कामादिक वैरी उसके आनंद को खराब नहीं कर सकते), (पर) हे दास नानक! (जीव के हाथ में कुछ नहीं) एक को खुद हरि मिलाता है और सुख बख्शता है और एक ठगी करने वालों को अलग कर देता है (भाव, सतिगुरु मिलने नहीं देता)।1।

मः ४ ॥ जिना अंदरि नामु निधानु हरि तिन के काज दयि आदे रासि ॥ तिन चूकी मुहताजी लोकन की हरि प्रभु अंगु करि बैठा पासि ॥ जां करता वलि ता सभु को वलि सभि दरसनु देखि करहि साबासि ॥ साहु पातिसाहु सभु हरि का कीआ सभि जन कउ आइ करहि रहरासि ॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। दयि = पति ने, खसम ने। रासि आदे = सिरे चढ़ा दिए, सफल कर दिए। अंगु करि = पक्ष कर के। रहरासि = विनती, अरदास।

अर्थ: जिनके हृदय में प्रभु नाम का खजाना है, पति प्रभु ने उनके काम खुद सफल कर दिए हैं; उन्हें लोगों की मुहताजी करने की जरूरत नहीं रहती (क्योंकि) प्रभु उनका पक्ष करके (सदा) उनके अंग-संग है। (मुहताजी तो कहीं रही, बल्कि) सब लोग उनका दर्शन करके उनकी उपमा करते हैं (क्योंकि) जब खुद विधाता उनका पक्ष करता है तो हर किसी ने पक्ष करना हुआ। (यहाँ तक कि) शाह-पातशाह भी सारे हरि के दास के आगे सिर निवाते हैं (क्योंकि वे भी तो) सारे प्रभु के ही बनाए हुए हैं (प्रभु के दास से आक़ी कैसे हों?)

गुर पूरे की वडी वडिआई हरि वडा सेवि अतुलु सुखु पाइआ ॥ गुरि पूरै दानु दीआ हरि निहचलु नित बखसे चड़ै सवाइआ ॥

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। निहचलु = अटल, ना समाप्त होने वाला। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता जाता है।

अर्थ: (यही) महान महिमा पूरे सतिगुरु की ही है (कि हरि के दास का शाहों-पातशाहों समेत लोग आदर करते हैं, और वह) बड़े हरि की सेवा करके अतुल्य सुख पाता है। पूरे सतिगुरु के द्वारा प्रभु ने (जो अपने नाम का) दान (अपने सेवक को) बख्शा है वह समाप्त नहीं होता, क्योंकि, प्रभु सदा बख्शिश किए जाता है और वह दान (दिनो-दिन) बढ़ता रहता है।

कोई निंदकु वडिआई देखि न सकै सो करतै आपि पचाइआ ॥ जनु नानकु गुण बोलै करते के भगता नो सदा रखदा आइआ ॥२॥

पद्अर्थ: देखि न सकै = देख के बर्दाश्त नहीं कर सकता। करतै = कर्तार ने। पचाइआ = जलाया है।2।

अर्थ: जो कोई निंदक (ऐसे हरि के दास की) महिमा देख के बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसे विधाता ने खुद (ईष्या की आग में) दुखी किया है। मैं दास नानक विधाता के गुण गाता हूँ, वह अपने भक्तों की सदा रक्षा करता आया है।2।

पउड़ी ॥ तू साहिबु अगम दइआलु है वड दाता दाणा ॥ तुधु जेवडु मै होरु को दिसि न आवई तूहैं सुघड़ु मेरै मनि भाणा ॥ मोहु कुट्मबु दिसि आवदा सभु चलणहारा आवण जाणा ॥ जो बिनु सचे होरतु चितु लाइदे से कूड़िआर कूड़ा तिन माणा ॥ नानक सचु धिआइ तू बिनु सचे पचि पचि मुए अजाणा ॥१०॥

पद्अर्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके। दाणा = दाना, सयाना। सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला, सुघड़। होरतु = और जगह। पचि पचि = जल जल के।10।

अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) और दयालु मालिक है, बड़ा दाता और समझदार है; मुझे तेरे जितना बड़ा और कोई दिखाई नहीं देता, तू ही सुजान मेरे मन में प्यारा लगा है। (जो) मोह (रूप) कुटंब दिखाई देता है सब विनाशवान है और (संसार में) पैदा होने मरने (का कारण बनता है)। (इस करके) सच्चे हरि के बिना जो मनुष्य किसी और के साथ मन जोड़ते हैं वे झूठ के व्यापारी हैं, और उनका (इस पर) मान झूठा है। हे नानक! सच्चे प्रभु का स्मरण कर, (क्योंकि) सच्चे से टूटे हुए मूर्ख जीव दुखी हो के आत्मिक मौत लिए रहते हैं।10।

सलोक मः ४ ॥ अगो दे सत भाउ न दिचै पिछो दे आखिआ कमि न आवै ॥ अध विचि फिरै मनमुखु वेचारा गली किउ सुखु पावै ॥ जिसु अंदरि प्रीति नही सतिगुर की सु कूड़ी आवै कूड़ी जावै ॥

पद्अर्थ: अगो दे = पहले। सत भाउ = आदर, नेक भाउ, अच्छा सलूक। अध विचि = दुचित्तेपन में। कूड़ी = झूठ मूठ ही, लोकाचारी ही। दिचै = दिया जाए। पिछोदे = समय बीत जाने पर।

अर्थ: मन का मुरीद मनुष्य पहले तो (गुरु के वचन को) आदर नहीं देता, बाद में उसके कहने का कोई लाभ नहीं होता। वह अभागा दुचित्तेपन में ही भटकता है (अगर श्रद्धा और प्यार ना हो तो) निरी बातें करके कैसे सुख मिल जाए? जिसके हृदय में सतिगुरु का प्यार नहीं, वह लोकाचारी (गुरु के दर पर) आता जाता है (उसका आना-जाना लोक दिखावा ही है)।

जे क्रिपा करे मेरा हरि प्रभु करता तां सतिगुरु पारब्रहमु नदरी आवै ॥ ता अपिउ पीवै सबदु गुर केरा सभु काड़ा अंदेसा भरमु चुकावै ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती जन नानक अनदिनु हरि गुण गावै ॥१॥

पद्अर्थ: अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। केरा = का। भरमु = भटकना। अनंदि = आनंद में।1।

अर्थ: अगर मेरा विधाता प्रभु मेहर करे तो (उस मनुष्य को भी) दिखाई दे जाता है कि सतिगुरु पारब्रहम (का रूप है)। वह सतिगुरु का शब्द-रूपी अमृत पीता है और चिन्ता-फिक्र व भटकना सब खत्म का लेता है। हे नानक! जो मनुष्य हर रोज प्रभु के गुण गाता है वह दिन रात सदा सुख में रहता है।1।

मः ४ ॥ गुर सतिगुर का जो सिखु अखाए सु भलके उठि हरि नामु धिआवै ॥ उदमु करे भलके परभाती इसनानु करे अम्रित सरि नावै ॥ उपदेसि गुरू हरि हरि जपु जापै सभि किलविख पाप दोख लहि जावै ॥ फिरि चड़ै दिवसु गुरबाणी गावै बहदिआ उठदिआ हरि नामु धिआवै ॥ जो सासि गिरासि धिआए मेरा हरि हरि सो गुरसिखु गुरू मनि भावै ॥

पद्अर्थ: भलके = नित्य सवेरे। अंम्रितसरि = नाम रूपी अमृत के सरोवर में। उपदेसि = उपदेश के द्वारा। किलविख = पाप। सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सासि गिरासि = हर दम।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु का (सच्चा) सिख कहलवाता है (भाव, जिसको लोग सच्चा सिख कहते हैं) वह हर रोज सवेरे उठ के हरि-नाम का स्मरण करता है, हर रोज सवेरे उद्यम करता है, स्नान करता है (और फिर नाम रूपी) अमृत के सरोवर में डुबकी लगाता है। सतिगुरु के उपदेश द्वारा प्रभु के नाम का जाप जपता है और (इस तरह) उसके सारे पाप विकार उतर जाते हैं। फिर दिन चढ़ने पर सतिगुरु की वाणी का कीर्तन करता है और (दिन में) बैठते-उठते (भाव, काम-काज करते हुए) प्रभु का नाम स्मरण करता है। सतिगुरु के मन को वह सिख भाता है जो प्यारे प्रभु को हर दम याद करता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh