श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 318 गउड़ी की वार महला ५ भाव पौड़ी-वार: परमात्मा हर जगह मौजूद है, हरेक जीव में समाया हुआ है, पर वही मनुष्य भला है जो सत्संग में रहके प्रभु की शरण आता है और प्रभु की रजा में चलता है। सत्संग में प्रभु का नाम-अमृत मिलता है, परमात्मा खुद सहायता करता है और कामादिक विकारों से मनुष्य बच जाता है। परमात्मा का नाम, जैसे, अमृत-रूपी खजाना है, ये अमृत सत्संग में ही मिलता है, इसके पीने से माया की तृष्णा मिट जाती है, कोई भूख नहीं रह जाती। परमात्मा का नाम सारे गुणों की खान है, मानव जीवन के सफर में, जैसे, राह का खच। है, पर ये नाम उस भाग्यशाली को मिलता है जो सत्संग में पहुँचता है। मनुष्य की तो क्या बात है, वह स्थल भी सुन्दर हो जाता है, जहाँ सतसंगी मिल के प्रभु की महिमा करते हैं। भक्ति को प्यार करना प्रभु का मूल-स्वाभाव है। जो नाम स्मरण करता है उसके मन में से बुराई मिट जाती है। परमात्मा का नाम एक ऐसी राशि-पूंजी है जो सदा कायम रहने वाली है, जिस मनुष्य-वणजारे को सत्संग में रहके यह पूंजी मिलती है उसका मन-तन खिला रहता है, उसके विकार नाश हो जाते हैुं, वही असल में जीता है। जो प्रभु सब जीवों को पैदा करने वाला और सब में मौजूद है वही सारे दुखों का खजाना है, पर इस ‘नाम’ का आनंद वही मनुष्य ले सकता है जिसे सतिगुरु प्रसन्न हो के यह दाति देता है। प्रभु का नाम सतिगुरु से मिल सकता है। जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चल के नित्य सत्संग करता है और नाम स्मरण करता है, वह प्रभु की हजूरी में टिका रहता है। सब जीवों को सुखी करने वाला हरि नाम-अमृत सत्संग में बाँटा जाता है। ज्यों-ज्यों गुरमुख सत्संग में महिमा की वाणी उचारते हैं, वहाँ मानो अमृत के फव्वारे चल पड़ते हैं। सत्संग में ही असली जीवन प्राप्त होता है, सत्संगी को मौत का डर नहीं रहता। नाम जपने वाले गुरमुखों की संगत में रह कर मनुष्य परमात्मा के गुणों की माला मन में परो लेता है, जिस करके उसके मन की मैल दूर हो जाती है, वह विकारों से बच जाता है और उसे जमकाल का डर नहीं सताता। जो मनुष्य माया के गरूर में रहके बुरे कर्म करते हैं, वे यहाँ दुखी रहते हैं, प्रभु का नाम बिसारने के कारण उनकी सारी उम्र बुरे हाल ही गुजरती है और इसके बाद भी जनम-मरन की भटकन में पड़ जाते हैं। दुनिया वाले स्वाद आखिर कड़वे लगने लग पड़ते हैं, सुखदाई और मीठा सिर्फ हरि-नाम ही है, पर ये मिलता उस भाग्यशाली को ही है जिस पर प्रभु स्वयं कृपा करता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमेश्वर का नाम स्मरण करता है, उसे माया के सारे स्वाद फीके प्रतीत होते हैं और उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं। वही मनुष्य जगत से नफा कमा के जाते हैं जिन्होंने परमातमा का नाम स्मरण किया है। प्रभु स्वयं उनको माया के मोह से बचा लेता है और वे एक ईश्वर की ही आस रखते हैं। परमात्मा का आसरा ले के महिमा करने वाले बंदे विकारों से बचे रहते हैं और प्रभु दर पे स्वीकार हैं, ऐसे गुरमुखों के चरणों की धूल लाखों-करोड़ों प्रयाग आदि तीर्थों से ज्यादा पवित्र है। कर्तार अकाल-पुरख का नाम विकारों में गिरे हुओं को भी पवित्र करने वाला है। जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, वह परमात्मा को अपने अंग-संग देख के सब के चरणों की धूल हो के रहता है, किसी का दिल नहीं दुखाता और आखिर इज्जत से प्रभु की हजूरी में पहुँचता है। सारे खजानों के मालिक परमात्मा के नाम को जो मनुष्य अपनी जिंदगी का आसरा बना लेते हैं, उनके मन की सारी मैल धुल जाती है, सारे कष्ट नाश हो जाते हैं, पर ये नाम की दाति प्रभु की मेहर से सतिगुरु के द्वारा ही मिलती है। दुनिया का मोह, जैसे, माया का किला है जिसमें जीव कैद हो जाते हैं। जो मनुष्य ‘नाम’ स्मरण करता है वह, मानो, अठारह तीर्थों का स्नानी हो के इस किले को जीत लेता है। प्रभु उसको विकारों से बचा लेता है। जो प्रभु सब कुछ करने के समर्थ है, सब जीवों का आसरा है और सब को पालता है, उस बख्शनहार को स्मरण करके जीव विकारों से बच के संसार समुंदर से अपनी जिंदगी की बेड़ी सही सलामत पार कर लेते हैं। प्रभु की महिमा करने वाले बंदे के लिए ‘नाम’ ही सुंदर पोशाक व स्वादिष्ट भोजन है, ‘नाम’ ही हाथी घोड़े हैं, ‘नाम’ ही राज-भाग है। उसके अंदर एक नाम की ही लगन रहती है, वह सदा प्रभु के दर पर ही टिका रहता है। समूचा भाव: (१ से ११ तक) - यह ठीक है कि परमात्मा हरेक जीव में मौजूद है, पर फिर भी सिर्फ वही मनुष्य भला मानव बन के रह सकता है जो साधु-संगत का आसरा लेता है। सत्संग में ही गुरु के बताए हुए राह पर चल के नाम स्मरण का स्वभाव बन सकता है, ‘नाम’ ही जीवन-यात्रा की राह-खरची है, इस ‘नाम’ की इनायत से ही माया की तृष्णा, बुराई, कामादिक विकार मन में से दूर होते हैं, मौत का डर नहीं रहता, तन मन सदा खिला रहता है और मनुष्य प्रभु की हजूरी में टिका रहता है। (१२ से १५ तक) - अगर प्रभु का नाम बिसर जाये तो माया जीव पर दबाव डाल लेती है, सारी उम्र विकारों में बुरे हाल गुजरती है, जब मनुष्य नाम-रस हासिल करता है तब ही समझ पड़ती है कि माया के स्वाद फीके व कड़वे दुखदाई हैं। (१६ से २१ तक) - नाम-जपनबंदों के पैरों की ख़ाक लाखों करोड़ों तीर्थों से ज्यादा पवित्र है, क्योंकि नाम-जपने वाले लोग प्रभु को अंग-संग देख के किसी का दिल नहीं दुखाते, सबसे प्यार व विनम्रता का बरताव करते हैं, उनका मन शुद्ध होता है, नाम स्मरण वाले, जैसे, अठारह तीर्थों के स्नानी हैं, माया का किला बंदगी करने वाले ही जीतते हैं, संसार-समुंदर से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाते हैं, क्योंकि दुनिया के सारे पदार्थों से ज्यादा उन्हें प्रभु का नाम आकर्षित करता है। मुख्य भाव: यद्यपि परमात्मा सबमें मौजूद है, पर पवित्र जीवन उसी मनुष्य का ही हो सकता है जो सत्संग में रहके गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है और प्रभु का नाम स्मरण करता है, वरना माया का दबाव पड़ने के कारण मनुष्य विकारों में फंस जाता है और लोक-परलोक दोनों गवा लेता है। ‘वार’ की बनावट: सतिगुरु अरजन साहिब जी की इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं 42 श्लोक हैं, हरेक पौड़ी के साथ दो-दो। हरेक पउड़ी में पाँच-पाँच तुके हैं। पउड़ी नंबर १,९,१६ और २० को छोड़ के बाकी सारी पउड़ियों के साथ दो-तुके शलोक हैं, बोली भी सब शलोकों की एक जैसी ही है। शलोकों का सही गिनती हरेक पउड़ी के साथ एक जैसी दो-तुकी बनावट, एक समान मजमून, सारे ही शलोक और पउड़ियां एक ही गुरु-व्यक्ति की इस गहरी सांझ से ये नतीजा निकाला जा सकता है कि ये ‘वार’ और इसके साथ लगे हुए ‘शलोक’ एक ही समय में उचारे हुए हैं। बोली और बनावट के ख्याल से यही गुण ‘गुजरी की वार महला ५’ में मिलते हैं। इस ‘वार’ की पउड़ी नंबर 12 को ‘गुजरी की वार’ की पउड़ी नंबर 20 के सामने रख के पढ़ें, तो बहुत सारे शब्दों में समानता है। निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते॥ धोहु न चली खसम नालि मोहि विगुते॥ दोनों ‘वारों’ के बारे में इस उपरोक्त विचार से सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरु अरजन साहिब ने ये दोनों ही ‘वारें’ आगे-पीछे नजदीक के समय में ही लिखीं थीं। गउड़ी की वार महला ५ राइ कमालदी मोजदी की वार की धुनि उपरि गावणी अर्थ: ये ‘वार’ राय कमालदी मोजदी की ‘वार’ की सुर पर गानी है। बार में एक चौधरी कमालुद्दीन रहता था, उसने अपने भाई सारंग को जहर दे के मार दिया। सारंग का एक पुत्र था जो अभी छोटा ही था, जिसका नाम मुआज्जुद्दीन था। सारंग की पत्नी अपने इस पुत्र को ले कर मायके चली गई, जब ये बड़ा हुआ तो नानकी फौज ले के कमालुद्दीन पर चढ़ाई कर दी। कमालुद्दीन मारा गया। ये सारी वारता ढाढियों ने ‘वार’ में गाई। इस ‘वार’ की चाल का नमूना इस तरह है; “राणा राय कमाल दीं रण भारा बाहीं॥ मौजुदीं तलवंडीओं चढ़िआ साबाही॥ ” ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ५ ॥ हरि हरि नामु जो जनु जपै सो आइआ परवाणु ॥ तिसु जन कै बलिहारणै जिनि भजिआ प्रभु निरबाणु ॥ जनम मरन दुखु कटिआ हरि भेटिआ पुरखु सुजाणु ॥ संत संगि सागरु तरे जन नानक सचा ताणु ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (जन) ने। निरबाणु = बासना रहित। पुरखु = व्यापक प्रभु। सुजाणु = अच्छी तरह (हरेक के दिल की) जानने वाला। ताणु = आसरा, बल। जनम मरन दुखु = जनम से मरने तक सारी उम्र का दुख-कष्ट।1। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है उसका (जगत में) आना सफल (समझो)। जिस मनुष्य ने वासना-रहित प्रभु को स्मरण किया है, मैं उससे सदके जाता हूँ, उसे सुजान अकाल-पुरख मिल गया है, और उसका सारी उम्र का दुख-कष्ट दूर हो गया है। हे दास नानक! उसे एक सच्चे प्रभु का ही आसरा है, उसने सत्संग में रहके संसार समुंदर तैर लिया है।1। मः ५ ॥ भलके उठि पराहुणा मेरै घरि आवउ ॥ पाउ पखाला तिस के मनि तनि नित भावउ ॥ नामु सुणे नामु संग्रहै नामे लिव लावउ ॥ ग्रिहु धनु सभु पवित्रु होइ हरि के गुण गावउ ॥ हरि नाम वापारी नानका वडभागी पावउ ॥२॥ पद्अर्थ: पराहुणा = संत पराहुणा, अतिथि। मेरै घरि = मेरे घर में। आवउ = आए। पखाला = मैं धोऊँ। तिस के = उस संत अतिथि के। मनि = मन में। भावउ = भाए, अच्छा लगे। संग्रहै = इकट्ठा करे। नामे = नाम में ही। लावउ = लगाए। गावउ = मैं गाऊँ। पावउ = मैं पाऊँ।2। अर्थ: अगर सवेरे उठ के कोई (गुरमुख) अतिथि मेरे घर आए, मैं उस गुरमुख के पैर धोऊँ; मेरे मन में, मेरे तन में वह सदा प्यारा लगे। वह गुरमुख (नित्य) नाम सुने, नाम-धन इकट्ठा करे और नाम में ही तवज्जो जोड़ के रखे। (उसके आने से मेरा) सारा घर पवित्र हो जाए, मैं भी (उसकी इनायत से) प्रभु के गुण गाने लग जाऊँ। (पर) हे नानक! ऐसे प्रभु नाम का व्यापारी बड़े भाग्यों से ही कहीं मुझे मिल सकता है।2। पउड़ी ॥ जो तुधु भावै सो भला सचु तेरा भाणा ॥ तू सभ महि एकु वरतदा सभ माहि समाणा ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ जीअ अंदरि जाणा ॥ साधसंगि मिलि पाईऐ मनि सचे भाणा ॥ नानक प्रभ सरणागती सद सद कुरबाणा ॥१॥ पद्अर्थ: थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतरि, हरेक जगह में। मनि = मान के। सरणागती = सरण आओ। सद सद = सदा ही।1। अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! जो मनुष्य तुझे भाता है जिसे तेरी रजा भाती है वह भला है। तू ही सब जीवों में व्यापक है, सब में समाया हुआ है, तू हरेक जगह पर मौजूद है, सब जीवों में तू ही जाना जाता है (भाव, सब जानते हैं कि सब जीवों में तू ही है)। उस सदा स्थिर रहने वाले की रज़ा मान के सत्संग में मिल के उसको ढूँढ सकते हैं। हे नानक! उस प्रभु की शरण आ, उससे सदा ही कुर्बान हो।1। सलोक मः ५ ॥ चेता ई तां चेति साहिबु सचा सो धणी ॥ नानक सतिगुरु सेवि चड़ि बोहिथि भउजलु पारि पउ ॥१॥ पद्अर्थ: चेता ई = अगर तुझे याद है। चेति = स्मरण कर। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। धणी = मालिक। बोहिथि = जहाज पर। पारि पउ = पार हो, तैर।1। अर्थ: हे नानक! अगर तुझे याद है कि वह प्रभु सालिक सदा स्थिर रहने वाला है तो उस मालिक को सदा स्मरण कर (भाव, तुझे पता भी है कि सिर्फ वह प्रभु मालिक ही सदा स्थिर रहने वाला है, फिर उसे क्यूँ नहीं स्मरण करता?), गुरु के हुक्म में चल (गुरु के हुक्म रूप) जहाज में चढ़ के संसार समुंदर को पार कर।1। मः ५ ॥ वाऊ संदे कपड़े पहिरहि गरबि गवार ॥ नानक नालि न चलनी जलि बलि होए छारु ॥२॥ पद्अर्थ: संदे = के। वाउ संदे = हवा के, हवा जैसे बारीक, सुंदर सुंदर बारीक। पहिरहि = पहनते हैं। गरबि = अहंकार में, अकड़ में। गवार = मूर्ख मनुष्य। छारु = राख।2। अर्थ: मूर्ख मनुष्य सुंदर-सुंदर बारीक कपड़े बड़ी अकड़ से पहनते हैं, पर हे नानक! (मरने पर ये कपड़े जीव के) साथ नहीं जाते, (यहीं) जल के राख हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ सेई उबरे जगै विचि जो सचै रखे ॥ मुहि डिठै तिन कै जीवीऐ हरि अम्रितु चखे ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु संगि साधा भखे ॥ करि किरपा प्रभि आपणी हरि आपि परखे ॥ नानक चलत न जापनी को सकै न लखे ॥२॥ पद्अर्थ: मुहि = मूँह को। मुहि डिठै तिन कै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर उनके मुँह देख लें। भखे = खाए जाते है। प्रभि = प्रभु ने। परखे = परख लिए हैं, स्वीकार कर लिए हैं। चलत = करिश्मा, तमाशे। न जापनी = समझे नहीं जा सकते।2। नोट: ‘मुहि’ है अधिकरणकारक, एकवचन। अर्थ: (कामादिक विकारों से) जगत में वही मनुष्य बचे हैं जिन्हें सच्चे प्रभु ने (बचा के) रखा है, ऐसे मनुष्यों का दर्शन करके हरि-नाम अमृत चख सकते हैं और (असल) जिंदगी मिलती है। ऐसे साधु-जनों की संगति में (रहने से) काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। जिस पर प्रभु ने अपनी मेहर की है, उनको उसने खुद ही स्वीकार कर लिया है। हे नानक! परमात्मा के करिश्मे समझे नहीं जा सकते, कोई जीव समझ नहीं सकता।2। सलोक मः ५ ॥ नानक सोई दिनसु सुहावड़ा जितु प्रभु आवै चिति ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु फिटु भलेरी रुति ॥१॥ पद्अर्थ: जितु = जिस में। चिति = चिक्त में। जितु दिनि = जिस दिन में। भलेरी = भली से उलट, मंदी। रुति = समय।1। नोट: शब्द ‘जितु’ सर्वनाम ‘जिसु’ से अधिकरण कारक, एकवचन है। नोट: संस्कृत में एक शब्द है ‘इत्र’, इसका अर्थ है ‘अन्य’ उलट। जिस ‘विशेषण’ के साथ इसका प्रयोग किया जाए, उस सारे शब्द का अर्थ असल शब्द के ‘उलट’ विलोम हो जाता है। ‘इत्र’ का प्राकृत रूप है ‘एर’ या ‘इर’; भला+एरा = ‘भलेरा’। अर्थ: हे नानक! वही दिन अच्छा सोहाना है जिस दिन परमात्मा मन में बसे। जिस दिन परमात्मा बिसर जाता है, वह समय खराब जानो, वह वक्त धिक्कारयोग्य है।1। मः ५ ॥ नानक मित्राई तिसु सिउ सभ किछु जिस कै हाथि ॥ कुमित्रा सेई कांढीअहि इक विख न चलहि साथि ॥२॥ पद्अर्थ: कुमित्रा = बुरे मित्र। कांढीअहि = कहे जाते हैं। विख = कदम।2। अर्थ: हे नानक! उस (प्रभु) से दोस्ती (डालनी चाहिए) जिसके बस में हरेक बात है, पर जो एक कदम भी (हमारे) साथ नहीं जा सकते वह कुमित्र कहे जाते हैं (उनके साथ मोह ना बढ़ाते फिरो)।2। पउड़ी ॥ अम्रितु नामु निधानु है मिलि पीवहु भाई ॥ जिसु सिमरत सुखु पाईऐ सभ तिखा बुझाई ॥ करि सेवा पारब्रहम गुर भुख रहै न काई ॥ सगल मनोरथ पुंनिआ अमरा पदु पाई ॥ तुधु जेवडु तूहै पारब्रहम नानक सरणाई ॥३॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। मिलि = मिल के। जिसु = जिस को। तिखा = प्यास, माया की प्यास। काई = कोई। पुंनिआ = पूरे हो जाते हैं। अमरा पदु = अटल दर्जा, वह उच्च अवस्था जो कभी नाश नहीं होती। जेवडु = जितना, बराबर का।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम अमृत (-रूप) खजाना है, (इस अमृत को सत्संग में) मिल के पीयो। उस नाम को स्मरण करने से सुख मिलता है, और (माया की) सारी तृष्णा मिट जाती है। (हे भाई!) गुरु अकाल-पुरख की सेवा कर, (माया की) कोई भूख नहीं रह जाएगी। (नाम स्मरण करने से) सो उद्देश्य पूरे हो जाते हैं, वह उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है जो कभी नाश नहीं होती। हे पारब्रहम! तेरे बराबर का तू खुद ही है। हे नानक! उस पारब्रहम की शरण पड़ो।3। सलोक मः ५ ॥ डिठड़ो हभ ठाइ ऊण न काई जाइ ॥ नानक लधा तिन सुआउ जिना सतिगुरु भेटिआ ॥१॥ पद्अर्थ: हभ ठाइ = सारी जगहें। ठाउ = जगह। ठाइ = जगह में। ऊण = खाली। जाइ = जगह। सुआउ = जीवन का उद्देश्य।1। अर्थ: मैंने (प्रभु को) हर जगह मौजूद देखा है, कोई भी जगह (प्रभु से) खाली नहीं है (भाव, हरेक जीव में प्रभु है) पर, हे नानक! जीवन का उद्देश्य (भाव, प्रभु का नाम स्मरण) उन मनुष्यों को ही मिला है जिन्हें सतिगुरु मिला है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |