श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 308 मः ४ ॥ जिन कउ आपि देइ वडिआई जगतु भी आपे आणि तिन कउ पैरी पाए ॥ डरीऐ तां जे किछु आप दू कीचै सभु करता आपणी कला वधाए ॥ अर्थ: जिनको प्रभु स्वयं आदर बख्शता है, उनके चरणों में सारे संसार को भी ला के डालता है; (इस बड़ाई, आदर को देख के) तब डरें, अगर हम कुछ अपनी तरफ से करते हों, ये तो कर्तार अपनी कला आप बढ़ा रहा है। देखहु भाई एहु अखाड़ा हरि प्रीतम सचे का जिनि आपणै जोरि सभि आणि निवाए ॥ आपणिआ भगता की रख करे हरि सुआमी निंदका दुसटा के मुह काले कराए ॥ सतिगुर की वडिआई नित चड़ै सवाई हरि कीरति भगति नित आपि कराए ॥ पद्अर्थ: आपणै जोरि = अपने बल से। मुह काले कराए = शर्मिंदगी देता है। चढ़ै सवाई = बढ़ती है। कीरति = शोभा, कीर्ति, बड़ाई। भगति = बंदगी। अर्थ: हे भाई! याद रखो, जिस प्रभु ने अपने बल से सब जीवों को ला के (सतिगुरु के आगे) निवाया है, उस सच्चे प्रीतम का यह संसार (एक) अखाड़ा है, (जिस में) वह स्वामी प्रभु अपने भगतों की रक्षा करता है और निंदकों व दुष्टों के मुँह काले करवाता है। सतिगुरु की महिमा हमेशा बढ़ती है क्योंकि हरि अपनी कीर्ति और भक्ति सदैव स्वयं सतिगुरु से करवाता है। अनदिनु नामु जपहु गुरसिखहु हरि करता सतिगुरु घरी वसाए ॥ सतिगुर की बाणी सति सति करि जाणहु गुरसिखहु हरि करता आपि मुहहु कढाए ॥ अर्थ: हे गुर-सिखो! हर रोज़ (भाव, हर समय) नाम जपो (ता कि) विधाता हरि (ऐसा) सतिगुरु (तुम्हारे) हृदय में बसा दे। हे गुर-सिखो! सतिगुरु की वाणी पूर्णत: सत्य समझो (क्योंकि) विधाता प्रभु स्वयं यह वाणी सतिगुरु के मुँह से कहलवाता है। गुरसिखा के मुह उजले करे हरि पिआरा गुर का जैकारु संसारि सभतु कराए ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि दासन की हरि पैज रखाए ॥२॥ पद्अर्थ: संसारि = संसार में। सभतु = हर जगह। पैज = लज्जा।2। अर्थ: प्यारा हरि गुर-सिखों के मुँह उज्जवल करता है और संसार में हर तरफ सतिगुरु की जीत करवाता है। दास नानक भी प्रभु का सेवक है; प्रभु अपने दासों की लज्जा खुद रखता है।2। पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु आपि है सचु साह हमारे ॥ सचु पूजी नामु द्रिड़ाइ प्रभ वणजारे थारे ॥ सचु सेवहि सचु वणंजि लैहि गुण कथह निरारे ॥ सेवक भाइ से जन मिले गुर सबदि सवारे ॥ तू सचा साहिबु अलखु है गुर सबदि लखारे ॥१४॥ पद्अर्थ: द्रिढ़ाइ = दृढ़ करा, निश्चय करा। सेवक भाइ = सेवक भाव से, दासभावना से।14। अर्थ: हे हमारे सदा स्थिर रहने वाले शाह! तू खुद ही सच्चा मालिक है, हे प्रभु! हम तेरे वणजारे हैं, हमें यह निश्चय करा कि नाम की पूंजी सदा कायम रहने वाली है। वह मनुष्य सतिगुरु के शब्द द्वारा सुधर के सेवक स्वभाव वाले हो के प्रभु को मिलते हैं जो सदा स्थिर नाम स्मरण करते हैं, सच्चे नाम का सौदा खरीदते हैं और निराले प्रभु के गुण उचारते हैं। हे हरि! तू सच्चा मालिक है, तुझे कोई समझ नहीं सकता (पर) सतिगुरु के शब्द द्वारा तेरी सूझ पड़ती है।14। सलोक मः ४ ॥ जिसु अंदरि ताति पराई होवै तिस दा कदे न होवी भला ॥ ओस दै आखिऐ कोई न लगै नित ओजाड़ी पूकारे खला ॥ अर्थ: जिसके हृदय में पराई ईरखा हो, उसका अपना भी कभी भला नहीं होता, उसके वचन पर कोई एतबार नहीं करता, वह सदा (जैसे) उजाड़ में खड़ा चिल्लाता है। जिसु अंदरि चुगली चुगलो वजै कीता करतिआ ओस दा सभु गइआ ॥ नित चुगली करे अणहोदी पराई मुहु कढि न सकै ओस दा काला भइआ ॥ पद्अर्थ: वजै = मशहूर हो जाता है। अणहोदी = झूठी, जिसकी अस्लियत नहीं है। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में चुगली होती है वह चुग़ल (के नाम से) ही मशहूर हो जाता है, उसकी (पिछली) सारी की हुई कमाई व्यर्थ जाती है, वह सदा पराई झूठी चुग़ली करता है, इस मुकालख़ करके वह किसी के माथे भी नहीं लग सकता (उसका मुँह काला हो जाता है और दिखा नहीं सकता)। करम धरती सरीरु कलिजुग विचि जेहा को बीजे तेहा को खाए ॥ गला उपरि तपावसु न होई विसु खाधी ततकाल मरि जाए ॥ पद्अर्थ: तपावसु = न्याय, निबेड़ां। विसु = जहर। अर्थ: इस मानव जनम में शरीर कर्म- (रूपी बीज बीजने के लिए) जमीन है, इस में जिस तरह का बीज मनुष्य बीजता है, उसी तरह का फल खाता है (किए कर्मों का निबेड़ा बातों से नहीं होता) अगर विष खाया जाए तो (अमृत की बातें करने से मनुष्य बच नहीं सकता) तुरंत मर जाता है। भाई वेखहु निआउ सचु करते का जेहा कोई करे तेहा कोई पाए ॥ जन नानक कउ सभ सोझी पाई हरि दर कीआ बाता आखि सुणाए ॥१॥ अर्थ: हे भाई! सच्चे प्रभु का न्याय देखो, जिस तरह के कोई काम करता है, वैसा उसका फल पा लेता है। हे नानक! जिस दास को प्रभु ये समझने की सारी बुद्धि बख्शता है, वह प्रभु के दर की ये बातें कर के सुनाता है।1। मः ४ ॥ होदै परतखि गुरू जो विछुड़े तिन कउ दरि ढोई नाही ॥ कोई जाइ मिलै तिन निंदका मुह फिके थुक थुक मुहि पाही ॥ जो सतिगुरि फिटके से सभ जगति फिटके नित भ्मभल भूसे खाही ॥ पद्अर्थ: होदै = होते हुए। दरि = (प्रभु के) दर पर। ढोई = आसरा। फिके = भ्रष्टे हुए। सतिगुरि = गुरु द्वारा। फिटके = फिटकारे हुए, विछुड़े हुए। भंभलभूसे = उलझाए हुए। अर्थ: सतिगुरु के प्रत्यक्ष होते हुए भी जो निंदक (गुरु से) विछुड़े रहते हैं, उन्हें दरगाह में आसरा नहीं मिलता। यदि कोई उनका संग भी करता है उसका भी मुँह फीका और मुँह पर निरी थूक पड़ती है (भाव, लोग मुँह पर धिक्कारते हैं) (क्योंकि) जो मनुष्य गुरु से विछुड़े हुए हैं, वह संसार में भी तिरस्कारे हुए हैं और सदा भंभलभूसे में डाँवा-डोल रहते हैं। जिन गुरु गोपिआ आपणा से लैदे ढहा फिराही ॥ तिन की भुख कदे न उतरै नित भुखा भुख कूकाही ॥ ओना दा आखिआ को ना सुणै नित हउले हउलि मराही ॥ पद्अर्थ: गोपिआ = निंदा की है। ढहा = ढाहां। भुख = तृष्णा। हउलि = धड़कू में, चिन्ता में, हौल में। हउले = हौल में ही, दिल में बैठे डर की वजह से चिन्ता और धड़कन तेज हो जाने वाली अवस्था। अर्थ: जो मनुष्य प्यारे सतिगुरु की निंदा करते हैं, वह सदा (जैसे) ढाहें मारते फिरते हैं। उनकी तृष्णा कभी नहीं उतरती, और सदा भूख-भूख करते कूकते हैं, कोई उनकी बात का एतबार नहीं करता (इस कारण) वह सदा चिन्ता फिक्र में ही खपते हैं। सतिगुर की वडिआई वेखि न सकनी ओना अगै पिछै थाउ नाही ॥ जो सतिगुरि मारे तिन जाइ मिलहि रहदी खुहदी सभ पति गवाही ॥ ओइ अगै कुसटी गुर के फिटके जि ओसु मिलै तिसु कुसटु उठाही ॥ पद्अर्थ: अगै = आगे, परलोक में। सतिगुरि = गुरु द्वारा। पति = पत, इज्जत। फिटके = तिरस्कारित हुए, धिक्कारे हुए। जि = जो मनुष्य। उठाही = चिपका देते हैं। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की महिमा बर्दाश्त नहीं कर सकते, उनको लोक-परलोक में ठिकाना नहीं मिलता। गुरु से जो विछुड़े हैं, उनसे मनुष्य जा मिलते हैं, वे भी अपनी छोटी-मोटी इज्जत गवा लेते हैं (क्योंकि) गुरु से टूटे हुए वे पहले ही कोढ़ी हैं, जो कोई ऐसे मनुष्य का संग करता है उसे भी कोढ़ चिपका देते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |