श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ४ ॥ अंतरि हरि गुरू धिआइदा वडी वडिआई ॥ तुसि दिती पूरै सतिगुरू घटै नाही इकु तिलु किसै दी घटाई ॥

पद्अर्थ: तुसि = प्रसन्न हो के। पूरै = पूरे (प्रभु) ने।

अर्थ: सतिगुरु की बड़ाई बड़ी है (महिमा अपार है) (क्योंकि वह) हरि को हृदय में स्मरण करता है; पूरे प्रभु ने सतिगुरु को प्रसन्न हो के (इही बड़ाई) बख्शी है (इस करके) किसी के घटाने से रक्ती भर भी नहीं घटती।

सचु साहिबु सतिगुरू कै वलि है तां झखि झखि मरै सभ लुोकाई ॥ निंदका के मुह काले करे हरि करतै आपि वधाई ॥ जिउ जिउ निंदक निंद करहि तिउ तिउ नित नित चड़ै सवाई ॥ जन नानक हरि आराधिआ तिनि पैरी आणि सभ पाई ॥१॥

पद्अर्थ: झखि झखि = खप खप के। लुोकाई = सृष्टि। करतै = करते ने। चढ़ै सवाई = बढ़ती है। तिनि = उस प्रभु ने। आणि = ला के। सभ = सारी सृष्टि।1।

नोट: ‘लुोकाई’ में ‘ुो’ से मात्रा ‘ु’ का उच्चारण करना है, असल पाठ है ‘लोकाई’ पर यहाँ पढ़ना है ‘लुकाई’।

अर्थ: जब सच्चा पति प्रभु सतिगुरु का अंग पालता है, तो सारी दुनिया (भले ही) पड़ी झक्खें मारे (सतिगुरु का कुछ बिगाड़ नहीं सकती); सतिगुरु की महिमा विधाता ने खुद बढ़ाई है और दोखियों के मुँह काले किए हैं। ज्यों-ज्यों निंदक मनुष्य, सतिगुरु की निंदा करते हैं, त्यों-त्यों सतिगुरु की महिमा बढ़ती है। हे दास नानक! (सतिगुरु ने जिस) प्रभु का स्मरण किया है, उस (प्रभु) ने सारी सृष्टि ला के सतिगुरु के पैरों पर डाल दी है।1।

मः ४ ॥ सतिगुर सेती गणत जि रखै हलतु पलतु सभु तिस का गइआ ॥ नित झहीआ पाए झगू सुटे झखदा झखदा झड़ि पइआ ॥

पद्अर्थ: गणत = वैर, किड़। झहीआ पाए = दाँत किरच के गुस्सा करता है। झगू सुटे = पागल कुत्ते की तरह थूक फेंकता है।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के साथ द्वैष रखता है, उसके लोक व परलोक समूचे ही व्यर्थ जाते हैं। (उसकी पेश तो चलती नहीं, इस करके वह) सदा दाँत पीसता है, झाग फेंकता है (और अंत को) खप-खप के नष्ट हो जाता है (आत्मिक मौत सहेड़ लेता है)।

नित उपाव करै माइआ धन कारणि अगला धनु भी उडि गइआ ॥ किआ ओहु खटे किआ ओहु खावै जिसु अंदरि सहसा दुखु पइआ ॥

पद्अर्थ: उपाव = उपाय। कारणि = वास्ते। सहसा = शंका, तौख़ला।

अर्थ: (सतिगुरु का वह दुखदाई) सदा माया के लिए उपाय करता है, पर उसका पहले का (कमाया हुआ) भी हाथों से जाता रहता है। जिस मनुष्य के हृदय में ये चिन्ता और जलन हो, उसने कमाना क्या और खाना क्या? (भाव, ना वह कुछ कमा सकता है ना ही कमाए हुए का आनंद ले सकता है)।

निरवैरै नालि जि वैरु रचाए सभु पापु जगतै का तिनि सिरि लइआ ॥ ओसु अगै पिछै ढोई नाही जिसु अंदरि निंदा मुहि अ्मबु पइआ ॥ जे सुइने नो ओहु हथु पाए ता खेहू सेती रलि गइआ ॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। अगै पिछै = परलोक में और इस लोक में। मुहि = मुंह में। अंबु = (भाव) मिठास। खेहू सेती = राख से।

अर्थ: जो मनुष्य निर्वैर के साथ वैर करता है वह सारे संसार के पापों (का भार) अपने सिर पर लेता है, उसे लोक-परलोक में कोई आसरा नहीं देता। जिसके हृदय में तो निंदा हो, पर मुँह में आम पड़ा हो (अर्थात, जो मुँह से मीठा बोले), ऐसा खोटा मनुष्य अगर सोने को हाथ डाले तो वह भी राख में मिल जाता है।

जे गुर की सरणी फिरि ओहु आवै ता पिछले अउगण बखसि लइआ ॥ जन नानक अनदिनु नामु धिआइआ हरि सिमरत किलविख पाप गइआ ॥२॥

अर्थ: फिर भी (अर्थात, ऐसा पापी होते हुए भी) अगर वह सतिगुरु के चरणों में गिर पड़े तो सतिगुरु उसके पिछले अवगुणों को बख्श देता है। हे नानक! जो मनुष्य (सतिगुरु की शरण पड़ कर) हर रोज नाम जपता है, प्रभु को स्मरण करते हुए उसके सारे पाप दूर हो जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ तूहै सचा सचु तू सभ दू उपरि तू दीबाणु ॥ जो तुधु सचु धिआइदे सचु सेवनि सचे तेरा माणु ॥ ओना अंदरि सचु मुख उजले सचु बोलनि सचे तेरा ताणु ॥ से भगत जिनी गुरमुखि सालाहिआ सचु सबदु नीसाणु ॥ सचु जि सचे सेवदे तिन वारी सद कुरबाणु ॥१३॥

पद्अर्थ: दू = से। उपरि = बड़ा। दीबाणु = आसरा। उजले = खिले हुए। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी।13।

अर्थ: हे सच्चे प्रभु! तू ही सबसे बड़ा (जीवों का) आसरा है। जो तेरा स्मरण करते हैं, तेरी सेवा करते हैं, उनको तेरा ही मान है। उनके हृदय में सच है (इस करके उनके) माथे खिले रहते हैं। और, हे सच्चे हरि! वह तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम उचारते हैं, और तेरा उन्हें भरोसा है (ताण है)। जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख रहके हरि की महिमा करते हैं, वही सच्चे भक्त हैं और उनके पास सच्चा शब्द-रूप निशान है। मैं सदके हूँ कुर्बान हूँ उन पर से जो सच्चे प्रभु को तन से-मन से स्मरण करते हैं।13।

सलोक मः ४ ॥ धुरि मारे पूरै सतिगुरू सेई हुणि सतिगुरि मारे ॥ जे मेलण नो बहुतेरा लोचीऐ न देई मिलण करतारे ॥ सतसंगति ढोई ना लहनि विचि संगति गुरि वीचारे ॥ कोई जाइ मिलै हुणि ओना नो तिसु मारे जमु जंदारे ॥

पद्अर्थ: धुरि = धुर से। सतिगुरि = गुरु ने। जंदार = जमदूत की मार का भागी।

अर्थ: जो पहले से पूरे सतिगुरु ने धिक्कारे हैं, वह अब (फिर) सतिगुरु की ओर से मारे गए हैं (भाव, सतिगुरु की ओर से मनमुख हुए पड़े हैं)। अगर उन्हें (सतिगुरु से) मिलाने के लिए बहुत सारी चाहत (कोशिश) भी करें (तो भी) विधाता उन्हें मिलने नहीं देता। उन्हें सत्संग में भी राहत (जगह) नहीं मिलती - गुरु ने भी संगति में यही विचार की है। ऐसे वक्त पर अगर कोई उनका जा के साथी बने, उसे भी जमदूत दण्ड देता है (वह मनुष्य भी मन-मुखता वाले काम ही करेगा, जिस करके जम-मार्ग का भागी बनेगा)।

गुरि बाबै फिटके से फिटे गुरि अंगदि कीते कूड़िआरे ॥ गुरि तीजी पीड़ी वीचारिआ किआ हथि एना वेचारे ॥ गुरु चउथी पीड़ी टिकिआ तिनि निंदक दुसट सभि तारे ॥

पद्अर्थ: फिटके = ताड़ना की। से फिटे = वह तिरस्कारित अहंकारी।

अर्थ: जिस मनुष्यों को बाबे (गुरु नानक देव जी) ने मनमुख करार दिया, उन अहंकारियों को गुरु अंगद (देव जी) ने भी झूठा बताया। तीसरे स्थान पर बैठे गुरु ने, जिसने चौथे स्थान पर बैठे को गुरु स्थापित किया, विचार की कि इन कंगालों के क्या वश? सो उस ने सारे निंदक और दुष्ट तार दिए (भाव, अहंकार और तिरस्कार से बचा लिए)।

कोई पुतु सिखु सेवा करे सतिगुरू की तिसु कारज सभि सवारे ॥ जो इछै सो फलु पाइसी पुतु धनु लखमी खड़ि मेले हरि निसतारे ॥ सभि निधान सतिगुरू विचि जिसु अंदरि हरि उर धारे ॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। खड़ि = खड़े हो के, ले जा के। उर = हृदय।

अर्थ: पुत्र हो या सिख, जो कोई (भी) सतिगुरु की सेवा करता है सतिगुरु उासके सारे काम सवारता है - पुत्र, धन, लक्ष्मी, जिस भी चीज की वह इच्छा करे, वही फल उसे मिलता है, (सतिगुरु) उसको ले जा के (प्रभु से) मिलाता है और प्रभु (उसको) पार उतारता है। (सिरे की बात), जिस सतिगुरु के हृदय में प्रभु टिका हुआ है, उस में सारे खजाने हैं।

सो पाए पूरा सतिगुरू जिसु लिखिआ लिखतु लिलारे ॥ जनु नानकु मागै धूड़ि तिन जो गुरसिख मित पिआरे ॥१॥

पद्अर्थ: लिलारे = मस्तक पर।1।

अर्थ: जिस (मनुष्य) के माथे पर (पिछले किए अच्छे कर्मों के संस्कार रूपी) लेख लिखे हुए हैं, वह पूरे सतिगुरु को मिल जाता है। (इस तरह के) जो मित्र-प्यारे गुरु के सिख हैं, उनके चरणों की धूल दास नानक (भी) मांगता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh