श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 326 जोगी जती तपी ब्रहमचारी ॥ कबहू राजा छत्रपति कबहू भेखारी ॥२॥ अर्थ: कभी हम जोगी बने, कभी जती, कभी तपस्वी, कभी ब्रहमचारी, कभी छत्रपति राजे बने और कभी भिखारी।2। साकत मरहि संत सभि जीवहि ॥ राम रसाइनु रसना पीवहि ॥३॥ पद्अर्थ: साकत = (ईश्वर से) टूटे हुए मनुष्य। मरहि = मरते रहते हैं, जूनियों में पड़ते रहते हैं। जीवहि = जिंदा हैं। रसाइनु = (रस आइनु। अइनु = अयन, घर) रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ नाम रस। रसना = जीभ (से)।3। अर्थ: जो मनुष्य ईश्वर से टूटे रहते हैं वह सदा (इसी तरह) कई जूनियों में पड़े रहते हैं। पर संत जन सदा जीते हैं (भाव, जनम मरण के चक्र में नहीं पड़ते, क्योंकि) वह जीभ से प्रभु के नाम का श्रेष्ठ रस पीते रहते हैं।3। कहु कबीर प्रभ किरपा कीजै ॥ हारि परे अब पूरा दीजै ॥४॥१३॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हारि = हार के, जूनियों में पड़ पड़ के थक के। परे = गिरे हैं (तेरे दर पे)। पूरा = ज्ञान।4।13। अर्थ: (सो) हे कबीर! (परमात्मा के आगे इस तरह) अरदास कर- हे प्रभु! हम थके-टूट के (तेरे दर पर) आ गिरे हैं, मेहर करके अब अपना ज्ञान बख्श।4।13। शब्द का भाव: प्रभु से विछुड़ के जीव को कई जन्मों में भटकना पड़ता है। तभी निजात मिलती है जब अंदर से अहंकार को दूर करके नाम जपें।13। गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५ ॥ ऐसो अचरजु देखिओ कबीर ॥ दधि कै भोलै बिरोलै नीरु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा चमत्कार, अजीब तमाशा। दधि = दही। भोलै = भुलेखे। बिरोलै = मथ रहा है, विरोल रहा है। नीरु = पाणी।1। रहाउ। अर्थ: हे कबीर! मैंने एक अजीब तमाशा देखा है कि (जीव) दही के भुलेखे पानी मथ रहा है।1। रहाउ। हरी अंगूरी गदहा चरै ॥ नित उठि हासै हीगै मरै ॥१॥ पद्अर्थ: गदहा = गधा, मूर्ख मन। हरी अंगूरी = विकारों की ताजा अंगूरी, मन भाते विकार। चरै = चुगता है, चरता है। उठि = उठ के। हासै = हसता है। मरै = (पैदा होता) मरता है।1। अर्थ: मूर्ख जीव मन-भाते विकारों में खचित है, इसी तरह सदा हसता और (गधे की तरह) हींगता रहता है (आखिर) जनम-मरन के चक्कर में पड़ जाता है।1। माता भैसा अमुहा जाइ ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: माता = मस्त हुआ। भैसा = सांड। अंमुहा = अमोड़। अंमुहा जाइ = अमोड़पना करता है, दकियानूसी। रसातलि = नर्क में। पाइ = पड़ता है।2। अर्थ: मस्त सांड जैसा मन दकियानूसपना करता है, कूदता है (भाव, अहंकार करता है) विषियों की खेती चुगता रहता है, और नर्क में पड़ जाता है।2। कहु कबीर परगटु भई खेड ॥ लेले कउ चूघै नित भेड ॥३॥ पद्अर्थ: परगटु भई = समझ में आ गई है। लेला = (भाव) मन। भेड = (भेड) मति, बुद्धि।3। अर्थ: हे कबीर! कह: (मुझे तो) ये अजीब तमाशा समझ में आ गया है (तमाशा यह है कि) संसारी जीवों की बुद्धि मन के पीछे लगी फिरती है।3। राम रमत मति परगटी आई ॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई ॥४॥१॥१४॥ नोट: इस शब्द का शीर्षक बताता है कि ये अकेले कबीर जी का नहीं है, इसमें गुरु अरजन साहिब जी का भी हिस्सा है और कुदरती तौर पर वह आखिरी बंद ही हो सकता है। तीसरे बंद (तुक) में कबीर जी का नाम आता है और यहीं वे अपनी रचना समाप्त कर देते हैं। शुरू में लिखते हैं कि जगत में एक अजीब तमाशा हो रहा है, जीव, दही के भुलेखे पानी बिलो (रिड़क) रहा है (भाव, व्यर्थ और उलटा काम कर रहा है जिसका कोई लाभ नहीं)। लाभ वाला काम तो ये है जैसे सिख रोज अरदास करता है: ‘मन नीवां मति उच्ची, मति का राखा वाहिगुरू’, भाव, वाहिगुरू के स्मरण में जुड़ी रहे बुद्धि, और ऐसी बुद्धि के अधीन रहे मन। पर कबीर जी कहते हैं कि जगत में उल्टी खेल हो रही है। बुद्धि मन के पीछे भाग रही है, बुद्धि विकारी मन के पीछे लगी हुई है। लोगों को इस तमाशे की समझ नहीं आ रही, पर कबीर ने ये खेल समझ ली है। कबीर जी ने ये जिक्र नहीं किया कि इस तमाशे की समझ कैसे आई है तथा और लोगों को भी कैसे आ सकती है। इस घूँडी को खोलने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने आखिरी पदा नं: 4 अपनी तरफ से लिख के मिला दिया है। अंक 4 के आगे अंक नं: 1 भी इस शब्द का अनोखापन बताने के वास्ते ही है। इन 35 शबदों में सिर्फ एक शब्द है जिसमें यह अनोखी बात आई है। इस शब्द के इस अनोखे शीर्षक से एक बात और भी साफ हो जाती है कि भक्तों की वाणी गुरु अरजन देव जी ने खुद ‘बीड़’ में दर्ज करवाई थी। पद्अर्थ: राम रमत = प्रभु को स्मरण करते हुए। मति = बुद्धि। परगटी आई = जाग पड़ी है। गुरि = गुरु ने।4। अर्थ: (ये समझ किस ने दी है?) हे कबीर कह: सतिगुरु ने ये समझ बख्शी है, (जिसकी इनायत से) प्रभु का स्मरण करते-करते (मेरी) बुद्धि जाग पड़ी है (और मन के पीछे चलने से हट गई है)।4।1।14। शब्द का भाव: जब तक मनुष्य गुरु से बेमुख है और नाम नहीं जपता, तब तक इसकी अक्ल भ्रष्टी रहती है, विकारी मन के पीछे लगी फिरती है। गुरु की मेहर से नाम जपें तो बुद्धि मन के पीछे चलने से हट जाती है।14। गउड़ी कबीर जी पंचपदे२ ॥ जिउ जल छोडि बाहरि भइओ मीना ॥ पूरब जनम हउ तप का हीना ॥१॥ पद्अर्थ: मीना = मछली। पूरब जनम = पिछले जन्मों का। हउ = मैं। हीना = विहीन।1। अर्थ: (मुझे लोग कह रहे हैं कि) जैसे मछली पानी को छोड़ के बाहर निकल आती है (तो दुखी हो के मर जाती है, वैसे ही) मैंने भी पिछले जन्मों में तप नहीं किया (तभी मुक्ति देने वाली काशी को छोड़ के मगहर आ गया हूँ)।1। अब कहु राम कवन गति मोरी ॥ तजी ले बनारस मति भई थोरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कवन = कैसी, कौन सी? गति = हालत, हाल। मोरी = मेरी। तजीले = मैंने छोड़ दी है। बनारसि = काशी नगरी बनारस। थोरी = थोड़ी।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! अब मुझे बता, मेरा क्या हाल होगा? मैं काशी छोड़ आया हूँ (क्या ये ठीक है कि) मेरी मति मारी गई है?।1। रहाउ। सगल जनमु सिव पुरी गवाइआ ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ ॥२॥ पद्अर्थ: सगल जनमु = सारी उम्र। शिव पुरी = शिव की नगरी काशी में। गवाइआ = व्यर्थ गुजार दिया। मरती बार = मरने के समय। उठि = उठ के, छोड़ के।2। अर्थ: (हे राम! मुझे लोग कहते हैं:) ‘तूने सारी उम्र काशी में व्यर्थ ही गुजार दी (क्योंकि अब जब मुक्ति मिलने का समय आया तो) मरने के समय (काशी) छोड़ के मगहर चला आया है’।2। बहुतु बरस तपु कीआ कासी ॥ मरनु भइआ मगहर की बासी ॥३॥ पद्अर्थ: बहुतु बरस = कई सालों तक। कासी = कांशी में। मरनु = मौत। बासी = वास, बसेवा।3। अर्थ: (हे प्रभु! लोग कहते हैं-) तूने काशी में रह कर कई साल तप किया (पर, उस तप का क्या लाभ?) जब मरने का वक्त आया तो मगहर आकर बस गया।3। कासी मगहर सम बीचारी ॥ ओछी भगति कैसे उतरसि पारी ॥४॥ पद्अर्थ: सम = एक जैसे। बीचारी = विचारे हैं, समझे हैं। ओछी = होछी, अधूरी। कैसे = किस तरह? उतरसि = तू उतरेगा। पारी = पार।4। अर्थ: (हे राम! लोक ताना मारते हैं:) तूने काशी और मगहर को एक समान समझ लिया है, इस होछी भक्ति से (जो तू कर रहा है) कैसे संसार-समुंदर से पार गुजरेगा?।4। कहु गुर गज सिव सभु को जानै ॥ मुआ कबीरु रमत स्री रामै ॥५॥१५॥ पद्अर्थ: गुर गजि = गणेश! सभु को = हरेक मनुष्य। जानै = पहचानता है (भाव, समझता है कि यह गणेश और शिव ही मुक्ति देने वाले और छीनने वाले हैं)। मुआ कबीरु = कबीर मर गया है स्वै भाव से, कबीर की मैं मेरी मिट गई है। रमत = स्मरण कर-कर के।5।15। अर्थ: (हे कबीर!) कह: ‘हरेक मनुष्य गणेश और शिव को ही पहचानता है (भाव, हरेक मनुष्य यही समझ रहा है कि शिव मुक्ति दाता है और गणेश की नगरी मुक्ति छीनने वाली है); पर कबीर तो प्रभु का स्मरण कर करके स्वै भाव ही मिटा बैठा है (कबीर को ये पता करने की जरूरत ही नहीं रही कि उसकी क्या गति होगी)।5।15। शब्द का भाव: किसी खास देश अथवा नगरी में मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्त वही है जो प्रभु का भजन करकेअपने अंदर से ‘मैं मेरी’ मिटा चुका है।15। नोट: आम लोगों में यह वहिम पैदा किया हुआ है कि बनारस आदि तीर्थों पर शरीर त्यागने से मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। कबीर जी लोगों का यह भ्रम दूर करने के लिए अपनी आखिरी उम्र में बनारस छोड़ आए और मगहर आ बसे। मगहर के बारे में ये वहिम है कि ये धरती श्रापित है। जो यहां मरता है, वह गधे की जोनि में पड़ता है। मगहर गोरखपुर से 15मील पर है। गउड़ी कबीर जी ॥ चोआ चंदन मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥१॥ पद्अर्थ: चोआ = इत्र। मरदन = मालिश। अंगा = (शरीर के) अंगों को। जलै = जल जाता है। काठ कै संगा = लकड़ियों के साथ।1। अर्थ: (जिस शरीर के) अंगों को इत्र और चंदन मलते हैं, वह शरीर (आखिर को) लकड़ियों में डाल कर जलाया जाता है।1। इसु तन धन की कवन बडाई ॥ धरनि परै उरवारि न जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कवन बडाई = कौन सा बड़प्पन है? क्या मान करना हुआ? धरनि = धरती पर। परै = पड़ा रह जाता है। उरवारि = इसी तरफ ही, यहीं। न जाई = (साथ) नहीं जाता।1। रहाउ। अर्थ: इस शरीर और धन पर क्या गुमान करना? ये यहाँ ही धरती पर पड़े रह जाते हैं (जीव के साथ) नहीं जाते।1। रहाउ। राति जि सोवहि दिन करहि काम ॥ इकु खिनु लेहि न हरि को नाम ॥२॥ पद्अर्थ: दिन = दिन में सारा दिन। काम = काम काज। करहि = करते हैं। जि = जो मनुष्य। इकु खिनु = रक्ती भर भी, पल मात्र भी। न लेहि = नहीं लेते।2। अर्थ: जो मनुष्य रात को सोए रहते हैं (भाव, रात सो के गुजार देते हैं), और दिन में (दुनियावी) काम-धंधे करते रहते हैं, पर एक पल मात्र भी प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते।2। हाथि त डोर मुखि खाइओ त्मबोर ॥ मरती बार कसि बाधिओ चोर ॥३॥ पद्अर्थ: हाथि = (उनके) हाथ मे। त = तो। डोर = (बाजों की) डोरें। मुखि = मुंह में। तंबोर = तंबोल, पान। कसि = कस के, जकड़ के। चोर = चोरों की तरह।3। अर्थ: जो मनुष्य मुंह में तो पान चबा रहे हैं, और जिनके हाथ में (बाजों की) डोरियां हैं (भाव, जो शिकार आदि शुगल में उलझे रहते हैं), वे मरने के समय चोरों की तरह कस के बाँधे जाते हैं।3। गुरमति रसि रसि हरि गुन गावै ॥ रामै राम रमत सुखु पावै ॥४॥ पद्अर्थ: गुरमति = गुरु की मति ले के। रसि रसि = स्वाद ले ले के, बड़े प्रेम से। रामै राम = केवल राम को। रमत = स्मरण कर-कर के।4। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की मति ले के बड़े प्रेम से प्रभु के गुण गाता है, वह केवल प्रभु को स्मरण कर-कर के सुख पाते हैं।4। किरपा करि कै नामु द्रिड़ाई ॥ हरि हरि बासु सुगंध बसाई ॥५॥ पद्अर्थ: द्रिड़ाई = (हृदय में) दृढ़ करवाता है, जपाता है। हरि हरि सुगंध = हरि के नाम की खुशबू। बसाई = बसाता है।5। अर्थ: प्रभु अपनी मेहर करके जिसके हृदय में अपना नाम बसाता है, उसमें वह ‘नाम’ की खुशबू भी बसा देता है।5। कहत कबीर चेति रे अंधा ॥ सति रामु झूठा सभु धंधा ॥६॥१६॥ पद्अर्थ: रे अंधा = हे अंधे मनुष्य! चेति = याद कर। सति = सदा अटल रहने वाला, स्थिर ना रहने वाला।6।16। अर्थ: कबीर कहता है: हे अज्ञानी जीव! प्रभु को स्मरण कर; प्रभु ही सदा स्थिर रहने वाला है, बाकी सारा जंजाल नाश हो जाने वाला है।6।16। शब्द का भाव: ये शरीर, ये धन-पदार्थ, ये राज-रंग -कोई भी अंत समय मनुष्य के काम नहीं आ सकते। बल्कि, ज्यों-ज्यों जीव इन पदार्थों के मोह में उलझते हैं, त्यों-त्यों आखिर के समय ज्यादा दुखी होते हैं। प्रभु का एक ‘नाम’ ही सदा सहाई है। जिस पर प्रभु मेहर करे, उसे ‘नाम’ गुरु-दर से मिलता है। नोट: दुनिया की असारता के साधारण बयान में, मरे मनुष्य के सिर्फ जलाए जाने का जिक्र साबित करता है कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्में-पले थे। ‘बोली’ भी सारी हिन्दुओं वाली प्रयोग करते हैं। गउड़ी कबीर जी तिपदे चारतुके२ ॥ जम ते उलटि भए है राम ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिसराम ॥ बैरी उलटि भए है मीता ॥ साकत उलटि सुजन भए चीता ॥१॥ पद्अर्थ: उलटि = पलट के, बदल के। बिनसे = नाश हो गए हैं, दूर हो गये हैं। बिसराम = डेरा, ठिकाना। भए हैं = हो गए हैं, बन गए हैं। मीता = मित्र, सज्जन। साकत = ईश्वर से टूटे हुए जीव। सुजन = भले, गुरमुख। चीता = अंतर आतमे।1। अर्थ: जमों से बदल के प्रभु (का रूप) हो गए हैं (भाव, पहले जो मुझे जम-रूप दिखते थे, अब वे प्रभु का रूप दिखाई देते हैं), मेरे दुख दूर हो गए हैं और सुखों ने (मेरे अंदर) डेरा आ जमाया है। जो पहले वैरी थे, अब वे सज्जन बन गए हैं (भाव, जो इंद्रियां पहले विकारों की तरफ जा के वैरियों वाला काम कर रही थीं, अब वही भली ओर ले जा रही हैं); पहले ये ईश्वर से टूटे हुए थे, अब उलट के अंतर-आतमे गुरमुख बन गए हैं।1। अब मोहि सरब कुसल करि मानिआ ॥ सांति भई जब गोबिदु जानिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। कुसल = सुख शांति, आनंद। जानिआ = जान लिया।1। रहाउ। अर्थ: अब मुझे सारे सुख आनंद प्रतीत हो रहे हैं; जब का मैंने प्रभु को पहचान लिया है (प्रभु से सांझ डाल ली है) तब से ही (मेरे अंदर) ठंड पड़ गई हैं1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |