श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 317 सलोक मः ५ ॥ गुर नानक हरि नामु द्रिड़ाइआ भंनण घड़ण समरथु ॥ प्रभु सदा समालहि मित्र तू दुखु सबाइआ लथु ॥१॥ पद्अर्थ: द्रिढाइआ = दृढ़ करा दिया, पक्का करा दिया।1। अर्थ: हे नानक! जो हरि शरीरों को सहजे ही नाश करके बना सकता है, सतिगुरु ने उस हरि का नाम (हमारे हृदय में) परो दिया है (और हमारा सब दुख दूर हो गया है)। हे मित्र! अगर तू (भी) प्रभु को याद करे, तो (तेरे भी) सब दुख समाप्त हो जाएं।1। मः ५ ॥ खुधिआवंतु न जाणई लाज कुलाज कुबोलु ॥ नानकु मांगै नामु हरि करि किरपा संजोगु ॥२॥ पद्अर्थ: खुधिआ = भूख। संजोगु = मिलाप।2। अर्थ: (जैसे) भूखा मनुष्य आदर (के वचन) या निरादरी के बुरे बोलों को नहीं जानता (भाव, परवाह नहीं करता और रोटी के लिए सवाल कर देता है, वैसे ही) हे हरि! नानक (भी) तेरा नाम मांगता है, मेहर करके मिलाप बख्श।2। पउड़ी ॥ जेवेहे करम कमावदा तेवेहे फलते ॥ चबे तता लोह सारु विचि संघै पलते ॥ पद्अर्थ: फलते = फल देते हैं। सारु = करड़ा। पलते = चुभ जाता है। अर्थ: (अकृतज्ञ) मनुष्य जैसे कर्म करता है, वह कर्म वैसा ही फल देता है; अगर कोई गर्म व करड़ा लोहा चबाए तो वह गले में चुभ जाता है। घति गलावां चालिआ तिनि दूति अमल ते ॥ काई आस न पुंनीआ नित पर मलु हिरते ॥ पद्अर्थ: घति = डाल के। गलावां = गले का रस्सा। तिनि दूति = उस जमदूत ने। चालिआ = आगे लगा लिया। पुंनीआ = पूरी हुई, सफल हो गई। पर मलु = पराई मैल। हिरते = चुराते हुए। अर्थ: वह जमदूत (उन खोटे) कर्मों के कारण गले में रस्सा डाल के (भाव, निरादरी का बरताव करके) आगे लगा लेता है। सदा पराई मैल चुराते की (भाव निंदा करके सदा पराए पाप सिर पर लेते की) कोई आस पूरी नहीं होती (लोक और परलोक दोनों बर्बाद जाते हैं)। कीआ न जाणै अकिरतघण विचि जोनी फिरते ॥ सभे धिरां निखुटीअसु हिरि लईअसु धर ते ॥ अर्थ: जूनियों में भटकता-भटकता वह अकृतज्ञ प्रभु के उपकारों को नहीं समझता (कि उसने मेहर करके मानव जनम बख्शा है), (निंदा आदि के सारे दाँव-पेचों की) उसकी सारी ताकत खत्म हो जाती है, तब (फल भोगने के लिए) प्रभु उसे धरती से उठा लेता है। विझण कलह न देवदा तां लइआ करते ॥ जो जो करते अहमेउ झड़ि धरती पड़ते ॥३२॥ अर्थ: जब (चारों तरफ) झगड़े को (अकृतज्ञ) समाप्त नहीं होने देता (अर्थात, अति कर देता है) तो कर्तार (उसे) उठा लेता है। (असल बात ये कि) जो जो मनुष्य अहंकार करते हैं वे आखिर जमीन पे ही गिरते हैं।32। सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि गिआनु बिबेक बुधि होइ ॥ हरि गुण गावै हिरदै हारु परोइ ॥ पवितु पावनु परम बीचारी ॥ जि ओसु मिलै तिसु पारि उतारी ॥ पद्अर्थ: बिबेक = परख। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख रहता है, उसमें ज्ञान और विचार वाली बुद्धि होती है; वह हरि के गुण गाता है और हृदय में (गुणों का हार) परो लेता है, (आचरण का) बड़ा शुद्ध और ऊँची मति वाला होता है। जो मनुष्य उसकी संगति करता है उसे भी (संसार सागर से) पार लंघा लेता है। अंतरि हरि नामु बासना समाणी ॥ हरि दरि सोभा महा उतम बाणी ॥ जि पुरखु सुणै सु होइ निहालु ॥ नानक सतिगुर मिलिऐ पाइआ नामु धनु मालु ॥१॥ पद्अर्थ: बासना = सुगन्धि।1। अर्थ: उस मनुष्य के हृदय में हरि के नाम (रूपी) सुगन्धि समाई हुई होती है, (जिस कारण) उसकी बोली बड़ी उत्तम होती है और हरि के दरगाह में (उसकी) शोभा होती है। जो मनुष्य (उस बोली को) सुनता है, वह प्रसन्न होता है। हे नानक! सतिगुरु को मिल के उसने ये नाम (रूप) खजाना प्राप्त किया हुआ होता है।1। मः ४ ॥ सतिगुर के जीअ की सार न जापै कि पूरै सतिगुर भावै ॥ गुरसिखां अंदरि सतिगुरू वरतै जो सिखां नो लोचै सो गुर खुसी आवै ॥ सतिगुरु आखै सु कार कमावनि सु जपु कमावहि गुरसिखां की घाल सचा थाइ पावै ॥ पद्अर्थ: सार = भेद। न जापै = समझा नहीं जा सकता। थाइ पावै = स्वीकार करता है। अर्थ: सतिगुरु के दिल का भेद मनुष्य को समझ नहीं आ सकता कि सतिगुरु को क्या अच्छा लगता है (सो इस तरह सतिगुरु की प्रसन्नता हासिल करनी कठिन है); (पर हां) सतिगुरु सच्चे सिखों के हृदय में व्यापक है, जो मनुष्य उनकी (सेवा की) तमन्ना रखता है वह सतिगुरु की प्रसन्नता के (दायरे) में आ जाता है, (क्योंकि) जो आज्ञा सतिगुरु देता है वही काम गुरसिख करते हैं, वही भजन करते हैं, सच्चा प्रभु सिखों की मेहनत स्वीकार करता है। विणु सतिगुर के हुकमै जि गुरसिखां पासहु कमु कराइआ लोड़े तिसु गुरसिखु फिरि नेड़ि न आवै ॥ गुर सतिगुर अगै को जीउ लाइ घालै तिसु अगै गुरसिखु कार कमावै ॥ जि ठगी आवै ठगी उठि जाइ तिसु नेड़ै गुरसिखु मूलि न आवै ॥ अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के आशय के विरुद्ध गुरसिखों से काम कराना चाहे, गुरु का सिख फिर उसके नजदीक नहीं आता, (पर) जो मनुष्य सतिगुरु की हजूरी में चिक्त जोड़ के (सेवा की मेहनत) करे, गुरसिख उसकी सेवा करता है। जो मनुष्य फरेब करने आता है और फरेब के ख्याल में चला जाता है, उसके नजदीक गुरु का सिख बिल्कुल ही नहीं आता। ब्रहमु बीचारु नानकु आखि सुणावै ॥ जि विणु सतिगुर के मनु मंने कमु कराए सो जंतु महा दुखु पावै ॥२॥ पद्अर्थ: ब्रहमु बीचारु = ईश्वरीय विचार।2। अर्थ: नानक कह के सुनाता है (भाव, जोर दे कर सुनाता है कि) शुद्ध सत्य विचार (की बात ये है कि) सतिगुरु का मन पतीजे बिना (भाव, गुरु आशय के विरुद्ध) जो मनुष्य (ठगी आदि करके गुरसिखों से) काम करवाए (भाव, अपनी सेवा करवाए) वह व्यक्ति महा दुख पाता है।2। पउड़ी ॥ तूं सचा साहिबु अति वडा तुहि जेवडु तूं वड वडे ॥ जिसु तूं मेलहि सो तुधु मिलै तूं आपे बखसि लैहि लेखा छडे ॥ अर्थ: हे बड़ों से बड़े! तू सच्चा मालिक और बहुत बड़ा है, अपने जितना तू खुद ही है। वही मनुष्य तुझे मिलता है, जिसे तू स्वयं मिलाता है और जिसका लेखा छोड़ के तू स्वयं बख्श लेता है। जिस नो तूं आपि मिलाइदा सो सतिगुरु सेवे मनु गड गडे ॥ तूं सचा साहिबु सचु तू सभु जीउ पिंडु चमु तेरा हडे ॥ अर्थ: जिसको तू खुद मिलाता है वही मन डुबो के (मन लगा के) सतिगुरु की सेवा करता है। तू सच्चा मालिक है, सदा स्थिर रहने वाला है, जीवों का सब कुछ - जिंद, शरीर, चमड़ी, हड्डियां - तेरे ही बख्शे हुए हैं। जिउ भावै तिउ रखु तूं सचिआ नानक मनि आस तेरी वड वडे ॥३३॥१॥ सुधु ॥ अर्थ: हे बड़ों से भी बड़े! सच्चे प्रभु! जैसे तुझे ठीक लगे वैसे ही हमारी रक्षा कर, नानक के मन में तेरी ही आस है।33।1। सुधु। संरचना: ये वार गुरु रामदास जी की उच्चारण की हुई है। इस में कुल ३३ पौड़ियां हैं, पहली २६ पौड़ियां गुरु रामदास जी की हैं, नंबर २७ से ले के ३१ तक पाँच पौड़ियां गुरु अरजन देव जी की हैं, आखिरी दो पौड़ियां फिर गुरु रामदास जी की हैं। इस तरह ३३ पौड़ियों में से २८ गुरु रामदास जी की हैं। पहले ये वार २८ पौड़ियों की ही थी, बाद में गुरु अरजन देव जी ने पौड़ी नंबर २६ के साथ अपनी पाँच पौड़ियां और शामिल कीं। सारे श्लोकों की गिनती ६८ है, पौड़ी नंबर १५ से २० के अलावा बाकी हरेक पौड़ी के साथ दो-दो श्लोक हैं (जोड़ = 62), इन दो पौड़ियों के साथ तीन-तीन श्लोक हैं और कुल योग ६८ है। श्लोकों का वेरवा इस तरह है; जब ये ‘वार’ गुरु रामदास जी ने लिखी, तब से सिर्फ पौड़ियां ही थीं। इनके साथ श्लोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए, चाहे ज्यादा श्लोक गुरु रामदास जी के ही हैं। अगर गुरु रामदास जी खुद ही पौड़ियों के साथ श्लोक भी लिखते तो काव्य-दृष्टि से विशेष एक-सार रचना होती। ये नहीं हो सकता था कि किसी पौड़ी के साथ श्लोक लिख देते और कोई बिना श्लोक के ही छोड़ देते। पौड़ी नंबर 32 के साथ दोनों श्लोक गुरु अरजन देव जी के हैं, और ये श्लोक गुरु अरजन साहिब ही दर्ज कर सकते थे। ये नहीं हो सकता था कि गुरु राम दास जी अपनी 28 पौड़ियों में से 27 पौड़ियों के साथ तो अपने या गुरु अमरदास जी के श्लोक दर्ज किए जाते और अपनी 32वीं पौड़ी को बिल्कुल ही खाली रहने देते। फिर, श्लोकों की विषय-वस्तु भी यह बताता है कि अलग-अलग मौके के हैं, भिन्न-भिन्न समय पर उचारे गए हैं। सो, यही निष्कर्श निकल सकता है कि ‘वार’ की पौड़ियों के साथ शलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए थे। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |