श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ दामनी चमतकार तिउ वरतारा जग खे ॥ वथु सुहावी साइ नानक नाउ जपंदो तिसु धणी ॥२॥

पद्अर्थ: दामनी = बिजली। खे = दा। वथु = वस्तु, चीज। धणी = मालिक। तिसु धणी नाउ = उस मालिक का नाम। चमतकार = चमत्कार, चमक, करिश्मा। साइ = यही।2।

अर्थ: जगत का वरतारा उसी तरह है (जैसे) बिजली की चमक (थोडे ही समय के लिए) होती है। (इसलिए) हे नानक! उस मालिक का नाम जपना - (असल में) यही चीज सुंदर (और सदा टिके रहने वाली) है।2।

पउड़ी ॥ सिम्रिति सासत्र सोधि सभि किनै कीम न जाणी ॥ जो जनु भेटै साधसंगि सो हरि रंगु माणी ॥ सचु नामु करता पुरखु एह रतना खाणी ॥ मसतकि होवै लिखिआ हरि सिमरि पराणी ॥ तोसा दिचै सचु नामु नानक मिहमाणी ॥४॥

पद्अर्थ: सोधि = सुधार के, अच्छी तरह देखे हैं। कीम = कीमत, मूल्य। रंगु = आनंद। खाणी = खान, भंडार। मसतकि = माथे पर। सिमरि = स्मरण करे, स्मरण करता है। पराणी = जीव। तोसा = राह का खर्च। दिचै = दे, दिया जाए। मिहमाणी = खातिरदारी।4।

अर्थ: स्मृतियां-शास्त्र सब अच्छी तरह देखे हैं, किसी ने ईश्वर की कीमत नहीं पाई (कोई नहीं बता सकता कि प्रभु किस मोल मिल सकता है)। (सिर्फ) वह मनुष्य प्रभु (के मिलाप) का आनंद लेता है जो सत्संग में जा मिलता है। प्रभु का सच्चा नाम, कर्तार अकाल-पुरख - यही रत्नों की खान है (‘नाम’ स्मरण में ही सारे गुण हैं), पर वही मनुष्य नाम स्मरण करता है, जिसके माथे के भाग्य हों। (हे प्रभु!) नानक की मेहमान-नवाजी यही है कि अपना सच्चा नाम (राह के लिए) खर्च के लिए दे।4।

सलोक मः ५ ॥ अंतरि चिंता नैणी सुखी मूलि न उतरै भुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथो दुखु ॥१॥

पद्अर्थ: नैणी = (भाव, देखने को), जाहिर तौर पर। मूलि न = बिल्कुल ही नहीं।1।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में चिन्ता है उसकी माया की भूख बिल्कुल नहीं मिटती, देखने में भले ही वह सुखी लगता हो। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना किसी का भी दुख दूर नहीं होता।1।

मः ५ ॥ मुठड़े सेई साथ जिनी सचु न लदिआ ॥ नानक से साबासि जिनी गुर मिलि इकु पछाणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: साथ = काफ़ले, व्यापारियों के टोले। साबासि = शाबाश, धन्य। गुर मिलि = गुरु को मिल के।2।

अर्थ: उन (जीव) व्यापारियों के टोले लूटे गए (समझो) जिन्होंने प्रभु का ‘नाम’ रूपी सौदा नहीं लादा। पर, हे नानक! शाबाश है उनको जिन्होंने सतिगुरु को मिल के एक परमात्मा को पहिचान लिया है।2।

पउड़ी ॥ जिथै बैसनि साध जन सो थानु सुहंदा ॥ ओइ सेवनि सम्रिथु आपणा बिनसै सभु मंदा ॥ पतित उधारण पारब्रहम संत बेदु कहंदा ॥ भगति वछलु तेरा बिरदु है जुगि जुगि वरतंदा ॥ नानकु जाचै एकु नामु मनि तनि भावंदा ॥५॥

पद्अर्थ: बैसनि = बैठते हैं। ओइ = वे गुरमुख लोग। मंदा = बुरा। पारब्रहम = हे पारब्रहम! भगति वछलु = वह जिसको भक्ति प्यारी लगती है। बिरदु = मूल स्वभाव। जुगि जुगि = हरेक युग में। जाचै = मांगता है। मनि = मन में। भावंदा = भाता है।5।

अर्थ: जिस जगह पर गुरमुख मनुष्य बैठते हैं वह स्थान सुंदर हो जाता है। (क्योंकि) वह गुरमुख लोग (वहां बैठ के) अपने समर्थ प्रभु को स्मरण करते हैं (जिससे उनके मन में से) सारी बुराई का नाश हो जाता है।

हे पारब्रहम! तू (विकारों में) गिरे हुओं को बचाने वाला है, ये बात संत-जन भी कहते हैं और वेद भी कहते हैं, भक्तों को प्यार करना - यह तेरा मूल स्वभाव है। तेरा ये स्वभाव सदा कायम रहता है। नानक तेरा नाम ही मांगता है (नानक को तेरा नाम ही) मन तन में प्यारा लगता है।5।

सलोक मः ५ ॥ चिड़ी चुहकी पहु फुटी वगनि बहुतु तरंग ॥ अचरज रूप संतन रचे नानक नामहि रंग ॥१॥

पद्अर्थ: चुहकी = बोली। पहु फुटी = भोर हुई, अमृतवेला हुआ। तरंग = लहरें, नाम जपने की तरंग। नामहि = नाम में।1।

अर्थ: जब भोर होती है और पक्षी बोलते हैं, उस वक्त (भक्त के हृदय में स्मरण की) तरंगें उठती हैं। हे नानक! जिस गुरमुखों का प्रभु के नाम में प्यार होता है उन्होंने (इस पोह फूटने के समय) आश्चर्य रूप रचे होते हैं (भाव, वह लोग इस समय प्रभु के आश्चर्यजनक चमत्कार अपनी आँखों के सामने ले आते हैं)।1।

मः ५ ॥ घर मंदर खुसीआ तही जह तू आवहि चिति ॥ दुनीआ कीआ वडिआईआ नानक सभि कुमित ॥२॥

पद्अर्थ: तही घर मंदर = उन घर मन्दिरों में। जह = जहाँ। चिति = चिक्त में। कुमित = खोटे मित्र।2।

अर्थ: उन घर-मन्दिरों में ही (असल) खुशियां हैं जहाँ (हे प्रभु!) तू याद आता है। हे नानक! (यदि प्रभु बिसरे तो) दुनिया की सारी महानताएं खोटे मित्र हैं।2।

पउड़ी ॥ हरि धनु सची रासि है किनै विरलै जाता ॥ तिसै परापति भाइरहु जिसु देइ बिधाता ॥ मन तन भीतरि मउलिआ हरि रंगि जनु राता ॥ साधसंगि गुण गाइआ सभि दोखह खाता ॥ नानक सोई जीविआ जिनि इकु पछाता ॥६॥

पद्अर्थ: सची = सदा कायम रहने वाली। रासि = राशि, पूंजी। तिसै = उसे ही। भाइरहु = हे भाईयो! बिधाता = विधाता प्रभु! भीतरि = अंदर। मउलिआ = खिला है। रंगि = प्यार में। दोखह = ऐबों को। जिनि = जिसने।6।

अर्थ: हे भाईयो! परमात्मा का नाम-रूप धन सदा कायम रहने वाली पूंजी है। (पर) किसी दुर्लभ ने ही ये बात समझी है, (और यह पूंजी) उसी को मिलती है जिसे ईश्वर (स्वयं) देता है। (जिस भाग्यशालियों को ये ‘नाम’ राशि मिलती है) वह मनुष्य प्रभु के रंग में रंगा जाता है, वह अपने मन तन में खिल जाता है, (ज्यों-ज्यों) सत्संग में वह प्रभु के गुण गाता है (त्यों-त्यों वह) सारे विकारों को समाप्त करता जाता है।

हे नानक! वही मनुष्य (दरअसल) जीता है जिसने एक प्रभु को पहिचाना है।6।

सलोक मः ५ ॥ खखड़ीआ सुहावीआ लगड़ीआ अक कंठि ॥ बिरह विछोड़ा धणी सिउ नानक सहसै गंठि ॥१॥

पद्अर्थ: अक कंठि = धतूरे के गले से। बिरह = वियोग। धणी सिउ = मालिक से। सहसै = हजारों ही। गंठि = गाँठें, तूंबा।1।

अर्थ: (धतूरे की) ककड़ियां (तब तक) सुंदर लगती हैं (जब तक) धतूरे के गले (भाव, टहनियों से) लगी होती हैं, पर, हे नानक! मालिक (धतूरे) से जब विछोड़ा हो जाता है तो उनके हजारों तूंबे हो जाते हैं।1।

नोट: जैसे धतूरे की डाल से टूट के धतूरे की ककड़ियां तूंबे-तूंबे हो के उड़ने लग पड़ती हैं, वैसे ही प्रभु चरणों से टूटे हुए मन को सैकड़ों चिंता-फिक्र भटकाते फिरते हैं।

मः ५ ॥ विसारेदे मरि गए मरि भि न सकहि मूलि ॥ वेमुख होए राम ते जिउ तसकर उपरि सूलि ॥२॥

पद्अर्थ: विसारेदे = बिसारने वाले। मूलि = बिल्कुल ही, अच्छी तरह, पूरी तरह से। तसकर = चोर। सूलि = सूली।2।

अर्थ: परमात्मा को बिसारने वाले मरे हुए (जानो), पर वे अच्छी तरह मर भी नहीं सकते। जिन्होंने प्रभु की ओर से मुंह मोड़ा हुआ है वे इस तरह हैं जैसे सूली पर चढ़े हुए चोर।2।

पउड़ी ॥ सुख निधानु प्रभु एकु है अबिनासी सुणिआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ घटि घटि हरि भणिआ ॥ ऊच नीच सभ इक समानि कीट हसती बणिआ ॥ मीत सखा सुत बंधिपो सभि तिस दे जणिआ ॥ तुसि नानकु देवै जिसु नामु तिनि हरि रंगु मणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: सुख निधानु = सुखों का खजाना। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, भाव, धरती के ऊपर। घटि घटि = हरेक घट में। भणिआ = कहा जाता है। कीट = कीड़े। जणिआ = पैदा किए हुए। तुसि = प्रसन्न हो के। नानकु देवै = (गुरु) नानक देता है।7।

(नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में फर्क याद रखने के लायक है। अगर यहाँ शब्द ‘नानक’ होता तो इस पंक्ति का अर्थ इस तरह होता: “हे नानक! (प्रभु) प्रसन्न हो के जिसे नाम देता है उसने हरि नाम का रंग पाया है”)।

अर्थ: एक परमात्मा ही सुखों का खजाना है जो (परमात्मा) अविनाशी सुनते हैं। पानी में, धरती के अंदर, धरती के ऊपर (वह प्रभु) मौजूद है, हरेक शरीर में वह प्रभु (बसता) कहा जाता है, ऊँच-नीच सारे जीवों में एक सा ही वरत रहा है। कीड़े (से ले के) हाथी (तक, सारे उस प्रभु से ही) बने हैं। (सारे) मित्र, साथी, पुत्र, संबंधी सारे उस प्रभु के ही पैदा किए हुए हैं। जिस जीव को (गुरु) नानक प्रसन्न हो के ‘नाम’ देता है उसने ही हरि-नाम का रंग पाया है।7।

सलोक मः ५ ॥ जिना सासि गिरासि न विसरै हरि नामां मनि मंतु ॥ धंनु सि सेई नानका पूरनु सोई संतु ॥१॥

पद्अर्थ: सासि = श्वासों से। गिरासि = ग्रास से, खाते हुए। मनि = मन में। मंतु = मंत्र। धंनु = मुबारिक। सोई = वही आदमी।1।

अर्थ: जिस लोगों को साँस लेते और खाते हुए कभी भी ईश्वर नहीं भूलता, जिनके मन में परमात्मा का नाम-रूप मंत्र (बस रहा) है; हे नानक! वही लोग मुबारक हैं, वही मनुष्य पूरन संत हैं।2।

मः ५ ॥ अठे पहर भउदा फिरै खावण संदड़ै सूलि ॥ दोजकि पउदा किउ रहै जा चिति न होइ रसूलि ॥२॥

पद्अर्थ: अठे पहर = चार पहर दिन के और चार पहर रात, दिन रात। संदड़े = के। खावण संदड़ै = खाने के। खावण संदड़ै सूलि = खाने के दुख में। दोजकि = नर्क में। रसूलि = पैग़ंबर द्वारा, गुरु के द्वारा।2।

नोट: ‘सूल’ अधिकरण कारक, एक वचन है शब्द ‘सूलु’ से, इसलिए भसंदड़े’ की जगह ‘संदड़ै’ प्रयोग किया गया है।

नोट: किसी मुसलमान के साथ बात हो रही है इसलिए ‘गुरु’ की जगह रसूल बरता गया है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh