श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कवनु सु मुनि जो मनु मारै ॥ मन कउ मारि कहहु किसु तारै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मारि = मार के। कहहु = बताओ। किसु = किसे?।1। रहाउ।

अर्थ: वह कौन सा मुनि है जो मन को मारता है? बताओ, मन को मार के वह किसे पार लंघाता है?।1। रहाउ।

मन अंतरि बोलै सभु कोई ॥ मन मारे बिनु भगति न होई ॥२॥

पद्अर्थ: मन अंतरि = मन के अंदर, मन के प्रभाव तहत, मन से प्रेरित हुआ। सभु कोई = सब जीव।2।

अर्थ: हरेक मनुष्य मन का प्रेरित हुआ ही बोलता है (भाव, जो अच्छे-बुरे काम मनुष्य करता है, उनके लिए प्रेरणा मन से ही होती है; इस वास्ते) मन को मारे बिना (भाव, मन को विकारों से हटाए बिना) भक्ति (भी) नहीं हो सकती।2।

कहु कबीर जो जानै भेउ ॥ मनु मधुसूदनु त्रिभवण देउ ॥३॥२८॥

पद्अर्थ: भेउ = भेद। मधु सूदनु = मधु दैंत को मारने वाला, परमात्मा। त्रिभवण देउ = तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला।3।

अर्थ: हे कबीर! कह: जो मनुष्य इस रम्ज़ को समझता है उसका मन तीन लोकों को प्रकाशित करने वाला परमात्मा का रूप हो जाता है।3।28।

शब्द का भाव: जो जो अच्छा-बुरा काम आदमी करता रहता है उन सबके संस्कार मनुष्य के अंदर एकत्र होते रहते हैं, संस्कारों के इस समूह का नाम है ‘मन’। जब कोई एक खास अच्छी या बुरी वादी बन जाए तो वह मन के बाकी संस्कारों को दबा के रखती है और मनुष्य के सारे जीवन को उधर ही पलटा लेती है। मनुष्य की सारी दौड़-भाग मन के इन संस्कारों की प्रेरणा के आसरे होती है। अगर मन को मारने का प्रयत्न किया जाए, मन को बिल्कुल ही खत्म कर देने की कोशिश की जाए तो मनुष्य के जीवन की सारी क्रिया ही ठहर जाएगी। सो, मन को मारना नहीं है, इसकी उन रुचियों को वश में लाना है जो बुरी तरफ़ ले जाती हैं, जैसे;

कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई॥ जिउ गोडहु तिउ सुखु पावहु किरतु न मेटिआ जाई॥ (बसंतु महला १)

काम (प्यार) और क्रोध को खत्म नहीं करना, इन्हें बसोले बनाना है। जैसे जिमींदार खेती में गोड़ी करके बेकार वाली घास बूटियां उखाड़ता है, पर फसल के पौधों को ध्यान से बचाए जाता है। इसी प्रकार मानव-जीवन रूपी फसल में से विकारों के संस्कारों वाले नदीनों को जड़ से उखाड़ना है; विकारों के संस्कारों पर, जैसे, क्रोध करना है, पर शुभ गुणों को प्यार करना है, संभाल के रखना है।28।

नोट: इस शब्द में जोगियों के सुन्नमुन्न हो के बैठे रहने को व्यर्थ का उद्यम बताते हुए कबीर जी कहते हैं कि असल में मन को विकारों की तरफ से रोकना है, और जगत का कार्य भी करना है। सुन्नमुन्न हो के जो विकारों की तरफ से हटा, तो वह जड़ सा हो के भली तरफ से भी हटा रहा।

गउड़ी कबीर जी ॥ ओइ जु दीसहि अ्मबरि तारे ॥ किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥

पद्अर्थ: ओइ = वह। दीसहि = दिखाई दे रहे हैं। अंबरि = आकाश में। किनि = किस ने? चीते = चित्रित किए हैं। चीतनहारे = चित्रकार ने।1।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: वे तारे जो आकाश में दिखाई दे रहे हैं किस चित्रकार ने चित्रे हैं?।1।

कहु रे पंडित अ्मबरु का सिउ लागा ॥ बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अबरु = आकाश। का सिउ = किससे, किस के आसरे? बूझनहारु = जानने वाला, सयाना।1। रहाउ।

अर्थ: बताओ, हे पंडित! आकाश किस के सहारे है? कोई भाग्यशाली समझदार व्यक्ति ही इस (रम्ज़ को) समझता है।1। रहाउ।

सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥ सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥

पद्अर्थ: करहि = कर रहे हैं। उजिआरा = रोशनी। ब्रहम पसारा = प्रभु का खिलारा, प्रभु की ज्योति का प्रकाश।2।

अर्थ: (ये जो) सूरज और चंद्रमा (आदि जगत में) प्रकाश कर रहे हैं (इन) सभी में प्रभु की जोति का (ही) प्रकाश बिखरा हुआ है।2।

कहु कबीर जानैगा सोइ ॥ हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। हिरदै = हृदय में। मुखि = मुंह में। रामै = राम ही (राम ई = रामै)।3।

अर्थ: हे कबीर! (बेशक) कह: (इस भेद को) वही मनुष्य समझेगा, जिसके हृदय में प्रभु बस रहा है, और मुंह में (भी) केवल प्रभु ही है (भाव, जो मुंह से भी प्रभु के गुण उचार रहा है)।3।29।

शब्द का भाव: इस सारे जगत को पैदा करने वाला और आसरा देने वाला प्रभु स्वयं ही है उसकी अपनी ज्योति का प्रकाश हर जगह हो रहा है, पर इस बात की समझ सिर्फ उस मनुष्य को ही आती है जो प्रभु की बंदगी करता है।29।

गउड़ी कबीर जी ॥ बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥ सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बेद की पुत्री = वेदों की बेटी, वेदों की पैदा की हुई, वेदों के आधार पर बनी हुई। सांकल = (वर्ण आश्रम के) संगल, जंजीरें। जेवरी = (कर्मकांड की) रस्सियां। लै है आई = ले के आई हुई है।1।

अर्थ: हे भाई! ये स्मृतियां, जो वेदों के आधार पर बनीं हैं (ये तो अपने श्रद्धालुओं के वास्ते वर्ण-आश्रम की जैसे) जंजीरें (कर्म-कांड की) रस्सियां ले के आई हुई हैं।1।

आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥ मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आपन नगरु = अपना शहर, अपने श्रद्धालुओं की बस्ती, अपने सारे श्रद्धालु। आप ते = आप ही। मोह कै = मोह (की फासीं) में। फाधि = फसा के। काल सरु = मौत का तीर, जनम मरण का तीर। सांधिआ = खींचा हुआ है।1। रहाउ।

अर्थ: (इन स्मृतियों ने) अपने सारे श्रद्धालु स्वयं ही जकड़े हुए हैं, (इन को स्वर्ग आदि के) मोह की फांसी में फसा के (इनके सिर पे) मौत (के सहम) का तीर (इसने) खींचा हुआ है।1। रहाउ।

कटी न कटै तूटि नह जाई ॥ सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥

पद्अर्थ: सापनि = सँपनी। जग = संसार, अपने श्रद्धालुओं को।2।

अर्थ: (ये स्मृति रूपी फांसी की रस्सी श्रद्धालुओं द्वारा) काटे काटी नहीं जा सकती और ना ही (अपने आप) ये टूटती है। (अब तो) साँपिन बन के जगत को खा रही है (भाव, जैसे सांपिन अपने बच्चों को खा जाती है, वैसे ही स्मृति अपने ही श्रद्धालुओं का नाश कर रही है)।2।

हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥ कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥

पद्अर्थ: हम देखत = हमारे देखते ही। जिनि = जिस (स्मृति) ने। सभु जगु = सारे संसार को। राम कहि = राम राम कह के, प्रभु का स्मरण करके। छूटिआ = बच गया हूँ।3।

अर्थ: हे कबीर! कह: हमारे देखते-देखते जिस (स्मृति) ने सारे संसार को ठग लिया है, मैं प्रभु का स्मरण करके उससे बच गया हूँ।3।30।

शब्द का भाव: स्मृतियों के बनाए हुए वर्ण-आश्रम और कर्मकांड स्मृतियों में श्रद्धा रखने वाले के लिए गले की जंजीरें बन जाती हैं। उन्हें यह ऐसे वहिमों-भरमां में जकड़ देती हैं कि छुटकारा होना मुश्किल हो जाता है। प्रभु का नाम जपना ही इनसे बचाने में समर्थ है।30।

गउड़ी कबीर जी ॥ देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥ सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥

पद्अर्थ: देइ = दे के, पा के। मुहार = घोड़े की पूजी जो मुंह से तंग के साथ नीचे से बंधी होती है (भाव, मुंह+हार, मुंह को बंद करना, निंदा स्तुति से बच के रहना)। लगामु = (भाव) प्रेम की लगन। लगाम पहिरावउ = मैं लगाम चढ़ाऊँ, भाव, मन को प्रेम की लगन लगाऊँ। सगलत = सर्व व्यापकता। गगन = आकाश, भाव, दसवाँ द्वार। गगन दउरावउ = दसवें द्वार में दौड़ाऊँ, मैं प्रभु के देश की उड़ानें भरूँ, मन को प्रभु की याद में जोड़ूँ।1।

अर्थ: मैं तो (अपने मन रूपी घोड़े को स्तुति-निंदा से रोकने) मुहार दे के (प्रेम की लगन की) लगाम डालता हूँ और प्रभूको हर जगह व्यापक जानना- ये काठी डाल के (मन को) निरंकार के देश की उड़ान लगवाता हूँ। (भाव, मन को प्रभु की याद में जोड़ता हूँ)।1।

अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥ सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अपनै बीचारि = अपने आप की विचार पे, अपने स्वरूप के ज्ञान (रूपी घोड़े) पर। असवारी कीजै = सवार हो जाईए। पावड़ै = सहिज अवस्था की रकाब में। पगु = पैर, बुद्धि रूपी पैर, ता कि गिर ना जाएं (मन विनम्रता भरा, मति ऊँची, मति का रक्षक स्वयं ईश्वर, ‘मन नीवां, मति ऊंची, मति का राखा वाहिगुरु’, इस अरदास में यही भाव है कि अकल प्रभु के अधीन रहके सहज अवस्था में टिकी रहे और मन पर काबू रखे)। धरि लीजै = रक्षा करें, रख लें।1। रहाउ।

अर्थ: (आओ भाई!) अपने स्वरूप के ज्ञान-रूप घोड़े पर सवार हो जाएं (भाव,हमारी असलियत क्या है, इस विचार को घोड़ा बना के इस पर सवार होएं), और अकल रूपी पैर को सहज अवस्था की रकाब में रखी रहें।1। रहाउ।

चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥ हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥

पद्अर्थ: चलु रे = हे (मन!) चल। तुझहि = (हे मन!) तुझे। तारउ = ताऊँ, तैराऊं, तैराकी का आनंद दूँ। बैकुंठ तारउ = बैकुंठ की तैराकी का आनंद दूँ। हचहि = अगर तू जिद करेगा।2।

अर्थ: चल, हे (मन-रूप घोड़े)! तुझे बैकुंठ की सैर कराऊँ, अगर जिद की तो तुझे मैं प्रेम का चाबुक मारूँगा।2।

कहत कबीर भले असवारा ॥ बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥

पद्अर्थ: भले = अच्छे, सयाने। ते = से। निरारा = निराला, अलग। रहहि = रहते हैं।3।

अर्थ: कबीर कहता है: (ऐसे) सयाने सवार (जो अपने मन पे सवार होते हैं) वेदों और कतेबों (को सच्चे-झूठे कहने के झगड़े) से अलग रहते हैं।3।31।

शब्द का भाव: और मतों की धर्म-पुस्तकों की निंदा करने की बजाय, धर्म का सही रास्ता ये है कि अपने असल परमात्मा को हमेशा याद रखें, और इस तरह मन को विकारों में ना डोलने दें। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु के चरणों से प्रेम जोड़ता है, वह मानो, बैकुंठ में उड़ानें भरता है।31।

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मुखि पांचउ अम्रित खाए ॥ तिह मुख देखत लूकट लाए ॥१॥

पद्अर्थ: जिह मुखि = जिस मुंह से। पांचउ = पाँचों ही। पांचउ अंम्रित = पाँचों ही अमृत, पाँचों ही उत्तम कहे जाने वाले भोजन: दूध, दहीं, घी, खण्ड, शहिद। खाए = खाते हैं। देखत = देखते ही। लूकट = छुपी, लांबू, चिंगारी लगाना।1।

अर्थ: जिस मुंह से पाँचों ही उत्तम पदार्थ खाते हैं, (मरने पर) उस मुंह को अपने ही लांबू (जला के) लगा देते हैं।1।

इकु दुखु राम राइ काटहु मेरा ॥ अगनि दहै अरु गरभ बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम राइ = हे सुंदर राम! काटहु = दूर करो। अगनि = आग। दहै = जलाती है। बसेरा = वासा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! ये जो तृष्णा की आग जलाती है, और गरभ का बसेरा है (अर्थात, ये जो बार-बार पैदा होना-मरना पड़ता है और तृष्णा की आग में जलते हैं) - मेरा एक ये दुख दूर कर दे।1। रहाउ।

काइआ बिगूती बहु बिधि भाती ॥ को जारे को गडि ले माटी ॥२॥

पद्अर्थ: बिगूती = खराब होती है। बहु बिधि भाती = बहुत सी बिधि से बहुत भांति से, कई तरह से। को = कोई मनुष्य। जारे = जला देता है।2।

अर्थ: (मरने के बाद) ये शरीर कई तरह से खराब हो जाता है। कोई इसे जला देता है, कोई इसे मिट्टी में दबा देता है।2।

कहु कबीर हरि चरण दिखावहु ॥ पाछै ते जमु किउ न पठावहु ॥३॥३२॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! दिखावहु = दर्शन करा दो। पाछै ते = उससे पीछे। किउं न = भले ही। पठावहु = भेज दो।3।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के दर पर ऐसे) कह: हे प्रभु! (मुझे) अपने चरणों के दर्शन करा दे, उसके बाद बेशक जम को ही (मेरे प्राण लेने के लिए) भेज देना।3।32।

शब्द का भाव: निरा इस शरीर को पालने के लगे रहना जीवन का लक्ष्य नहीं, क्योंकि मौत आने पर शरीर ने आखिर ख़ाक में मिल जाना है। जीव यहाँ आया है प्रभु का भजन करने।32।

गउड़ी कबीर जी ॥ आपे पावकु आपे पवना ॥ जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। पावकु = आग। पवना = हवा। जारै = जलाता है। त = तो। कवना = कौन?।1।

अर्थ: पति (प्रभु) खुद ही आग है, और खुद ही हवा है। अगर वह खुद ही (जीव को) जलाने लगे, तो कौन बचा सकता है?।1।

राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥ राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम जपत = प्रभु का स्मरण करते हुए। की न = क्यूँ ना? चाहे, बेशक। जरि की न जाइ = बेशक जल जाए।1। रहाउ।

अर्थ: (जिस मनुष्य का) मन प्रभु के नाम में जुड़ रहा है, प्रभु का स्मरण करते करते (उसका) शरीर भी चाहे जल जाए (वह रक्ती भर भी परवाह नहीं करता)।1। रहाउ।

का को जरै काहि होइ हानि ॥ नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥

पद्अर्थ: का को = किस का कुछ? काहि = किस का? हानि = हानि, नुकसान। वट = भेस। सारिगपानि = (सारंग = धनुष, पानि = पाणि, हाथ), जिसके हाथ में सारंग धनुष है, जो सब जीवों को मारने वाला भी है, अर्थात परमात्मा।2।

अर्थ: (क्योंकि, बंदगी करने वाले को ये निश्चय होता है कि) ना किसी का कुछ जलता है ना किसी का कुछ नुकसान होता है, प्रभु खुद ही (सब जगह) नटों के भेस की तरह (बहरूपिया बन के) खेल रहा है, (भाव, कहीं खुद ही नुकसान कर रहा है, और कहीं खुद ही वह नुकसान सह रहा है)।2।

कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥ होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥

पद्अर्थ: भाखि = कह। अखर दुइ = दोनों अक्षर, दो ही बातें, एक छोटी सी बात। होइगा खसमु = अगर मालिक होगा, अगर पति को मंजूर होगा। लेइगा राखि = बचा लेगा।3।

अर्थ: (इस वास्ते) हे कबीर! (तू तो) ये छोटी सी बात याद रख कि यदि पति को मंजूर होगा तो (जहां कहीं भी जरूरत होगी, खुद ही) बचा लेगा।3।33।

शब्द का भाव: नाम जपने की इनायत से ये यकीन बन जाता है कि प्रभु स्वयं ही हर जगह रक्षक है, और कोई किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता; वह खुद ही जगत की हरेक खेल, खेल रहा है।33।

गउड़ी कबीर जी दुपदे ॥ ना मै जोग धिआन चितु लाइआ ॥ बिनु बैराग न छूटसि माइआ ॥१॥

पद्अर्थ: दुपदे = दो पदों वाले शब्द (पद = बंद, stanza), दो बंदों वाले शब्द। चितु लाइआ = मन जोड़ा, ख्याल किया, विचार की। बैराग = संसार के मोह से उपरामता। छूटसि = दूर होगी। न छूटसि = खलासी नही होगी।1।

अर्थ: मैंने तो जोग (के बताए हुए) ध्यान (भाव, समाधियों) का विचार नहीं किया (क्योंकि इससे वैराग पैदा नहीं होता, और) वैराग के बिना माया (के मोह) से खलासी (मुक्ति) नहीं हो सकती।1।

कैसे जीवनु होइ हमारा ॥ जब न होइ राम नाम अधारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जब = अगर, जब। आधारा = आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: (माया इतनी प्रबल है कि) अगर हमें प्रभु के नाम का आसरा ना हो तो हम (सही जीवन) जी नही सकते।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh