श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धरम राइ जमकंकरा नो आखि छडिआ एसु तपे नो तिथै खड़ि पाइहु जिथै महा महां हतिआरिआ ॥ फिरि एसु तपे दै मुहि कोई लगहु नाही एहु सतिगुरि है फिटकारिआ ॥

पद्अर्थ: कंकर = किंकर, दास, दूत। खड़ि = ले जा के।

अर्थ: धर्मराज ने अपने जमदूतों को कह दिया है कि इस तपस्वी को ले जा के उस जगह पर डालना जहाँ बड़े से बड़े पापी (डाले जाते हैं), फिर (वहाँ भी) इस तपस्वी के मुँह कोई ना लगना, (क्योंकि) ये तपस्वी सतिगुरु द्वारा धिक्कारा हुआ है (गुरु से विछुड़ा हुआ है)।

हरि कै दरि वरतिआ सु नानकि आखि सुणाइआ ॥ सो बूझै जु दयि सवारिआ ॥१॥

अर्थ: हे नानक! जो ये कुछ प्रभु की दरगाह में घटित हुआ है वह कह के सुना दिया है, इस बात को वह मनुष्य समझता है जिसे प्रभु पति ने सवारा हुआ है।1।

मः ४ ॥ हरि भगतां हरि आराधिआ हरि की वडिआई ॥ हरि कीरतनु भगत नित गांवदे हरि नामु सुखदाई ॥

अर्थ: हरि के भक्त हरि को स्मरण करते हैं और हरि की महिमा करते हैं, भक्त सदा हरि का कीर्तन गाते हैं और हरि का सुखदाई नाम (जपते हैं)।

हरि भगतां नो नित नावै दी वडिआई बखसीअनु नित चड़ै सवाई ॥ हरि भगतां नो थिरु घरी बहालिअनु अपणी पैज रखाई ॥

पद्अर्थ: बखसीअनु = बख्शी है उस प्रभु ने। बहालिअनु = बैठाए हैं उस प्रभु ने। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)

अर्थ: प्रभु ने भक्तों को सदा के लिए नाम (जपने) का गुण बख्शा है जो दिनो दिन सवाया बढ़ता है। प्रभु ने अपने बिरद की लज्जा रखी है और अपने भक्तों को हृदय में अडोल कर दिया है (भाव, माया के पीछे नहीं डोलने देता)।

निंदकां पासहु हरि लेखा मंगसी बहु देइ सजाई ॥ जेहा निंदक अपणै जीइ कमावदे तेहो फलु पाई ॥ अंदरि कमाणा सरपर उघड़ै भावै कोई बहि धरती विचि कमाई ॥

पद्अर्थ: जीइ = हृदय में। सरपर = अवश्य।

अर्थ: निंदकों से प्रभु लेखा मांगता है और बहुत सजा देता है। निंदक जैसा अपने मन में कमाते हैं, वैसा उन्हें फल मिलता है (क्योंकि) अंदर बैठ के भी किया हुआ काम जरूर प्रगट हो जाता है, चाहे कोई धरती में (छुप के) करे।

जन नानकु देखि विगसिआ हरि की वडिआई ॥२॥

अर्थ: (प्रभु का) दास नानक प्रभु की महिमा देख के प्रसन्न हो रहा है।2।

पउड़ी मः ५ ॥ भगत जनां का राखा हरि आपि है किआ पापी करीऐ ॥ गुमानु करहि मूड़ गुमानीआ विसु खाधी मरीऐ ॥ आइ लगे नी दिह थोड़ड़े जिउ पका खेतु लुणीऐ ॥ जेहे करम कमावदे तेवेहो भणीऐ ॥ जन नानक का खसमु वडा है सभना दा धणीऐ ॥३०॥

पद्अर्थ: आइ लगे नी = खत्म हो जाते हैं। लुणीऐ = काटते हैं। भणीऐ = कहलवाते हैं। धणीऐ = धणी, पति।30।

अर्थ: प्रभु (अपने) भक्तों का आप रखवाला है, पाप चितवने वाला (उनका) क्या बिगाड़ सकता है? (भाव, कुछ बिगाड़ नहीं सकता)। मूर्ख अहंकारी मनुष्य अहंकार करते हैं और (अहंकार-रूपी) जहर खा के मरते हैं (क्योंकि जिस जिंदगी पर मान करते हैं उसकी गिनती के) थोड़े दिन आखिर खत्म हो जाते हैं, जैसे पक्की फसल काटी जाती है और वह जैसे (अहंकार के) काम करते हैं, (दरगाह में भी) वही कहलवाते हैं (भाव, वैसे ही फल पाते हैं)। (पर) जो प्रभु सब का मालिक है, और बड़ा है वह (अपने) दास नानक का रखवाला है।30।

सलोक मः ४ ॥ मनमुख मूलहु भुलिआ विचि लबु लोभु अहंकारु ॥ झगड़ा करदिआ अनदिनु गुदरै सबदि न करहि वीचारु ॥

पद्अर्थ: मूलहु = मूल परमात्मा से।

अर्थ: सतिगुरु से भूले हुए मनुष्य मूल से ही भूले हुए हैं, क्योंकि उनके अंदर लब-लोभ और अहंकार है, उनका हरेक दिन (भाव, सारी उम्र) लालच-लोभ-अहंकार (संबंधी) झगड़े करते गुजरती है, वह सतिगुरु के शब्द में विचार नहीं करते।

सुधि मति करतै सभ हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥ दितै कितै न संतोखीअहि अंतरि तिसना बहु अगिआनु अंध्यारु ॥

पद्अर्थ: सुधि = होश। हिरि लई = छीन ली। न संतोखीअहि = संतुष्ट नहीं होते। तिसना = तृष्णा, लालच। अंधारु = अंधेरा।

अर्थ: कर्तार ने (मनमुखों) की होश और अक्ल (सुध-बुध) छीन ली है, निरे विकार ही बोलते हैं (भाव, निरे विकार भरे वचन ही करते हैं); वे किसी भी दात (के मिलने) पर संतुष्ट नहीं होते, क्योंकि उनके मन में बड़ी तृष्णा, अज्ञान व अंधेरा है।

नानक मनमुखा नालो तुटी भली जिन माइआ मोह पिआरु ॥१॥

अर्थ: हे नानक! (ऐसे) मनमुखों से संबंध टूटे हुए ही बेहतर हैं, क्योंकि उनका तो मोह-प्यार ही माया के साथ है।1।

मः ४ ॥ जिना अंदरि दूजा भाउ है तिन्हा गुरमुखि प्रीति न होइ ॥ ओहु आवै जाइ भवाईऐ सुपनै सुखु न कोइ ॥

अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय में माया का प्यार है उनके (हृदय में) सतिगुरु के सन्मुख रहने वाला स्नेह नहीं होता।

कूड़ु कमावै कूड़ु उचरै कूड़ि लगिआ कूड़ु होइ ॥ माइआ मोहु सभु दुखु है दुखि बिनसै दुखु रोइ ॥

अर्थ: जो मनुष्य (माया मोह-रूप) झूठा काम करता है, और (जीभ से भी) झूठ बोलता है और झूठ में लग के झूठ (का ही रूप) हो जाता है, उसे सपने में भी सुख नहीं मिलता और वह पैदा होने मरने के चक्र-व्यूह में भटकता फिरता है, (क्योंकि) माया का मोह (-रूप झूठ) केवल दुख (का कारण) है (इस लिए वह) दुख में ही समाप्त हो जाता है और दुख (का रोना ही) रोता रहता है।

नानक धातु लिवै जोड़ु न आवई जे लोचै सभु कोइ ॥ जिन कउ पोतै पुंनु पइआ तिना गुर सबदी सुखु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: धातु = माया। लिव = (प्रभु का) प्यार। पोतै = (फारसी शब्द) खजाने में।2।

अर्थ: चाहे हरेक मनुष्य चाहता रहे (पर) हे नानक! माया और लगन का मेल नहीं फब सकता, (पिछले किए हुए भले कर्मों के अनुसार) जिन्होंने (मन-रूपी) पलड़े में (भले संस्कारों का एकत्र-रूप) पुण्य (उकरा) हुआ है, उन्हें सतिगुरु के शब्द के द्वारा सुख मिलता है।2।

पउड़ी मः ५ ॥ नानक वीचारहि संत मुनि जनां चारि वेद कहंदे ॥ भगत मुखै ते बोलदे से वचन होवंदे ॥ परगट पाहारै जापदे सभि लोक सुणंदे ॥ सुखु न पाइनि मुगध नर संत नालि खहंदे ॥ ओइ लोचनि ओना गुणा नो ओइ अहंकारि सड़ंदे ॥ ओइ वेचारे किआ करहि जां भाग धुरि मंदे ॥ जो मारे तिनि पारब्रहमि से किसै न संदे ॥ वैरु करनि निरवैर नालि धरमि निआइ पचंदे ॥ जो जो संति सरापिआ से फिरहि भवंदे ॥ पेडु मुंढाहू कटिआ तिसु डाल सुकंदे ॥३१॥

पद्अर्थ: पाहारै = संसार में, पसारे में। मुगध = मूर्ख। तिनि पारब्रहमि = उस पारब्रहम ने। निआइ = न्याय अनुसार।31।

अर्थ: हे नानक! संत और मुनि जन (अपने) विचार देते हैं और चारों वेद (भाव, पुरातन धर्म पुस्तकें) भी (यही बात) कहते हैं, (कि) भक्त जन जो वचन मुँह से बोलते हैं वह (सही) होते हैं। (भक्त) सारे संसार में प्रसिद्ध होते हैं और (उनकी शोभा) सारे लोक सुनते हैं। जो मूर्ख मनुष्य (ऐसे) संतों से वैर करते हैं, वह सुख नहीं पाते, (वह दुखदाई) जलते तो अहंकार में हैं, (पर) भक्त जनों के गुणों को तरसते हैं। इन दुखदाई मनुष्यों के वश में भी क्या है? क्योंकि शुरू से ही (बुरे कर्म करने के कारण) बुरे (संस्कार ही) उनका हिस्सा हैं। जो मनुष्य ईश्वर की तरफ से मरे हुए हैं, वह किसी के (सगे) नहीं। निर्वैरों के साथ (भी) वैर करते हैं, और (परमात्मा के) धर्म-न्याय के अनुसार दुखी होते हैं। जो मनुष्य संतों द्वारा तिरस्कारे हुए हैं, वह (जनम मरण में) भटकते फिरते हैं। (ये बात स्पष्ट है कि) जो पेड़ जड़ से काट दिया जाए उसकी टहनियां भी सूख जाती हैं।31।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh