श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अर्थ: अगर कोई मनुष्य दिन रात खाने के दुख में (पेट पूर्ति के लिए) भटकता फिरे, तो उस के चित्त में गुरु पैग़ंबर के द्वारा रब ना याद हो तो वह दोज़क में पड़ने से कैसे बच सकता है?।2।

पउड़ी ॥ तिसै सरेवहु प्राणीहो जिस दै नाउ पलै ॥ ऐथै रहहु सुहेलिआ अगै नालि चलै ॥ घरु बंधहु सच धरम का गडि थमु अहलै ॥ ओट लैहु नाराइणै दीन दुनीआ झलै ॥ नानक पकड़े चरण हरि तिसु दरगह मलै ॥८॥

पद्अर्थ: सरेवहु = सेवा करो। दै = (श्लोक नं 2 में देखें शब्द ‘संदड़ै’)। सुहेलिआ = सुखी। गडि = गाड़ के। अहलै = ना हिलने वाला। बंधहु = बनाओ। झलै = झेलता है, आसरा देता है। तिसु = उस प्रभु की।8।

अर्थ: उस (गुरु) की, हे लोगो! सेवा करो जिसके पल्ले प्रभु का नाम है (भाव, जिससे नाम मिल सकता है)। (इस तरह) यहाँ सुखी रहोगे और परलोक में (ये नाम) तुम्हारे साथ जाएगा। (ये नाम रूपी) पक्का स्तम्भ (खम्भा) गाड़ के सदा कायम रहने वाले धर्म का मंदिर (सत्संग) बनाओ, अकाल-पुरख की टेक रखो जो दीन और दुनिया का आसरा देने वाला है।

हे नानक! जिस मनुष्य ने प्रभु के पैर पकड़े हैं वह प्रभु की दरगाह में बना रहता है।8।

सलोक मः ५ ॥ जाचकु मंगै दानु देहि पिआरिआ ॥ देवणहारु दातारु मै नित चितारिआ ॥ निखुटि न जाई मूलि अतुल भंडारिआ ॥ नानक सबदु अपारु तिनि सभु किछु सारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: जाचकु = भिखारी। दानु = (‘अपार शब्द’ का) ख़ैर। पिआरिआ = हे प्यारे! चितारिआ = याद रखता हूँ। अतुल = जो तोला ना जा सके, बेअंत। सारिआ = सवार दिया है। सभु किछु = हरेक कार्य।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) मैं भिखारी (तेरे ‘अपार शब्द’ की) ख़ैर मांगता हूँ, मुझे ख़ैर दे। तू दातें देने वाला है, तू दातें देने के समर्थ है, मैं तुझे सदा याद करता हूँ। तेरा खजाना बेअंत है (अगर उसमें से मुझे भी ख़ैर डाल दे तो) खत्म नहीं होता।

हे नानक! (प्रभु की महिमा की) वाणी अपार है, इस वाणी ने मेरा हरेक कार्य सँवार दिया है।1।

मः ५ ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुख ऊजल सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥२॥

पद्अर्थ: सिखहु = सीख लो, याद रखने की आदत डाल लो। टेक = आसरा। जनम मरन = सारी उम्र। ऊजल = रौशन, खिला हुआ।2।

अर्थ: हे प्यारे सज्जनों! (प्रभु की महिमा वाली) गुरबाणी याद रखने की आदत डालो, ये सारी उम्र का आसरा (बनती) है। हे नानक! (इस वाणी के द्वारा) एक प्रभु को स्मरण करने से सदा सुखी रहते हैं और माथा खिला रहता है।2।

पउड़ी ॥ ओथै अम्रितु वंडीऐ सुखीआ हरि करणे ॥ जम कै पंथि न पाईअहि फिरि नाही मरणे ॥ जिस नो आइआ प्रेम रसु तिसै ही जरणे ॥ बाणी उचरहि साध जन अमिउ चलहि झरणे ॥ पेखि दरसनु नानकु जीविआ मन अंदरि धरणे ॥९॥

पद्अर्थ: ओथै = उस (‘सच धर्म के घर’ में) उस सत्संग में।

नोट: इस ‘स्थान’ का जिक्र पिछली पौड़ी की तीसरी तुक में आ चुका है। सर्वनाम ‘ओथै’ साफ़ बताता है कि जिस स्थान की तरफ यहाँ इशारा है, उसका जिक्र जिछली पौड़ी में चाहिए।

पद्अर्थ: जम कै पंथि = जम के राह पे। जरणे = जरने की ताकत, जिगरा। अमिउ = अमृत। झरणे = फुव्वारे। पेखि = देख के। धरणे = धारण किया है। सुखीआ = सुखी करने वाला।9।

अर्थ: सब जीवों को सुखी करने वाला हरि-नाम अमृत उस सत्संग में बाँटते हैं। (जो मनुष्य वह अमृत प्राप्त करते हैं वह) जम के राह पर नहीं पाए जाते, उन्हें मुड़ मौत (का डर सताता) नहीं। जिस मनुष्य को हरि नाम के प्यार का स्वाद आता है, वह इस स्वाद को अपने अंदर टिकाता है। (सत्संग में) गुरमुख महिमा की वाणी उच्चारते हैं वहाँ अमृत के, जैसे, फुव्वारे चल पड़ते हैं।

नानक (भी उस सत्संग का) दर्शन करके जी रहा है और मन में हरि-नाम को धारण कर रहा है।9।

सलोक मः ५ ॥ सतिगुरि पूरै सेविऐ दूखा का होइ नासु ॥ नानक नामि अराधिऐ कारजु आवै रासि ॥१॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = सत्यगुरु को। सतिगुरि पूरै सेविऐ = अगर पूरे गुरु की सेवा की जाए। नामि = प्रभु नाम को। नामि आराधिऐ = अगर नाम स्मरण किया जाए। कारजु = जिंदगी का उद्देश्य। रासि आवै = सफल हो जाता है।1।

नोट: ‘सतिगुरि’ है अधिकरण कारक, एकवचन।

नोट: ‘सेविअै’ है पूरब पूरन कारदंतक।

नोट: ‘नामि’ है अधिकरण कारक, एकवचन; और ‘आराधिअै’ है पूरब पूरन कारदंतक।

अर्थ: हे नानक! अगर पूरे गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलें तो दुखों का नाश हो जाता है और अगर तेरा नाम स्मरण करें तो जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है।1।

मः ५ ॥ जिसु सिमरत संकट छुटहि अनद मंगल बिस्राम ॥ नानक जपीऐ सदा हरि निमख न बिसरउ नामु ॥२॥

पद्अर्थ: संकट = दुख। मंगल = खशियां। बिस्राम = ठिकाना। निमख = आँख झपकने जितने समय के लिए। न बिसरउ = विसर ना जाए।2।

अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा को स्मरण करने से सारे दुख दूर हो जाते हैं और (हृदय में) आनंद व खुशियों का निवास होता है उसको सदा स्मरण करें, कभी निमख मात्र भी वह हरि-नाम हमें ना भूले।2।

पउड़ी ॥ तिन की सोभा किआ गणी जिनी हरि हरि लधा ॥ साधा सरणी जो पवै सो छुटै बधा ॥ गुण गावै अबिनासीऐ जोनि गरभि न दधा ॥ गुरु भेटिआ पारब्रहमु हरि पड़ि बुझि समधा ॥ नानक पाइआ सो धणी हरि अगम अगधा ॥१०॥

पद्अर्थ: किआ गणी = क्या बयान करूँ? बयान नहीं हो सकती। गरभि = गर्भ में। दधा = जलता। भेटिआ = (जिसे) मिला। समाधा = समाधि वाला, ठहराव वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगधा = अगाध, अथाह।10।

अर्थ: जिस (गुरमुखों) ने ईश्वर को पा लिया है उनका बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता, जो मनुष्य उन गुरमुखों की शरण आता है वह माया के बंधनों में बंधा हुआ मुक्त हो जाता है (भाव, उसके माया के बंधन टूट जाते हैं), वह अविनाशी प्रभु के गुण गाता है और जूनियों में पड़-पड़ के नहीं सड़ता, उसे गुरु मिल जाता है, वह प्रभु की महिमा उचार के और समझ के शांति प्राप्त करता है। हे नानक! उस मनुष्य ने अथाह और अगम्य (पहुँच से परे) मालिक हरि को पा लिया है।10।

सलोक मः ५ ॥ कामु न करही आपणा फिरहि अवता लोइ ॥ नानक नाइ विसारिऐ सुखु किनेहा होइ ॥१॥

पद्अर्थ: न करही = तू नहीं करता। अवता = अवैड़ा, आवारा। लोइ = लोक में, जगत में। नाइ = प्रभु-नाम। नाइ विसारिऐ = अगर नाम विसार दिया जाए। किनेहा होइ = कोई नहीं हो सकता।1।

नोट: ‘नाइ’ है अधिकरण कारक, एकवचन।

नोट: ‘विसारिअै’ है पूरब पूरन कारदंतक।

अर्थ: (हे जीव!) तू अपना (असल) काम नहीं करता और जगत में आवारा फिर रहा है। हे नानक! अगर प्रभु का नाम बिसार दिया जाए तो कोई भी सुख नहीं हो सकता।1।

मः ५ ॥ बिखै कउड़तणि सगल माहि जगति रही लपटाइ ॥ नानक जनि वीचारिआ मीठा हरि का नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: बिखै = बिख की, विष की, माया रूप जहर की। सगल = सारे जीव। जगति = जगत में। रही लपटाइ = चिपक रही है। जनि = जन के, सेवक के।2।

अर्थ: (माया) जहर की कड़वाहट सारे जीवों में है, जगत में सबको चिपकी हुई है। हे नानक! (सिर्फ प्रभु के) सेवक ने ये विचार की है कि परमात्मा का नाम ही मीठा है।2।

पउड़ी ॥ इह नीसाणी साध की जिसु भेटत तरीऐ ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई फिरि बहुड़ि न मरीऐ ॥ भव सागरु संसारु बिखु सो पारि उतरीऐ ॥ हरि गुण गु्मफहु मनि माल हरि सभ मलु परहरीऐ ॥ नानक प्रीतम मिलि रहे पारब्रहम नरहरीऐ ॥११॥

पद्अर्थ: इह निसाणी = ये निशानी। जिसु भेटत = जिस (साधु) को मिलने से। कंकरु = कंकड़, दास, सेवक। बहुड़ि = पुनः। बिखु = जहर। गुंफहु = गूंदो। मनि = मन में। परहरीऐ = दूर हो जाती है। नरहरीऐ = नरहरि, कर्तार।11।

अर्थ: साधु की ये निशानी है कि उसको मिल के (संसार) समुंदर से तैर जाते हैं, जम का सेवक (भाव, जमदूत) नजदीक नहीं फटकता और बार-बार नहीं मरना पड़ता, जो जहर-रूपी संसार समुंदर है इससे पार लांघ जाते हैं।

हे भाई! (साधु गुरमुख को मिल के) मन में परमात्मा के गुणों की माला गूँदो, मन की सारी मैल दूर हो जाती है। हे नानक! (जिन्होंने ये माला गूँदी है) वे पारब्रहम परमात्मा को मिले रहते हैं।11।

सलोक मः ५ ॥ नानक आए से परवाणु है जिन हरि वुठा चिति ॥ गाल्ही अल पलालीआ कमि न आवहि मित ॥१॥

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों के चित्त में परमात्मा आ बसा है उनका आना सफल है। हे मित्र! फोकी बातें किसी काम नहीं आतीं (नाम से टूट के फोकी बातों का कोई लाभ नहीं होता)।1।

मः ५ ॥ पारब्रहमु प्रभु द्रिसटी आइआ पूरन अगम बिसमाद ॥ नानक राम नामु धनु कीता पूरे गुर परसादि ॥२॥

पद्अर्थ: द्रिसटी आइआ = दिखाई पड़ा है। पूरन = हर जगह मौजूद। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। बिसमाद = आश्चर्य। परसादि = कृपा से।2।

अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य ने) पूरे गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम को अपना धन बनाया है, उसे अगम्य (पहुँच से परे) और आश्चर्य रूप प्रभु हर जगह मौजूद दिखाई दे गया है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh