श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 327 तन महि होती कोटि उपाधि ॥ उलटि भई सुख सहजि समाधि ॥ आपु पछानै आपै आप ॥ रोगु न बिआपै तीनौ ताप ॥२॥ पद्अर्थ: तन महि = शरीर में। होती = होती थीं। कोटि उपाधि = करोड़ों बखेड़े (विकारों के)। उलटि = पलट के। भई = हो गए हैं। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में, प्रभु के नाम रस में। समाधि = समाधि लगाए रखने के कारण, जुड़े रहने के कारण। आपु = अपने आप को। आपै आप = प्रभु ही प्रभु (दिखाई दे रहा है)। न बिआपै = व्याप नहीं सकता, अपना दबाव नहीं डाल सकता।2। अर्थ: (मेरे शरीर में विकारों के) करोड़ों बखेड़े थे; प्रभु के नाम-रस में जुड़े रहने के कारण वे सारे पलट के सुख बन गए हैं। (मेरे मन ने) अपने असल स्वरूप को पहचान लिया है (अब इसे) प्रभु ही प्रभु दिखाई दे रहा है, रोग और तीनों ताप (अब) छू नहीं सकते।2। अब मनु उलटि सनातनु हूआ ॥ तब जानिआ जब जीवत मूआ ॥ कहु कबीर सुखि सहजि समावउ ॥ आपि न डरउ न अवर डरावउ ॥३॥१७॥ पद्अर्थ: उलटि = अपने पहले वाले स्वभाव से हट के, विकारों वाली वादी छोड़ के। सनातनु = पुराना, पुरातन, आदि, जो यह पहले पहल था; (अपने असल रूप में, प्रभु का रूप)। जानिआ = जाना, समझ पड़ी। जीवत मूआ = जीता ही मर गया, दुनिया में बसता हुआ भी दुनिया से निराश हो गया हूँ, लीन हो गया हूँ, मस्त हूँ। डरउ = डरता हूँ। अवर = और लोगों को।3।17। अर्थ: अब मेरा मन (अपने पहले विकारों वाले स्वभाव से) हट के प्रभु का रूप हो गया है; (इस बात की) तब समझ आई है जब (यह मन) माया में विचरता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा हो गया है। हे कबीर! (अब बेशक) कह: मैं आत्मिक आनंद में अडोल अवस्था में जुड़ा हुआ हूँ; ना मैं खुद किसी और से डरता हूँ और ना ही और लोगों को डराता हूँ।3।17। शब्द का भाव: जब नाम स्मरण कर-कर के प्रभु के चरणों में जीव का चिक्त जुड़ जाए, तब ये सुखी हो जाता है, मन माया के विकारों की तरफ से हट जाता है, और माया में बरतता (रहता) हुआ भी माया के मोह में नहीं फंसता।17। नोट: इस शब्द के शीर्षक के शब्द ‘तुके’ के नीचे एक छोटा सा अंक ‘2’ है। ये दो शब्द (नं: 17 और18) ऐसे हैं, जिनके हरेक ‘बंद’ में चार-चार तुकें हैं। गउड़ी कबीर जी ॥ पिंडि मूऐ जीउ किह घरि जाता ॥ सबदि अतीति अनाहदि राता ॥ जिनि रामु जानिआ तिनहि पछानिआ ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ ॥१॥ पद्अर्थ: पिंड = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। पिंडि मूऐ = शरीर के मरने से, शरीर के मोह के मरने से, देह अध्यास दूर होने से। जीउ = आत्मा। किह घरि = किस घर में, कहाँ? सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा, शब्द की इनायत से। अतीति = अतीत में, उस प्रभु में जो अतीत है जो माया के बंधनों से परे है। अनाहदि = अनाहद में, बेअंत प्रभु में। राता = रता रहता है, मस्त रहता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनहि = उसी (मनुष्य) ने। गूँगे मनु = गूँगे का मन।1। अर्थ: (प्रश्न:) शरीर का मोह दूर होने से आत्मा कहाँ टिकती है? (भाव, पहले तो जीव अपने शरीर के मोह के कारण माया में मस्त रहता है, जब ये मोह दूर हो जाए, तब जीव की तवज्जो कहाँ जुड़ी रहती है?) (उक्तर:) (तब आत्मा) सतिगुरु के शब्द की इनायत से उस प्रभु में जुड़ा रहता है जो माया के बंधनों से परे है और बेअंत है। (पर) जिस मनुष्य ने प्रभु को (अपने अंदर) जाना है उसने ही उसको पहचाना है, जैसे गूँगे का मन शक्कर में पतीजता है (कोई और उस स्वाद को नहीं समझता, किसी और को वह समझा भी नहीं सकता)।1। ऐसा गिआनु कथै बनवारी ॥ मन रे पवन द्रिड़ सुखमन नारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कथै = बता सकता है। बनवारी = जगत-रूप बन का मालिक प्रभु (खुद ही अपनी कृपा करके)। मन रे = हे मन! पवन द्रिढ़ु = श्वासों की संभाल (भाव,श्वासों को खाली ना जाने दे) स्वास स्वास नाम जप। सुखमन नारी = (यही है) सुखमना नाड़ी (का अभ्यास) (प्राणायाम का अभ्यास करने वाले जोगी तो बाई नासिका के रास्ते साँस ऊपर खींच के दोनों भरवटों के बीच माथे में सुखमन नाड़ी में टिकाते हैं और, फिर दाई नासिका के रास्ते उतार देते हैं कबीर जी इस साधन की जगह गुरु की शरण पड़ कर स्वास-स्वास नाम जपने की हिदायत करते हैं)।1। रहाउ। अर्थ: ऐसा ज्ञान प्रभु खुद ही प्रगट करता है (भाव, प्रभु से मिलाप वाला ये स्वाद प्रभु खुद ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! स्वास-स्वास नाम जप, यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।1। रहाउ। सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥ सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥ सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥ ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥ पद्अर्थ: करहु = धारण करो। जि = कि। बहुरि = फेर, दूसरी बार। पदु = दर्जा, ठिकाना। रमहु = रम जाओ, भोगो। न रवना = भोगने की आवश्यक्ता ना रहे।2। अर्थ: ऐसा गुरु धारण करो कि दूसरी बार गुरु धारण करने की जरूरत ना रहे; (भाव, पूरे गुरु की चरणी लगो); उस ठिकाने का आनंद लो कि किसी और स्वाद को भोगने की चाह ही ना रहे; ऐसी तवज्जो जोड़ो कि फिर (और कहीं) जोड़ने की जरूरत ही ना रहे; इस तरह मरो (भाव, स्वै भाव दूर करो कि) फिर (जनम) मरण में पड़ना ही ना पड़े।2। उलटी गंगा जमुन मिलावउ ॥ बिनु जल संगम मन महि न्हावउ ॥ लोचा समसरि इहु बिउहारा ॥ ततु बीचारि किआ अवरि बीचारा ॥३॥ पद्अर्थ: उलटी = उलटाई है, मन की रुचि दुनिया से मोड़ ली है। गंगा जमुन मिलावउ = (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, जो संगम मैंने अपने अंदर बनाया हुआ है वहाँ त्रिवेणी वाला पानी नहीं है)। नावउ = मैं नहा रहा हूँ, स्नान कर रहा हूँ। नोट: ‘नाव्उ’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (न्हावउ)। लोचा = लाचन से, आखों से। समसरि = एक जैसा (सबको देखता हूँ)। बिउहारा = बर्ताव, अमल, वरतारा। ततु = असलियत, परमात्मा। बीचारि = स्मरण करके। अवरि = और। बीचारा = विचारें, सोचें।3। अर्थ: मैंने अपने मन की रुचि को पलट दिया है (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, अपने अंदर तृवेणी का संगम बना रहा हूँ); (इस उद्यम से) मैं उस मन-स्वरूप (तृवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ जहाँ (गंगा-जमुना-सरस्वती वाला) जल नहीं है; (अब मैं) इन आँखों से (सब को) एक सा देख रहा हूँ- ये मेरा व्यवहार है। एक प्रभु को स्मरण करके मुझे अब और विचारों की जरूरत नहीं रही।3। अपु तेजु बाइ प्रिथमी आकासा ॥ ऐसी रहत रहउ हरि पासा ॥ कहै कबीर निरंजन धिआवउ ॥ तितु घरि जाउ जि बहुरि न आवउ ॥४॥१८॥ पद्अर्थ: अपु = जल। तेजु = हवा। ऐसी = ऐसी। रहत = रहन-सहन, जिंदगी गुजारने का तरीका। रहउ = मैं रहता हूँ। हरि पासा = हरि के पास, प्रभु के चरणों में जुड़ के। धिआवउ = मैं स्मरण कर रहा हूँ। तितु घरि = उस घर में। जाउ = मैं चला गया हूँ, पहुँच गया हूँ। जि = कि। न आवउ = नहीं आऊँगा, आना नहीं पड़ेगा।4।18। अर्थ: प्रभु के चरणों में जुड़ के मैं इस तरह का रहन-सहन (रहने की शैली) रह रहा हूँ, जैसे पानी, आग, हवा, धरती और आकाश (भाव, इन तत्वों के शीतलता आदि सब गुणों की तरह मैंने भी सब गुण धारण किए हैं)। कबीर कहता है: मैं माया से रहित प्रभु को स्मरण कर रहा हूँ, (स्मरण करके) उस घर (सहज अवस्था) में पहुँच गया हूँ कि फिर (पलट के वहाँ) आना नहीं पड़ेगा।4।18। शब्द का भाव: प्रभु की कृपा से जो मनुष्य पूरन गुरु का उपदेश ले के स्मरण करता है, वह सदा अपने अंतर-आत्मे नाम-अंमृत में डुबकी लगाए रखता है और सदा प्रभु में जुड़ा रहता है।18। गउड़ी कबीर जी तिपदे१५ ॥ कंचन सिउ पाईऐ नही तोलि ॥ मनु दे रामु लीआ है मोलि ॥१॥ पद्अर्थ: कंचन सिउ = सोने से, सोना दे के, सोने के बदले। पाईऐ नही = नहीं मिलता। तोलि = तोल के। दे = दे के। मोलि = मुल्य की जगह, मोल।1। अर्थ: शुद्ध सोना तोल के बदले में ईश्वर नहीं मिलता, मैंने तो बतौर मूल्य अपना मन दे के ईश्वर को पाया है।1। अब मोहि रामु अपुना करि जानिआ ॥ सहज सुभाइ मेरा मनु मानिआ ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: अब तो मुझे यकीन हो गया है कि ईश्वर मेरा अपना ही है, सहज ही मेरे मन में ये बात गाँठ की तरह बंध गई है।1। रहाउ। ब्रहमै कथि कथि अंतु न पाइआ ॥ राम भगति बैठे घरि आइआ ॥२॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। अपुना करि = निश्चय से अपना। सहज सुभाइ = सहज से ही, बिना यत्न किए। घरि = घर में, हृदय में।2। अर्थ: जिस ईश्वर के गुण बता-बता के ब्रहमा ने (भी) अंत ना पाया, वह ईश्वर मेरे भजन के कारण सहज स्वभाव ही मुझे मेरे हृदय में आ के मिल गया है।2। कहु कबीर चंचल मति तिआगी ॥ केवल राम भगति निज भागी ॥३॥१॥१९॥ पद्अर्थ: चंचल = चुलबुलापन। मति = अकल, बुद्धि। तिआगी = त्याग दी है, छोड़ दी है। केवल = निरी। निज भागी = मेरे हिस्से आई है।3। अर्थ: हे कबीर! (अब) कह: मैंने चंचल स्वभाव छोड़ दिया है, (अब तो) निरी ईश्वर की भक्ति ही मेरे हिस्से आई हुई है।3।19। शब्द का भाव: धन-पदार्थ आदि के बदले ईश्वर नहीं मिल सकता। जिस मनुष्य ने स्वैभाव दूर किया है, उसे आत्मिक अडोलता में आ मिला है, वह मनुष्य मन की चंचलता त्याग के सदा स्मरण में जुड़ा रहता है।19। नोट: इस शब्द के शीर्षक के शब्द ‘तिपदे’ के नीचे छोटा सा अंक ‘15’ है। इस का भाव ये है कि शब्द नं: 19 से 33 तक के 15 शब्द तीन-तीन बंदों (पदों) वाले हैं। गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मरनै सभु जगतु तरासिआ ॥ सो मरना गुर सबदि प्रगासिआ ॥१॥ पद्अर्थ: जिह मरनै = जिस मौत से। तरासिआ = त्रास किया, डरा दिया। गुर सबदि = गुरु के शब्द (की इनायत) से। प्रगासिआ = प्रगट हो गया है, उसका असली रूप दिखाई दिया है, मालूम हो गया है कि असल में ये क्या है।1। अर्थ: जिस मौत ने सारा संसार डराया हुआ है, गुरु के शब्द की इनायत से मुझे समझ आ गई है कि वह मौत असल में क्या चीज है।1। अब कैसे मरउ मरनि मनु मानिआ ॥ मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मरउ = मैं मरूँ, जनम मरण में पड़ूँ। मरनि = मरने में, मौत में, संसारिक मोह की मौत में, स्वै भाव की मौत में। मरि मरि जाते = सदा मरते खपते हैं।1। रहाउ। अर्थ: अब मैं जनम-मरण के चक्कर में क्यूँ पड़ूंगा? (भाव, नहीं पड़ूंगा) (क्योंकि) मेरा मन स्वै भाव की मौत में पतीज गया है। (केवल) वह मनुष्य सदा पैदा होते मरते रहते हैं जिन्होंने प्रभु को नहीं पहचाना (प्रभु से सांझ नहीं डाली)।1। रहाउ। मरनो मरनु कहै सभु कोई ॥ सहजे मरै अमरु होइ सोई ॥२॥ पद्अर्थ: मरनो मरनु = मौत आ जानी है, मर जाना है। सभु कोई = हरेक जीव। सहजे = सहज अडोलता में, स्थिर चिक्त हो के। मरै = मरता है, माया की ओर से मरता है, दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है। अमरु = मरने से रहित, सदा जिंदा। सोई = वह मनुष्य।2। अर्थ: (दुनिया में) हरेक जीव ‘मौत मौत’ कह रहा है (भाव, हरेक जीव मौत से घबरा रहा है), (पर जो मनुष्य) अडोलता में (रह के) दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है वह अमर हो जाता है (उसे मौत डरा नहीं सकती)।2। कहु कबीर मनि भइआ अनंदा ॥ गइआ भरमु रहिआ परमानंदा ॥३॥२०॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। भइआ = हुआ है, उपजा है, पैदा हो गया है। अनंदा = खुशी, खिड़ाव। भरमु = भुलेखा, शक। रहिआ = बाकी रह गया है, टिक गया है। परमानंदा = परम आनंद, परम सुख, बड़ी से बड़ी खुशी।3। अर्थ: हे कबीर! कह: (गुरु की कृपा से मेरे) मन में आनंद पैदा हो गया है, मेरा भुलेखा दूर हो चुका है, और परम सुख (मेरे हृदय में) टिक गया है।3।20। शब्द का भाव: जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करते हैं उन्हें मौत का डर नहीं रहता, बाकी सारा जहान मौत से डर रहा है।20। गउड़ी कबीर जी ॥ कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥ खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥ पद्अर्थ: कत = कहाँ। ठउर = जगह। मूलु = जड़ी बूटी, दवाई। कत = कहाँ? लावउ = मैं लगाऊँ। खोजत = तलाश करके। तन महि = शरीर में। न पावउ = मैं नहीं तलाश सकता।1। अर्थ: तलाश करते हुए भी शरीर में कहीं (ऐसी खास) जगह मुझे नहीं मिली (जहाँ विरह की पीड़ा बताई जा सके); (शरीर में) कहीं (ऐसी) जगह नहीं है, (तो फिर) मैं दवा कहाँ इस्तेमाल करूँ? (भाव, कोई बाहरी दवा प्रभु से विछोड़े का दुख दूर करने के समर्थ नहीं है)।1। लागी होइ सु जानै पीर ॥ राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। लागी होइ = (जिसे) लगी हुई हो। पीर = पीड़ा। राम भगति = प्रभु की भक्ति। अनीआले = तेज धार वाले, नुकीले।1। रहाउ। अर्थ: प्रभु की भक्ति तीखे तीर हैं, जिसे (इन तीरों के लगे हुए के जख्म की) दर्द हो रही हो वही जानता है (कि ये पीड़ा कैसी होती है)।1। रहाउ। एक भाइ देखउ सभ नारी ॥ किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥ पद्अर्थ: एक भाइ = एक (प्रभु) के प्यार में (भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में)। देखउ = मैं देखता हूँ। सभ नारी = सारी जीव स्त्रीयां। किआ जानउ = मैं क्या जानूं, मुझे क्या पता? सह प्यारी = पति की प्यारी।2। अर्थ: मैं सभी जीव-स्त्रीयों को एक प्रभु के प्यार में देख रहा हूँ (पर) मैं क्या जानूं कि कौन सी (जीव-स्त्री) प्रभु पति की प्यारी है।2। कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥ सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥ पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिसके माथे पर। भागु = अच्छे लेख। ता कउ = उस जीव-स्त्री को। सभ परहरि = सभी को छोड़ के। सुहागु = पति परमात्मा।3। अर्थ: हे कबीर! कह: जिस (जिज्ञासु) जीव-सत्री के माथे पे बढ़िया लेख हैं (जिसके भाग्य अच्छे हैं), पति प्रभु और सभी को छोड़ के उसे आ मिलता है (भाव, औरों से ज्यादा उससे प्यार करता है और उसका बिरह का दुख दूर हो जाता है)।3।21। शब्द का भाव: देखने को तो सब जीव प्रभु से मिलने का उद्यम कर रहे हैं, पर प्रभु मिलता उसी भाग्यशाली को है, जिसका हृदय प्रेम से भेदा जाता है।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |