श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 306 जिस नो दइआलु होवै मेरा सुआमी तिसु गुरसिख गुरू उपदेसु सुणावै ॥ जनु नानकु धूड़ि मंगै तिसु गुरसिख की जो आपि जपै अवरह नामु जपावै ॥२॥ पद्अर्थ: अवरह = और लोगों को।2। अर्थ: जिस पर प्यारा प्रभु दयाल होता है, उस गुरसिख को सतिगुरु शिक्षा देता है। दास नानक (भी) उस गुरसिख की चरणधूड़ मांगता है जो आप नाम जपता है व और लोगों को जपाता है।2। पउड़ी ॥ जो तुधु सचु धिआइदे से विरले थोड़े ॥ जो मनि चिति इकु अराधदे तिन की बरकति खाहि असंख करोड़े ॥ तुधुनो सभ धिआइदी से थाइ पए जो साहिब लोड़े ॥ जो बिनु सतिगुर सेवे खादे पैनदे से मुए मरि जमे कोड़्हे ॥ ओइ हाजरु मिठा बोलदे बाहरि विसु कढहि मुखि घोले ॥ मनि खोटे दयि विछोड़े ॥११॥ पद्अर्थ: बरकति = कमाई। बरकति खाहि = कमाई खाते हैं, भाव, उनके सदका और भी नाम जपते हैं।11। अर्थ: हे सच्चे प्रभु! वह बहुत थोड़े जीव हैं, जो (एकाग्रचिक्त हो के) तेरा नाम स्मरण करते हैं। पूर्ण एकाग्रता में जो मनुष्य ‘एक’ की आराधना करते हैं, उनकी कमाई बेअंत जीव खाते हैं। हे हरि! (वैसे तो) सारी सृष्टि तेरा ध्यान धरती है, पर स्वीकार वे होते हैं जिनको तू मालिक पसंद करता है। सतिगुरु की सेवा से वंचित रहके जो मनुष्य खाने-पीने और पहनने के रसों में लगे हुए हैं, वे कोहड़ी बार-बार पैदा होते हैं। ऐसे मनुष्य सामने (तो) मीठी बातें करते हैं (पर) पीछे से मुँह में से विष घोल के निकालते हैं (अर्थात, जी भर के निंदा करते हैं)। ऐसे मन के खोटों को प्रभु पति ने (अपने आप से) विछोड़ दिया है।11। सलोक मः ४ ॥ मलु जूई भरिआ नीला काला खिधोलड़ा तिनि वेमुखि वेमुखै नो पाइआ ॥ पासि न देई कोई बहणि जगत महि गूह पड़ि सगवी मलु लाइ मनमुखु आइआ ॥ पद्अर्थ: खिधोलड़ा = जुल्ला। गूह = गंद। सगवी = बल्कि अधिक। अर्थ: मैल और जूओं से भरा हुआ नीला और काला जुल्ला उस बे-मुख ने बेमुख को डाल दिया, संसार में उसे कोई पास बैठने नहीं देता, गंद पड़ के बल्कि ज्यादा मैल लगा के मनमुख (वापस) आया। पराई जो निंदा चुगली नो वेमुखु करि कै भेजिआ ओथै भी मुहु काला दुहा वेमुखा दा कराइआ ॥ तड़ सुणिआ सभतु जगत विचि भाई वेमुखु सणै नफरै पउली पउदी फावा होइ कै उठि घरि आइआ ॥ पद्अर्थ: तड़ = तड़क, तुरंत। सभतु = सब जगह। सणै = समेत। नफर = नौकर। पउली पउदी = जूतियां पड़तीं। फावा = पागल, बउरा। अर्थ: जो मनमुख पराई निंदा व चुगली करने के लिए (सलाह) करके भेजा गया था, वहाँ भी दोनों का मुँह काला किया गया। संसार में हर तरफ तुरंत सुना गया है कि हे भाई! बेमुख को नौकर समेत जूतियां पड़ीं और खासा हल्का हो के घर को आ गया है। अगै संगती कुड़मी वेमुखु रलणा न मिलै ता वहुटी भतीजीं फिरि आणि घरि पाइआ ॥ हलतु पलतु दोवै गए नित भुखा कूके तिहाइआ ॥ पद्अर्थ: भतीजी = भतीजियों ने। आणि = ला के। अर्थ: आगे संगतों व कुड़मों (भाव, साक-संबधियों) में बेमुख को बैठना ना मिले, तो फिर पत्नी और भतीजों ने ला के घर में ठिकाना दिया, उसके लोक-परलोक दोनों व्यर्थ गए और (अब) भूखा और प्यासा पुकारता है। धनु धनु सुआमी करता पुरखु है जिनि निआउ सचु बहि आपि कराइआ ॥ जो निंदा करे सतिगुर पूरे की सो साचै मारि पचाइआ ॥ एहु अखरु तिनि आखिआ जिनि जगतु सभु उपाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: बहि = बैठ के (भाव) ध्यान से। पचाइआ = ख्वार किया। अखरु = वचन, न्याय के वचन। तिनि = उस प्रभु ने।1। अर्थ: धन्य विधाता मालिक है जिसने खुद ध्यान से सच्चा न्याय कराया है, (कि) जो मनुष्य पूरे सतिगुरु की निंदा करता है, सच्चा प्रभु उस को खुद (आत्मिक मौत) मार के दुखी करता है, (ये) न्याय के वचन उस प्रभु ने खुद कहे हैं जिस ने सारा संसार पैदा किया है।1। मः ४ ॥ साहिबु जिस का नंगा भुखा होवै तिस दा नफरु किथहु रजि खाए ॥ जि साहिब कै घरि वथु होवै सु नफरै हथि आवै अणहोदी किथहु पाए ॥ पद्अर्थ: नंगा भुखा = कंगाल। वथु = चीज। हथि आवै = हाथ में आती है, मिलती है। अर्थ: जिस नौकर का मालिक कंगाल हो, उसके नौकर ने कहाँ से पेट भर के खाना हुआ? नौकर को वही वस्तु मिल सकती है जो मलिक के घर में हो, अगर घर में ही ना हो तो उसे कहाँ से मिले? जिस दी सेवा कीती फिरि लेखा मंगीऐ सा सेवा अउखी होई ॥ नानक सेवा करहु हरि गुर सफल दरसन की फिरि लेखा मंगै न कोई ॥२॥ अर्थ: जिसकी सेवा करने से फिर भी लेखा मांगा जाना हो, वह सेवा मुश्किल है (भाव, उसके करने का क्या लाभ है?) हे नानक! जिस हरि और सतिगुरु के दर्शन (मनुष्य के जनम को) सफल करते हैं, उनकी सेवा करो (ता कि) फिर कोई लेखा ना मांगे।2। पउड़ी ॥ नानक वीचारहि संत जन चारि वेद कहंदे ॥ भगत मुखै ते बोलदे से वचन होवंदे ॥ प्रगट पहारा जापदा सभि लोक सुणंदे ॥ सुखु न पाइनि मुगध नर संत नालि खहंदे ॥ ओइ लोचनि ओना गुणै नो ओइ अहंकारि सड़ंदे ॥ ओइ विचारे किआ करहि जा भाग धुरि मंदे ॥ जो मारे तिनि पारब्रहमि से किसै न संदे ॥ वैरु करहि निरवैर नालि धरम निआइ पचंदे ॥ जो जो संति सरापिआ से फिरहि भवंदे ॥ पेडु मुंढाहूं कटिआ तिसु डाल सुकंदे ॥१२॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! मुखै ते = मुँह से। होवंदे = हो जाते हैं। पहारा = संसार में। सभि = सारे। मुगध = मूर्ख। खहंदे = (जो) झगड़ा डालते हैं। ओइ = वह मुग्ध नर (बहुवचन)। ओना गुणै नो = उन संत जनों के गुणों को। अहंकारि = अहंकार में। तिनि = उस ने। संदे = के। निआइ = न्याय अनुसार। पचंदे = जलते हैं। संति = संत द्वारा। पेडु = पौधा। सरापिआ = धिक्कारा हुआ, दुत्कारा हुआ।12। अर्थ: हे नानक! संत (अपने) विचार बताते हैं और चारों वेद (भाव, पुरातन धर्म-पुस्तकें भी यही बात) कहते हैं (कि) भक्तजन जो वचन मुँह से बोलते हैं वह सही होते हैं। (भक्त) सारे जगत में मशहूर हो जाते हैं, उनकी शोभा सारे लोग सुनते हैं। जो मूर्ख मनुष्य (ऐसे) संतों से वैर करते हैं वह सुख नहीं पाते, (वह कष्ट देने वाले) जलते तो अहंकार में हैं, पर संतजनों के गुणों को तरसते हैं। इन दुखदाई मनुष्यों के वश में भी क्या है? शुरू से (बुरे कर्म करने के कारण) बुरे संस्कार ही उनका भाग्य है (और इन संस्कारों से प्रेरित हो के गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं)। जो मनुष्य ईश्वर की तरफ से मरे हुए हैं, वह किसी के (सगे) नहीं। निर्वैरों के साथ भी वैर करते हैं और परमात्मा व धर्म-न्याय के अनुसार दुखी होते हैं। जो जो मनुष्य संत (गुरु) की ओर से धिक्कारे हुए हैं (भाव, गुरु के दर से वंचित हैं) वह भटकते फिरते हैं। जो वृक्ष जड़ से उखड़ जाए, उसकी टहनियां भी सूख जाती हैं।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |