श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 313 सलोकु मः ४ ॥ किआ सवणा किआ जागणा गुरमुखि ते परवाणु ॥ जिना सासि गिरासि न विसरै से पूरे पुरख परधान ॥ अर्थ: सोना क्या और जागना क्या, जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हैं उनके लिए ये दोनों हालात एक जैसे हैं - कि उन्हें प्रभु एक दम के लिए भी नहीं बिसरता और वह मनुष्य (सर्व-गुण) संपूर्ण व उत्तम होते हैं (भाव, सोए हुए भी नाम में जुड़े रहते हैं और जागते हुए भी। लोगों को वे सोए हुए या जागते दिखते हैं, वे सदा नाम में लीन रहते हैं)। करमी सतिगुरु पाईऐ अनदिनु लगै धिआनु ॥ तिन की संगति मिलि रहा दरगह पाई मानु ॥ अर्थ: (प्रभु की) मेहर से सतिगुरु मिलता है और हर वक्त (सोये हुए अथवा जागते हुए मेहर से ही) जीव का ध्यान (नाम में जुड़ा रहता है)। (चिक्त चाहता है कि) मैं भी उनकी संगति करूँ और प्रभु की हजूरी में आदर पाऊँ। सउदे वाहु वाहु उचरहि उठदे भी वाहु करेनि ॥ नानक ते मुख उजले जि नित उठि समालेनि ॥१॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = महिमा। उठि = उठ के, सुचेत हो के।1। अर्थ: (सतिगुरु के सन्मुख होए हुए वे भाग्यशाली जीव) सोने के समय भी महिमा करते हैं और उठने के वक्त भी। हे नानक! वह मुख उज्जवल होते हैं, जो सदा सुचेत रहके नाम चेते रखते हैं।1। मः ४ ॥ सतिगुरु सेवीऐ आपणा पाईऐ नामु अपारु ॥ भउजलि डुबदिआ कढि लए हरि दाति करे दातारु ॥ अर्थ: अपने सतिगुरु की बताई हुई कार करें, तो ना खत्म होने वाला नाम (भाव नाम का खजाना) मिल जाता है, दातें देने वाला हरि (नाम की यह) दात बख्शता है और (नाम) संसार सागर में डूबते को निकाल लेता है। धंनु धंनु से साह है जि नामि करहि वापारु ॥ वणजारे सिख आवदे सबदि लघावणहारु ॥ अर्थ: जो शाह नाम (की राशि) से व्यापार करते हैं वह भाग्यशाली हैं, (क्योंकि इस प्रकार का) व्यापार करने वाले जो सिख (सतिगुरु के पास) आते हैं, (सतिगुरु उनको अपने) शब्द द्वारा (भवजल से) पार उतार देता है। जन नानक जिन कउ क्रिपा भई तिन सेविआ सिरजणहारु ॥२॥ अर्थ: (पर) हे दास नानक! विधाता प्रभु की बंदगी वही मनुष्य करते हैं, जिस पर प्रभु स्वयं मेहर करता है।2। पउड़ी ॥ सचु सचे के जन भगत हहि सचु सचा जिनी अराधिआ ॥ जिन गुरमुखि खोजि ढंढोलिआ तिन अंदरहु ही सचु लाधिआ ॥ सचु साहिबु सचु जिनी सेविआ कालु कंटकु मारि तिनी साधिआ ॥ सचु सचा सभ दू वडा है सचु सेवनि से सचि रलाधिआ ॥ सचु सचे नो साबासि है सचु सचा सेवि फलाधिआ ॥२२॥ पद्अर्थ: कंटकु = काँटा। सेवनि = स्मरण करते हैं।22। अर्थ: जो मनुष्य सच्चे हरि का सचमुच भजन करते हैं, वह ही सच्चे भक्त (कहलाते) हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो कर खोज के ढूँढते हैं (भाव, यत्न से तलाशते हैं) वे अपने हृदय में ही प्रभु को पा लेते हैं। जिस मनुष्यों ने सच्चा सांई सचमुच स्मरण किया है उन्होंने दुखदाई काल को मार के काबू कर लिया है, (भाव, उन्हे काल काँटे के समान दुखद प्रतीत नहीं होता)। जो सच्चा हरि सबसे बड़ा है, उसकी बंदगी जो मनुष्य करते हैं, वह उस में लीन हो जाते हैं। धन्य है सच्चा प्रभु, धन्य है सच्चा प्रभु (इस तरह) जो मनुष्य सचमुच सच्चे की आराधना करते हैं, उन्हें उत्तम फल प्राप्त होता है (भाव, वे मानव जनम को सफल कर लेते हैं)।22। सलोक मः ४ ॥ मनमुखु प्राणी मुगधु है नामहीण भरमाइ ॥ बिनु गुर मनूआ ना टिकै फिरि फिरि जूनी पाइ ॥ पद्अर्थ: मुगधु = मूर्ख। मनूआ = होछा मन। अर्थ: मनमुख मनुष्य मूर्ख है, नाम से टूटा हुआ भटकता फिरता है। सतिगुरु के बिना उसका होछा मन (किसी आसरे पर) टिक नहीं सकता (इस वास्ते) बार-बार जूनियों में पड़ता है। हरि प्रभु आपि दइआल होहि तां सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ जन नानक नामु सलाहि तू जनम मरण दुखु जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जनम मरण दुखु = जनम से मरने तक का दुख, सारी उम्र का दुख।1। अर्थ: यदि हरि प्रभु खुद मेहर करे तो सतिगुरु आ के मिलता है (और नाम के आसरे टिका के भटकने से बचा लेता है)। (इस वास्ते) हे दास नानक! तू भी नाम की महिमा कर (ता कि) तेरा सारी उम्र का दुख खत्म हो जाए।1। मः ४ ॥ गुरु सालाही आपणा बहु बिधि रंगि सुभाइ ॥ सतिगुर सेती मनु रता रखिआ बणत बणाइ ॥ पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरह। रंगि = प्यार में। सुभाइ = स्वाभाव में। सेती = साथ। अर्थ: (मन चाहता है कि) कई तरह (भाव कई तरह की उमंगों के साथ भाव-विभोर हो के) प्यारे सतिगुरु के प्यार में और स्वभाव में (लीन हो के) उसकी महिमा करूँ। मेरा मन प्यारे सतिगुरु के साथ रंगा गया है, (गुरु ने मेरे मन को) सवार बना दिया है। जिहवा सालाहि न रजई हरि प्रीतम चितु लाइ ॥ नानक नावै की मनि भुख है मनु त्रिपतै हरि रसु खाइ ॥२॥ अर्थ: मेरी जीभ महिमा करके तृप्त नहीं होती और मन प्रीतम प्रभु के साथ (नेह) लगा के नहीं भरता। (भरे भी कैसे?) हे नानक! मन में तो नाम की भूख है, मन तभी तृप्त हो अगर प्रभु के नाम का स्वाद चख ले।2। पउड़ी ॥ सचु सचा कुदरति जाणीऐ दिनु राती जिनि बणाईआ ॥ सो सचु सलाही सदा सदा सचु सचे कीआ वडिआईआ ॥ सालाही सचु सलाह सचु सचु कीमति किनै न पाईआ ॥ जा मिलिआ पूरा सतिगुरू ता हाजरु नदरी आईआ ॥ सचु गुरमुखि जिनी सलाहिआ तिना भुखा सभि गवाईआ ॥२३॥ पद्अर्थ: हाजरु = प्रत्यक्ष। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।23। अर्थ: जिस प्रभु ने दिन और रात (जैसे चमत्कार) बनाए हैं। वह सच्चा प्रभु (इस) कुदरति से ही सचमुच (बहुत बड़ी महिमा वाला) प्रतीत होता है; (मेरा मन चाहता है कि) मैं सदा उस सच्चे प्रभु की महिमा करूँ और महिमा कहूँ। सराहनीय प्रभु सच्चा है, उसकी महिमा भी स्थिर रहने वाली है, पर किसी ने उसकी कीमत नहीं पाई, जब पूरन सतिगुरु मिलता है तो वह महानताएं प्रत्यक्ष दिख पड़ती हैं। जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हो के (भाव, स्वै भाव गवा के) सच्चे प्रभु की बड़ाई करते हैं, उनकी सारी भूख दूर हो जाती हैं।23। सलोक मः ४ ॥ मै मनु तनु खोजि खोजेदिआ सो प्रभु लधा लोड़ि ॥ विसटु गुरू मै पाइआ जिनि हरि प्रभु दिता जोड़ि ॥१॥ पद्अर्थ: विसटु = विष्ट, बिचौला। जिनि = जिस गुरु ने।1। अर्थ: मन और शरीर को खोजते-खोजते मैंने (अंत में) प्रभु को ढूँढ ही लिया (पर मैं अपने बल पर नहीं ढूँढ सकता था)। मुझे सतिगुरु वकील मिल गया, जिसने हरि प्रभु मिला दिया।1। मः ३ ॥ माइआधारी अति अंना बोला ॥ सबदु न सुणई बहु रोल घचोला ॥ पद्अर्थ: रोल घचोला = रोला रप्पा। अर्थ: जिस मनुष्य ने (हृदय में) माया (का प्यार) धारण किया हुआ है वह (सतिगुरु की ओर से) अंधा और बहरा है (भाव, ना सतिगुरु के दर्शन करके पतीज सकता है और ना ही उपदेश सुन के)। वह मनुष्य सतिगुरु के शब्दों की ओर ध्यान ही नहीं देता, (पर) (माया का) बेमतलब खपाने वाला (भाव, सिर दर्द कराने वाला) शोर बहुत (पसंद करता है)। गुरमुखि जापै सबदि लिव लाइ ॥ हरि नामु सुणि मंने हरि नामि समाइ ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि जापै = गुरमुख की पहिचान ये है कि। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख होता है, (वह ऐसे) दिखाई देता है (कि) वह गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ता है, हरि के नाम को सुन के उस पर सिदक लाता है और हरि के नाम में (ही) लीन हो जाता है। जो तिसु भावै सु करे कराइआ ॥ नानक वजदा जंतु वजाइआ ॥२॥ अर्थ: (पर मायाधारी अथवा गुरमुखि के क्या हाथ?) जो कुछ उस प्रभु को ठीक लगता है (उसी के अनुसार) ये जीव करवाया काम करता है। हे नानक! जीव (बाजे की तरह) बजाए बजता है (भाव, बुलाने से बोलता है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |