श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 328 गउड़ी कबीर जी ॥ जा कै हरि सा ठाकुरु भाई ॥ मुकति अनंत पुकारणि जाई ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय रूप घर में। हरि सा = परमात्मा जैसा (भाव, परमात्मा स्वयं)। ठाकुरु = मालिक। भाई = हे भाई! अनंत = अनेक बार। पुकारणि जाई = बुलाने के लिए जाती है (अपना आप भेट करती है)।1। अर्थ: हे सज्जन! जिस मनुष्य के हृदय रूपी घर में प्रभु मालिक खुद मौजूद है, मुक्ति उसके आगे अपना आप अनेक बार भेटा करती है।1। अब कहु राम भरोसा तोरा ॥ तब काहू का कवनु निहोरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अब = अब। कहु = कह। राम = हे प्रभु! तोरा = तेरा। काहू का = किसी और का। कवनु = कौन सा, क्या? निहोरा = अहसान।1। रहाउ। अर्थ: (हे कबीर! प्रभु की हजूरी में) अब कह: हे प्रभु! जिस मनुष्य को एक तेरा आसरा है उसे अब किसी की खुशामद (करने की जरूरत) नहीं है।1। रहाउ। तीनि लोक जा कै हहि भार ॥ सो काहे न करै प्रतिपार ॥२॥ पद्अर्थ: जा कै भार = जिस (प्रभु) के आसरे। काहे न = क्यूं ना? प्रतिपार = पालना।2। अर्थ: जिस प्रभु के आसरे तीनों लोक हैं, वह (तेरी) पालना क्यूँ ना करेगा?।2। कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ किआ बसु जउ बिखु दे महतारी ॥३॥२२॥ पद्अर्थ: बुधि = अकल, सोच। बीचारी = विचारी है, सोची है। जउ = यदि, अगर। बिखु = विष, जहर। महतारी = माँ। बसु = वश, जोर।3। अर्थ: हे कबीर! कह: हमने एक सोच सोची है (वह ये है कि) अगर माँ ही जहर देने लगे तो (पुत्र का) कोई जोर नहीं चल सकता।3।22। गउड़ी कबीर जी ॥ बिनु सत सती होइ कैसे नारि ॥ पंडित देखहु रिदै बीचारि ॥१॥ पद्अर्थ: होइ कैसे = कैसे हो सकती है? कैसे कह सकती है? सत = स्वच्छ आचरण। नारि = स्त्री। पंडित = हे पंडित! बीचारि = विचार करके।1। अर्थ: हे पंडित! मन में विचार के देख, भला सत्य-धर्म के बिना कोई स्त्री सती कैसे बन सकती है?।1। प्रीति बिना कैसे बधै सनेहु ॥ जब लगु रसु तब लगु नही नेहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बधै = बन सकता है। सनेहु = प्यार। रसु = माया का स्वाद।1। रहाउ। अर्थ: (इसी तरह हृदय में) प्रीति के बिना (प्रभु पति से) प्यार कैसे बन सकता है? जब तक (मन में) माया का चस्का है, तब तक (पति परमात्मा से) प्यार नहीं हो सकता।1। रहाउ। साहनि सतु करै जीअ अपनै ॥ सो रमये कउ मिलै न सुपनै ॥२॥ पद्अर्थ: साहनि = शाह की बीवी, प्रभू = शाह की स्त्री, माया। सतु करै = सत्य समझता है। जीअ = हृदय में। रमये कउ = राम को।2। अर्थ: जो मनुष्य माया को ही अपने दिल में सत्य समझता है वह प्रभु को सपने में भी (भाव, कभी भी) नहीं मिल सकता।2। तनु मनु धनु ग्रिहु सउपि सरीरु ॥ सोई सुहागनि कहै कबीरु ॥३॥२३॥ पद्अर्थ: सउपि = सौंपे, हवाले कर दे। सुहागनि = सुहाग वाली, भाग्यशाली।3। अर्थ: कबीर कहता है: वह (जीव-) स्त्री भाग्यशाली है जो अपना तन-मन-धन-घर और शरीर (अपने पति के) हवाले कर देती है।3।23। शब्द का भाव: माया का मोह त्यागने से ही प्रभु के चरणों में प्यार बन सकता है। दोनों इकट्ठे नहीं टिक सकते। गउड़ी कबीर जी ॥ बिखिआ बिआपिआ सगल संसारु ॥ बिखिआ लै डूबी परवारु ॥१॥ पद्अर्थ: बिखिआ = माया। सगल = सारा। बिआपिआ = ग्रसा हुआ, दबा हुआ।1। अर्थ: सारा जहान ही माया के (प्रभाव तले) दबा हुआ है; माया सारे ही कुटंब को (सारे ही जीवों को) डुबोए बैठी है।1। रे नर नाव चउड़ि कत बोड़ी ॥ हरि सिउ तोड़ि बिखिआ संगि जोड़ी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नाव = बेड़ी। चउड़ि = खुली जगह, खुले मैदान में। बोड़ी = डुबाई। बिखिआ संगि = माया के साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे मनुष्य! तूने (अपनी जिंदगी की) बेड़ी क्यूँ खुली जगह पर डुबो ली है? तूने प्रभु से प्रीति तोड़ के माया के साथ गाँठी हुई है।1। रहाउ। सुरि नर दाधे लागी आगि ॥ निकटि नीरु पसु पीवसि न झागि ॥२॥ पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। दाधे = जल गए। निकटि = नजदीक। पीवसि न = नहीं पीता। झागि = मुश्किल से गुजर के, उद्यम करके।2। अर्थ: (सारे जगत में माया की तृष्णा की) आग लगी हुई है (जिस में) देवते और मनुष्य जल रहे हैं। (इस आग को शांत करने के लिए नाम-रूपी) पानी भी नजदीक ही है पर (यह) पशु (जीव) कोशिश करके पीता नहीं है।2। चेतत चेतत निकसिओ नीरु ॥ सो जलु निरमलु कथत कबीरु ॥३॥२४॥ पद्अर्थ: चेतत चेतत = याद करते करते, स्मरण करने से। निकसिओ = निकल आया। निरमलु = साफ़। कथत = कहता है।3। अर्थ: कबीर कहता है: (वह नाम-रूपी) पानी स्मरण करते करते ही (मनुष्य के दिल में) प्रगट होता है, और वह (अमृत) जल पवित्र होता है, (तृष्णा की आग उसी जल से बुझ सकती है)।3।24। शब्द का भाव: वह तृष्णा की आग जिसमें सारा जगत जल रहा है, केवल प्रभु के नाम रूपी अमृत के साथ ही बुझ सकती है। सो, हर समय नाम ही स्मरण करो।24। गउड़ी कबीर जी ॥ जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥ बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥ पद्अर्थ: जिह कुलि = जिस कुल में। बिधवा = ठंडी। कस = क्यूं? महतारी = माँ।1। अर्थ: जिस कुल में ज्ञान की विचार करने वाला (कोई) पुत्र नहीं (पैदा हुआ) उसकी माँ रंडी क्यों ना हो गई?।1। जिह नर राम भगति नहि साधी ॥ जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राम भगति = प्रभु की बंदगी। साधी = की। जनमत = पैदा होते ही। अपराधी = पापी।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु की बँदगी नहीं की, वह अपराधी पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया?।1।रहाउ। मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥ बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥ पद्अर्थ: मचु मचु = बहुत सारे। कीन = क्यूँ? बुडभुज रूप = डुडे की तरह। मझिआ = में।2। अर्थ: (संसार में) कई गर्भ छन गए हैं, ये (बंदगी-हीन चंदरा) क्यूँ बच रहा? (बंदगी से वंचित यह) जगत में एक कोढ़ी जी रहा है।2। कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥ नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥ पद्अर्थ: कुबज = कुब्बा। कुरूप = भद्दे रूप वाले, बद्शकल।3। अर्थ: हे कबीर! (बेशक) कह: जो मनुष्य नाम से वंचित हैं, वे (चाहे देखने में) सुंदर रूप वाले हैं (पर असल में) कुब्बे और बद्शकल हैं।3।24। शब्द का भाव: जो मनुष्य परमात्मा की बंदगी नहीं करता, वह बाहर से देखने में चाहे सुंदर हो, पर उसकी आत्मा मलीन होने के कारण जगत में उसका आना व्यर्थ है।25। गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन लेहि खसम का नाउ ॥ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥ पद्अर्थ: लेहि = लेते हैं। सद = सदा। बलिहारै जाउ = मैं सदके जाता हूँ।1। अर्थ: जो मनुष्य मालिक प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, मैं सदा उनके सदके जाता हूँ।1। सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥ सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। भाई = भ्राता। भावै = प्यारा लगता है।1। रहाउ। अर्थ: जो भाई प्रभु के सुंदर गुण गाता है, वह पवित्र है, और वह मेरे मन को प्यारा लगता है।1। रहाउ। जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥ तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥ पद्अर्थ: जिह घट = जिस मनुष्यों के हृदयों में। रहिआ भरपूरि = नाकोनाक भरा हुआ है, प्रगट हो गया है। पग = पैर। पंकज = (पंक = कीचड़, ज = पैदा हुआ), कीचड़ में से पैदा हुआ, कँवल फूल। धूरि = धूल।2। अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय में प्रभु प्रगट हो गया है, उनके कमल फूल जैसे (सुंदर) चरणों की हम धूल हैं (भाव, चरणों से सदके हैं)।2। जाति जुलाहा मति का धीरु ॥ सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥ पद्अर्थ: धीरु = धैर्य वाला। सहजि = सहिज में, अडोल अवस्था में रह के। रमै = स्मरण करता है।3। अर्थ: कबीर चाहे जाति का जुलाहा है, पर मति का धैर्यवान है (क्योंकि) अडोलता में रह के (प्रभु के) गुण गाता है।3।26। शब्द का भाव: किसी भी जाति का हो, जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, उसका मन पवित्र हो जाता है।26। गउड़ी कबीर जी ॥ गगनि रसाल चुऐ मेरी भाठी ॥ संचि महा रसु तनु भइआ काठी ॥१॥ पद्अर्थ: गगन = आकाश, दसवाँ द्वार। गगनि = आकाश में से, दसवें द्वार में से। गगनि भाठी = दसवाँ-द्वार रूपी भट्ठी में से। रसाल = रसीला, स्वादिष्ट। चुऐ = चू रहा है (अमृत)। संचि = एकत्र करके। काठी = लकड़ियां। तनु = शरीर, शरीर की ममता, देह अध्यास।1। अर्थ: मेरी गगन-रूपी भट्ठी में से स्वादिष्ट अमृत चू रहा है (भाव, ज्यों ज्यों मेरा मन प्रभु की याद में जुड़ता है, उस याद में जुड़े रहने की एक-तार लगन, जैसे अमृत की धार निकलनी शुरू हो जाती है), उस उच्च नाम-रस को एकत्र करने के कारण शरीर (की ममता) लकड़ियों का काम कर रही है (भाव, शरीर की ममता जल गई है)।1। उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा ॥ पीवत राम रसु गिआन बीचारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उआ कउ = उस मनुष्य को। सहज = कुदरती तौर पर। मतवारा = मतवाला, मस्त। गिआन बीचारा = ज्ञान के विचार के द्वारा।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य ने ज्ञान के विचार के द्वारा (भाव, तवज्जो माया से ऊूंची करके) राम-रस पीया है, उसे कुदरती तौर पे (भाव, स्वभाविक ही) मस्त हुआ हुआ कहते हैं।1। रहाउ। सहज कलालनि जउ मिलि आई ॥ आनंदि माते अनदिनु जाई ॥२॥ पद्अर्थ: सहज = सहज अवस्था में, अडोलता। कलालनि = शराब पिलाने वाली। जउ = जब। माते = मस्त हो के। अनदिनु = हर रोज। जाई = गुजरता है, बीतता है।2। अर्थ: जब सहज अवस्था-रूप शराब पिलाने वाली आ मिलती है तब आनंद में मस्त हो के (उम्र का) हरेक दिन बीतता है (भाव, नाम स्मरण करते हुए मन में एक ऐसी हालत पैदा होती है जहाँ मन माया के झोकों में डोलता नहीं। इस हालत को सहज अवस्था कहते हैं; ये सहज अवस्था जैसे, एक कलालिन है, जो नाम का नशा दिए जाती है; इस नशे से विछुड़ने को चित्त नहीं करता, और बार-बार नाम की लगन में ही टिका रहता है)।2। चीनत चीतु निरंजन लाइआ ॥ कहु कबीर तौ अनभउ पाइआ ॥३॥२७॥ पद्अर्थ: चीनत = देख देख के, आनंद ले के, परख परख के। तौ = तब। अनभउ = प्रकाश, ज्ञान, अंदरूनी प्रकाश।3। अर्थ: हे कबीर! कह: (इस तरह) आनंद ले ले के जब मैंने अपना मन निरंकार के साथ जोड़ा, तब मुझे अंदरूनी रौशनी मिल गई।3।27। शब्द का भाव: (नाम जपने की इनायत): नाम स्मरण करते स्मरण करते मन माया में डोलने से हट जाता है, नाम में जुड़े रहने की लगन बढ़ती जाती है, शरीर का मोह मिट जाता है, और मानव जीवन की अस्लियत की असल सूझ पड़ जाती है।27। नोट: शब्द का केंद्रिय भाव ‘रहाउ’ की पंक्ति में होता है। यहाँ कहा है कि जो मनुष्य सदा नाम स्मरण करता है वह एक ऐसी दशा में पहुँचता है जहाँ उसका मन माया में डोलता नहीं। इस अवस्था में ज्यों ज्यों वह प्रभु की याद में जुड़ता है, त्यों त्यों हिलोरे आते हैं, मस्ती सी चढ़ती है। जोगी लोग शराब पी के समाधि लगाते थे, पर कबीर जी ने उस साधन की यहाँ निंदा की है; और स्मरण को ही प्रभु चरणों में जुड़ने का सबसे ऊूंचा तरीका बताया है। गउड़ी कबीर जी ॥ मन का सुभाउ मनहि बिआपी ॥ मनहि मारि कवन सिधि थापी ॥१॥ पद्अर्थ: मनहि बिआपी = (सारे) मन पर प्रभाव डाले रखता है। मनहि मारि = मन को मार के। कवन सिधि = कौन सी सफलता? थापी = मिथ ली है, कमा ली है। सुभाउ = (स्व+भाव) निज की लगन, रुचि।1। अर्थ: (हरेक मनुष्य के) मन की अंदरूनी लगन (जो भी हो, वह उस मनुष्य के) सारे मन (भाव, मन की सारी दौड़-भाग, सारे मानव जीवन) पर प्रभाव डाले रखती है, (तो फिर) मन को मार के कौन सी कमाई कर ली है (भाव, कोई कामयाबी नहीं होती)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |