श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ५ ॥ रहदे खुहदे निंदक मारिअनु करि आपे आहरु ॥ संत सहाई नानका वरतै सभ जाहरु ॥१॥

अर्थ: (जन्म जन्मांतरों से पाप करके निंदक मनुष्य बहुत कुछ तो आगे ही नाम की ओर से मर चुके होते हैं) बाकी थोड़े बहुत (जो भले संस्कार रह जाते हैं) उनको प्रभु खुद उद्यम करके (भाव, निंदकों को निंदा में लगा के खत्म करा देता है) और, हे नानक! संत जनों का राखा हरि सब जगह प्रगट खेल कर रहा है।1।

मः ५ ॥ मुंढहु भुले मुंढ ते किथै पाइनि हथु ॥ तिंनै मारे नानका जि करण कारण समरथु ॥२॥

अर्थ: जो मनुष्य पहले से ही प्रभु से टूटे हुए हैं, वे और कौन सा आसरा लें? (क्योंकि) हे नानक! ये उस प्रभु ने खुद मारे हुए हैं, जो सारी सृष्टि को रचने में समर्थ है।2।

पउड़ी ५ ॥ लै फाहे राती तुरहि प्रभु जाणै प्राणी ॥ तकहि नारि पराईआ लुकि अंदरि ठाणी ॥ संन्ही देन्हि विखम थाइ मिठा मदु माणी ॥ करमी आपो आपणी आपे पछुताणी ॥ अजराईलु फरेसता तिल पीड़े घाणी ॥२७॥

पद्अर्थ: फाहे = रस्से, कमंद। अंदरि ठाणी = अंदरूनी जगह। लुकि = छुप के। विखंम = मुश्किल। मदु = शराब।27।

अर्थ: मनुष्य रात के रस्से ले के (पराए घरों को लूटने के लिए) चलते हैं (पर) प्रभु उनको जानता है, अंदर छुप के पराई स्त्रीयों को देखते हैं, मुश्किल जगह पर सेंध लगाते हैं और शराब को मीठा समझ के पीते हैं। (आखिर में) अपने-अपने किए कर्मों के अनुसार खुद ही पछताते हैं, (क्योंकि) मौत का फरिश्ता बुरे काम करने वालों को ऐसे पीढ़ता है जैसे घाणी में तिल।27।

सलोक मः ५ ॥ सेवक सचे साह के सेई परवाणु ॥ दूजा सेवनि नानका से पचि पचि मुए अजाण ॥१॥

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे शाह (प्रभु) के सेवक हैं वही (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होते हैं। हे नानक! जो (उस सच्चे शाह को छोड़ के) दूसरे की सेवा करते हैं, वे मूर्ख खप-खप के मरते हैं।1।

मः ५ ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु प्रभ मेटणा न जाइ ॥ राम नामु धनु वखरो नानक सदा धिआइ ॥२॥

अर्थ: हे प्रभु! आरम्भ से (किए कर्मों के मुताबिक) जो (संस्कार-रूपी) लेख (हृदय में) उकरा गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। (पर हाँ) हे नानक! प्रभु का नाम-धन और सौदा (एकत्र करो), नाम सदा स्मरण करो (इस तरह पिछला लेख मिट सकता है)।2।

पउड़ी ५ ॥ नाराइणि लइआ नाठूंगड़ा पैर किथै रखै ॥ करदा पाप अमितिआ नित विसो चखै ॥ निंदा करदा पचि मुआ विचि देही भखै ॥ सचै साहिब मारिआ कउणु तिस नो रखै ॥ नानक तिसु सरणागती जो पुरखु अलखै ॥२८॥

पद्अर्थ: नाराइणि = नारायण से। नाठूँगड़ा = ठेडा, भागने के लिए धक्का। अमितिआ = अमित्य, जिसे नापा ना जा सके, बेअंत। विसो = विष ही। भखै = चखता है। अलखै = अलख, अदृष्ट।28।

अर्थ: जिस मनुष्य को ईश्वर से ही ठेडा बजे, वह (जिंदगी की सही राह पर) टिक नहीं सकता। वह बेअंत पाप करता रहता है, सदा (विकारों का) विष ही चखता रहता है (भाव, उसे विकारों का चस्का पड़ा रहता है)। दूसरों के ऐब ढूँढ-ढूँढ के ख्वार होता है और अपने आप में जलता है। वह (समझो) सच्चे परमात्मा द्वारा मारा हुआ है, कोई उसकी सहायता नहीं कर सकता। हे नानक! (इस विष से बचने के लिए) उस अकाल पुरख की शरण पड़ो जो अलख, (अदृश्य) है।28।

सलोक मः ५ ॥ नरक घोर बहु दुख घणे अकिरतघणा का थानु ॥ तिनि प्रभि मारे नानका होइ होइ मुए हरामु ॥१॥

पद्अर्थ: अकिरतघणा = किए उपकार को भुलाने वाला, अकृतज्ञ, दातार को भुलाने वाले।1।

अर्थ: अकृतज्ञ मनुष्य उस प्रभु द्वारा मारे हुए होते हैं, बहुत भारे दुख-रूप घोर नर्क उनका ठिकाना है। हे नानक! (इन दुखों में) वे ख्वार हो हो के मरते हैं।1।

मः ५ ॥ अवखध सभे कीतिअनु निंदक का दारू नाहि ॥ आपि भुलाए नानका पचि पचि जोनी पाहि ॥२॥

पद्अर्थ: अवखध = औषधि, दवा। कीतिअनु = किए हैं उस प्रभु ने। पाहि = पड़ते हैं।2।

अर्थ: सारे रोगों की दवा उस प्रभु ने बनाई है (भाव, हो सकती हैं), पर निंदकों (के निंदा-रोग का) कोई इलाज नहीं। हे नानक! प्रभु ने खुद वह भुलेखे डाले हुए हैं (इस अपने किए के अनुसार) निंदक खप-खप के जूनियों में पड़ते हैं।2।

पउड़ी ५ ॥ तुसि दिता पूरै सतिगुरू हरि धनु सचु अखुटु ॥ सभि अंदेसे मिटि गए जम का भउ छुटु ॥ काम क्रोध बुरिआईआं संगि साधू तुटु ॥ विणु सचे दूजा सेवदे हुइ मरसनि बुटु ॥ नानक कउ गुरि बखसिआ नामै संगि जुटु ॥२९॥

पद्अर्थ: तुसि = त्रुठ के, प्रसन्न हो के। बुटु = बोट की तरह निआसरे।29।

अर्थ: (जिस मनुष्यों को) पूरे सतिगुरु ने प्रभु का सच्चा और ना-खत्म होने वाला धन प्रसन्न हो के दिया है, उनके सारे फिक्र मिट जाते हैं और मौत का डर दूर हो जाता है (और उनके) काम-क्रोध आदि पाप संतों की संगति में समाप्त हो जाते हैं; पर जो मनुष्य सच्चे हरि के अलावा किसी और की सेवा करते हैं, वह बोट हो के (भाव, निआसरे हो के) मरते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य पर सतिगुरु के द्वारा प्रभु ने बख्शिश की है वह केवल नाम में जुटा हुआ है।29।

सलोक मः ४ ॥ तपा न होवै अंद्रहु लोभी नित माइआ नो फिरै जजमालिआ ॥ अगो दे सदिआ सतै दी भिखिआ लए नाही पिछो दे पछुताइ कै आणि तपै पुतु विचि बहालिआ ॥

पद्अर्थ: जजमालिआ = कोढ़ी। अगो दे = पहले। सतै दी = आदर की। आणि = ला के।

अर्थ: जो मनुष्य अंदर से लोभी हो और जो कोढ़ी सदा माया के लिए भटकता फिरे, वह (सच्चा) तपस्वी नहीं हो सकता। ये तपस्वी पहले (अपने आप) बुलाने पर आदर की भिक्षा नहीं लेता था, और बाद में पछता कर इसने पुत्र को ला के (पंगति) में बैठा दिया।

पंच लोग सभि हसण लगे तपा लोभि लहरि है गालिआ ॥ जिथै थोड़ा धनु वेखै तिथै तपा भिटै नाही धनि बहुतै डिठै तपै धरमु हारिआ ॥

पद्अर्थ: लोभि = लोभ में।

अर्थ: (नगर के) मुखी लोग सारे हसने लग पड़े (और कहने लगे कि) ये तपस्वी लोभ की लहर में गला पड़ा है। जहाँ थोड़ा धन देखता है, वहाँ नजदीक छूता भी नहीं, और ज्यादा धन देख के तपस्वी ने अपना धर्म हार दिया है।

भाई एहु तपा न होवी बगुला है बहि साध जना वीचारिआ ॥ सत पुरख की तपा निंदा करै संसारै की उसतती विचि होवै एतु दोखै तपा दयि मारिआ ॥

पद्अर्थ: एतु दोखै = इस ऐब के कारण। दयि = पति ने।

अर्थ: भले मनुष्यों ने इकट्ठे हो के विचार की है (और फैसला किया है) कि हे भाई! यह (सच्चा) तपस्वी नहीं है बगुला है (भाव, पाखण्डी है)। भले मनुष्यों की यह तपा निंदा करता है और संसार की स्तुति में है (भाव, संसारी जीवों की स्तुति से खुश होता है) इस दूषण के कारण इस तपे को पति प्रभु ने (आत्मिक जीवन की तरफ से) मुर्दा कर दिया है।

महा पुरखां की निंदा का वेखु जि तपे नो फलु लगा सभु गइआ तपे का घालिआ ॥ बाहरि बहै पंचा विचि तपा सदाए ॥ अंदरि बहै तपा पाप कमाए ॥ हरि अंदरला पापु पंचा नो उघा करि वेखालिआ ॥

अर्थ: देखो! महापुरुषों की निंदा करने का इस तपे को ये फल मिला है कि इस की (अब तक की की हुई) सारी मेहनत निश्फल गई है। बाहर नगर के मुखी लोगों में बैठ के अपने आप को तपस्वी कहलवाता है, और अंदर बैठ के तपस्वी बुरे कर्म करता है, प्रभु ने तपस्वी का अंदर का (छुपा हुआ) पाप पंचों को प्रगट करके दिखा दिया।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh