श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 314 पउड़ी ॥ तू करता सभु किछु जाणदा जो जीआ अंदरि वरतै ॥ तू करता आपि अगणतु है सभु जगु विचि गणतै ॥ सभु कीता तेरा वरतदा सभ तेरी बणतै ॥ तू घटि घटि इकु वरतदा सचु साहिब चलतै ॥ सतिगुर नो मिले सु हरि मिले नाही किसै परतै ॥२४॥ पद्अर्थ: गणत = चिन्ता फिक्र। परतै = (इसका अर्थ ‘पर से’ करना गलत है, ‘से’ के लिए शब्द ‘ते’ चाहिए था। यहाँ एक ही शब्द है ‘परतै’ अर्थात) परता, पलट के आया, वापस आया।24। अर्थ: हे विधाता! जो कुछ जीवों के मनों में बरतता है (भाव, जो विचार चलते हैं), तू वह सब जानता है, सारा संसार ही इस गिनती (फायदे-नुकसान के विचार, चिन्ता व चिंतन) में है। हे विधाता! एक तू इससे परे है, (क्योंकि) जो कुछ हो रहा है सब तेरा ही किया हुआ हो रहा है, सारी (सृष्टि की) बनावट ही तेरी बनाई हुई है। हे हरि! तू हरेक घट में व्यापक है, तेरे करिश्में (आश्चर्यजनक) हैं। (सब जगह व्यापक होते हुए भी हरि को अपने आप कोई नहीं ढूँढ सका) जो मनुष्य सतिगुरु को मिला है, उस ने ही हरि को पाया है, (माया) के किसी (आडम्बर) ने उन्हें हरि से परताया नहीं।24। सलोकु मः ४ ॥ इहु मनूआ द्रिड़ु करि रखीऐ गुरमुखि लाईऐ चितु ॥ किउ सासि गिरासि विसारीऐ बहदिआ उठदिआ नित ॥ मरण जीवण की चिंता गई इहु जीअड़ा हरि प्रभ वसि ॥ पद्अर्थ: द्रिढ़ु = दृढ़, पक्का। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। मरण जीवण की चिंता = सारी उम्र की चिन्ता। अर्थ: (अगर) सतिगुरु के सन्मुख हो के मन (प्रभु की याद में) जोड़ें (और) इस मन को पक्का कर के रखें (ताकि ये माया की तरफ ना दौड़े), (और यदि) बैठते-उठते (काम-काज करते हुए) कभी एक दम के लिए भी (नाम) ना बिसारें, (तो) यह जीव हरि के वश में (आ जाता है। भाव अपना आप उसके हवाले कर देता है, और) इसकी सारी चिन्ता मिट जाती है। जिउ भावै तिउ रखु तू जन नानक नामु बखसि ॥१॥ अर्थ: (हे हरि!) जैसे तुझे ठीक लगे वैसे (मुझे) दास नानक को नाम की दाति बख्श (क्योंकि, नाम ही है जो मन की चिन्ता-फिक्र को मिटा सकता है)।1। मः ३ ॥ मनमुखु अहंकारी महलु न जाणै खिनु आगै खिनु पीछै ॥ सदा बुलाईऐ महलि न आवै किउ करि दरगह सीझै ॥ पद्अर्थ: खिन = छिन, पल में। सीझै = कामयाब हो। अर्थ: अहंकार में मतवाला हुआ मनमुख (सतिगुरु के) निवास स्थान (भाव, सत्संग) को नहीं पहिचानता हर वक्त अस्थिर अवस्था में रहता है (एक पल प्रसन्न तो अगले पल दुखी)। हमेशा बुलाते रहें तो भी वह सत्संग में नहीं आता (इस वास्ते) वह हरि की दरगाह में भी कैसे सही स्वीकार हो? (भाव नहीं हो सकता)! सतिगुर का महलु विरला जाणै सदा रहै कर जोड़ि ॥ आपणी क्रिपा करे हरि मेरा नानक लए बहोड़ि ॥२॥ पद्अर्थ: कर = हाथ। लए बहोड़ि = (मनमुखता से) मोड़ लेता है।2। अर्थ: सतिगुरु के ठिकाने की (भाव, सत्संग की) किसी उस विरले (दुर्लभ) को सार आती है जो सदा हाथ जोड़े रखे (भाव, मन विनम्रता में रह के याद में जुड़ा रहे)। हे नानक! जिस पर प्यारा प्रभु खुद अपनी मेहर करे, उसे (मनमुखता की ओर से) मोड़ लेता है।2। पउड़ी ॥ सा सेवा कीती सफल है जितु सतिगुर का मनु मंने ॥ जा सतिगुर का मनु मंनिआ ता पाप कसमल भंने ॥ उपदेसु जि दिता सतिगुरू सो सुणिआ सिखी कंने ॥ जिन सतिगुर का भाणा मंनिआ तिन चड़ी चवगणि वंने ॥ इह चाल निराली गुरमुखी गुर दीखिआ सुणि मनु भिंने ॥२५॥ पद्अर्थ: कसंमल = पाप। भंने = नाश हो जाते हैं। कंनी सुणिआ = ध्यान से सुना। वंन = रंगत। दीखिआ = शिक्षा।25। अर्थ: जिस सेवा से सतिगुरु का मन (सिख पर) पतीज जाए, वही की हुई सेवा फायदेमंद है (क्योंकि जब) सतिगुरु का मन पतीजे, तब ही विकार व पाप दूर होते हैं। (पतीज के) सतिगुरु जो उपदेश सिखों को देता है वह ध्यान से उसे सुनते हैं, (फिर) जो सिख सतिगुरु की रजा और सिदक रहते हैं, उनको (पहले से) चौगुनी रंगत चढ़ जाती है। सतिगुरु की ही शिक्षा सुन के मन (हरि के प्यार में) भीगता है - सतिगुरु के सन्मुख रहने वाला ये रास्ता (संसार के अन्य मतों से) निराला है।25। सलोकु मः ३ ॥ जिनि गुरु गोपिआ आपणा तिसु ठउर न ठाउ ॥ हलतु पलतु दोवै गए दरगह नाही थाउ ॥ अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने सतिगुरु की निंदा की है, उसे ना जगह ना ठिकाना। उसके ये लोक और परलोक दानों गवाए जाते हैं, हरि की दरगाह में (भी) जगह नहीं है मिलती। ओह वेला हथि न आवई फिरि सतिगुर लगहि पाइ ॥ सतिगुर की गणतै घुसीऐ दुखे दुखि विहाइ ॥ पद्अर्थ: गणत = निंदा। अर्थ: (ऐसे लोगों को) फिर वह मौका नहीं मिलता कि सतिगुरु के चरणों में लग सकें, (क्योंकि) सतिगुरु की निंदा करने में (एक बार जो) गलतान हो जाएं तो बिलकुल दुखों में ही उम्र बीतती है। सतिगुरु पुरखु निरवैरु है आपे लए जिसु लाइ ॥ नानक दरसनु जिना वेखालिओनु तिना दरगह लए छडाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जिसु = उस (निंदक) को। वेखालिओनु = दिखाया उस (प्रभु) ने।1। अर्थ: (पर) मर्द (भाव, शूरवीर) सतिगुरु (ऐसा) निर्वैर है कि उस (निंदक) को भी खुद ही (भाव, अपने आप मेहर करके चरणों से) लगा लेता है, और हे नानक! जिन्हें हरि, गुरु के दर्शन करवाता है, उन्हें दरगाह में छुड़ा लेता है।1। मः ३ ॥ मनमुखु अगिआनु दुरमति अहंकारी ॥ अंतरि क्रोधु जूऐ मति हारी ॥ पद्अर्थ: अगिआनु = विचारहीन। अर्थ: मनमुख विचार-हीन, खोटी बुद्धि वाला और अहंकारी होता है, उसके मन में क्रोध है और वह (विषियों के) जूए में अक्ल गवा लेता हैं। कूड़ु कुसतु ओहु पाप कमावै ॥ किआ ओहु सुणै किआ आखि सुणावै ॥ अर्थ: वह (सदा) झूठ-फरेब और पाप के काम करता है (इस वास्ते) वह सुने क्या और (किसी को) कह के सुनाए क्या? (भाव, झूठ फरेब वाले काम करने से उसका मन तो पापी हुआ ही पड़ा है, ना वह प्रभु की बंदगी की बात सुनता है और ना ही किसी को सुनाता है)। अंना बोला खुइ उझड़ि पाइ ॥ मनमुखु अंधा आवै जाइ ॥ पद्अर्थ: खुइ = टूट के। उझड़ि = गलत रास्ते। अर्थ: (सतिगुरु के दर्शनों से) अंधा (और उपदेश सुनने से) बहरा हो के अंधा मनमुख गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है और नित्य पैदा होता मरता है। बिनु सतिगुर भेटे थाइ न पाइ ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमाइ ॥२॥ अर्थ: सतिगुरु को मिले बिना (कोई दरगाह में) स्वीकार नहीं होता, (क्योंकि) हे नानक! शुरू से (किए कर्मों के अनुसार जो संस्कार उसके मन में) लिखे गए हैं (उनके अनुसार अब भी बुरे काम ही) किए जाता है।2। पउड़ी ॥ जिन के चित कठोर हहि से बहहि न सतिगुर पासि ॥ ओथै सचु वरतदा कूड़िआरा चित उदासि ॥ ओइ वलु छलु करि झति कढदे फिरि जाइ बहहि कूड़िआरा पासि ॥ विचि सचे कूड़ु न गडई मनि वेखहु को निरजासि ॥ कूड़िआर कूड़िआरी जाइ रले सचिआर सिख बैठे सतिगुर पासि ॥२६॥ पद्अर्थ: चित = चिक्त को। उदासि = उदासी। झति कढदे = समय गुजारते हैं। गडई = मिलता, मिश्रण। निरजास = निखेड़ा करके।26। अर्थ: जिस मनुष्यों के मन कठोर (भाव, निर्दयी) होते हैं, वे सतिगुरु के पास नहीं बैठ सकते। वहाँ (सतिगुरु की संगत में तो) सत्य की बातें होती हैं, झूठ के व्यापारी के मन को उदासी छाई रहती है। (सतिगुरु की संगति में) वे छल-फरेब करके समय गुजारते हैं, (वहाँ से उठ के) फिर झूठों के पास ही जा बैठते हैं। कोई पक्ष मन में निर्णय कर के देख लो, सच्चे (मनुष्य के हृदय में) झूठ नहीं मिल सकता (अर्थात अपना गहरा प्रभाव नहीं डाल सकता)। झूठे झूठों में ही जा मिलते हैं और सच्चे सिख सतिगुरु के पास ही जा बैठते हैं।26। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |